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Friday, 16 December 2016

सवाल हिंदी सहित ‘भारतीय-भाषाओं’ का है - हिंदी कल्याण न्यास

संविधान परिषद की १२ सितम्बर १९४९ को अपराह्न में भाषा के प्रश्न पर विचार किया गया। अध्यक्ष डॉराजेन्द्रप्रसाद ने स्मरणीय शब्दों में कहा,-“हम यह नहीं भूले कि भाषा के प्रश्न पर कुछ भी निर्णय ले लिया जाएसमूचे देश को उसे मानना पड़ेगा। सारे संविधान में शायद ऐसा दूसरा कोई प्रावधान न होगा कि जिसे प्रति दिनप्रति प्रहरप्रति पल हमें व्यवहार में क्रियान्वित करना होगा। इसलिए आपको कहूँगा कि केवल बहस बाज़ी ले जाने से बात नहीं बनेगी।

संविधान के भाग १७ (राजभाषाअध्याय१ में अनुच्छेद ३४३ के
अनुसार संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी।” इसी

अनुच्छेद के खण्ड 
(में कहा गया है कि संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष

की कालावधि तक संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए यथापूर्व अँग्रेजी

भाषा प्रयोग की जाती रहेगी। खण्ड 
()के अंतर्गत संसद को अधिकार दिया

गया कि पंद्रह साल की अवधि के बादभी विधि द्वारा अँग्रेजी भाषा का

प्रयोग ऐसे प्रयोजनों के लिए उपबंधित कर सके कि जो उस विधि में

उल्लिखित हो।अब स्पष्ट हैं कि अँग्रेजी देश की दूसरी सह भाषा ही

नहीं
संघ की राजभाषा बना दी गई है और हिंदी संवैधानिक मान्यता प्राप्त

मात्र भाषा व्यवहार में है। देश में एक नहीं दो राजभाषाएँ हैं।
अंग्रेजी वास्तव में दूसरी सह भाषा हो कर भी सत्ता के सभी केंद्रों पर राज कर रही है। दूसरी ओर हिंदी प्रथम संवैधानिक राजभाषा के पद पर होते हुए भी मात्र काग़ज़ पर है। अँग्रेजी के अनुवाद की भाषा है। दुनिया में ऐसी सोचनीय स्थिति किसी भाषा की नहीं होगी। देश की भाषा अपने पद से अधिकार से वंचित है। विदेशी भाषा का प्रभुत्व देश की सत्ता परराजकाज परशिक्षान्यायमीडियाव्यापारउद्योग,उच्च वर्ग जो मुश्किल से चार प्रतिशत हैव्यवहार में है।

दिसम्बर १९६७ में भारतीय संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित इस संकल्प को जानना प्रासंगिक होगा :- “जब कि संविधान के अनुच्छेद ३४३ के अनुसार संघ की राजभाषा हिंदी रहेगी। और उसके अनुच्छेद ३५१ के अनुसार हिंदी भाषा की प्रसार वृद्धि करना और उसका विकास करना ताकि वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम हो सकेसंघ का कर्त्तव्य हैयह सभा संकल्प करती है कि हिंदी के प्रसार एवं विकास की गति बढ़ाने के हेतु तथा संघ के विभिन्न राजकीय प्रयोजनों के लिए उत्तरोत्तर इसके प्रयोग के हेतु भारत सरकार द्वारा एक अधिक गहन एवं व्यापक कार्यक्रम तैयार किया जायगा और उसे कार्यान्वित किया जाएगा।” इस प्रस्ताव की जानकारी देश को कार्यपालिका,व्यवस्थापिकान्यायपालिका और देश के जनजन तक पहुँचाने से बहुत से भ्रम और और विसंगतियाँ दूर होने में सहायता मिलेगी।


दूसरी महत्त्व की जानकारी यह है:-कांग्रेस दल की कार्यसमिति का २ जून १९६५ का भाषा प्रस्ताव हमारे राष्ट्रीय जीवन का बहुत ही ख़तरनाक मोड़ सिद्ध हुआ है। यह राष्ट्रीय राजनैतिक विचारशक्ति के पक्षाघात की परिणति रहा है। इसके कारण हिंदी का निरंतर वध होता गया है। कांग्रेस कार्यसमिति के प्रस्ताव से हिंदी बनाम क्षेत्रीय भाषाओं के बीच विवाद पैदा हो गया। इस प्रस्ताव के अनुसार अँग्रेजी का प्रयोग तब तक चलता रहेगा कि जब तक समग्र अहिन्दी राज्य और संसद की दोनों सभाएं अँग्रेजी का प्रयोग बंद करने के लिए प्रस्ताव पारित न कर दें। यदि एक भी अहिन्दी राज्य अँग्रेजी चलाना चाहेगातो अँग्रेजी का प्रयोग बंद नहीं किया जा सकेगा। यह प्रस्ताव अँग्रेजी को स्थायी तौर पर भारतीय राष्ट्र की मुख्य भाषा के रूप में स्वीकार करने के लिए एक शुरुआत थी। २ फरवरी १८६५ के दिन लॉर्ड मैकाले ने ब्रिटिश संसद में दिए गए अपने भाषण में जो कहा थावह बताता है कि स्वाधीनता के सत्तर वर्ष हो जाने पर भी अपनी भाषाओं और शिक्षा जैसे बुनियादी क्षेत्र में हमारी मानसिकता अब भी अँग्रेजी और अँग्रेजियत से मुक्त से मुक्त नहीं है। राष्ट्र स्वाधीन हैपरंतु राष्ट्र की अपनी राष्ट्र भाषा तक नहीं है। शिक्षान्यायप्रशासन और जीवन के हर क्षेत्र में अँग्रेजी भाषा का प्रभुत्व निरंतर बढ़ता ही जा रहा है।

मैकाले ने यह कहा था:- मैंने पूरे भारत कोनेकोने में भ्रमण कर ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं देखा जो या तो भिखारी हो याचोर हो। इस देश में मैंने ऐसी समृद्धताशिष्टता लऔर लोगों में इतनी अधिक क्षमता देखी है कि मैं यहसोच भी नहीं सकता कि हम इस देश वपर तब तक राज कर पायेंगेजब तक कि हम इस देश की रीड़ कीहड्डी को ही न तोड़ देंजो कि इस देश के अध्यात्म और संस्कृति निहित है। अतमेरा यह प्रस्ताव है कि हमउनकी पुरानी तथा प्राचीन शिक्षा प्रंणाली को बदल दें।यदि ये भारतीय सोचने लगे कि विदेशी और अँग्रेजी ही श्रेष्ठ है और हमारी संस्कृति से उच्चतर है तो वे अपना आत्म सम्मानअपनी पहचान तथा अपनी संस्कृति को ही खो देंगे और तब वे वह बन जावेंगे जो हम उन्हें वास्तविकता में बनाना चाहते हैं। सही अर्थ में एक ग़ुलाम देश।। अब हमें यह सत्य स्वीकार करना है कि हमने अँग्रेजी को ही माध्यम माना लेकिन समझा नहीं कि माध्यम ही संदेश होता है। अँग्रेजी से चिपके रहे और अब अँग्रेजी भाषी देशों के अंध भक्त हैं। फ्राँस और जर्मनी पश्चिमी होते हुए भी अँग्रेजी से विज्ञान नहीं सीखते। पूर्व का जापानजापानी में ही विज्ञान की पढ़ाई करता है। रूस भी विज्ञान की पढ़ाई अपनी भाषा रसियन के के माध्यम से करता है। परंतु हमारी धारणा है कि विज्ञान और तकनीक को अँग्रेजी में ही सीखा और विकसित किया जा सकता हैभारत की किसी भी भाषा में नहीं सीखा जा सकता है। हमें समझने ही नहीं दिया गया कि भाषा सिर्फ माध्यम नहीं हैवह हमारी जीवन पद्धति भी है और उसे अभिव्यक्त करने का साधन भी है। वह हमारी संस्कृति और सभ्यता का सार है। उसे त्याग कर हम कोई भी मौलिक काम कभी भी नहीं कर सकते हैं। अन्य भाषाऐं सीख कर उनमें कुशल कारीगर तो हो सकते हैं किंतु उनसे मौलिक सृजन नहीं कर सकते हैं। मौलिकता और सृजन का सीधा संबंध हमारी जीवन पद्धति को अपने वास्तविक रूप में पूरी तरह से खुल कर अभिव्यक्त करने से है। यह अभिव्यक्ति सिर्फ अपनी भाषा में ही कर सकते हैं।

उन्नीसवींबीसवीं सदी में रूस और जापान विज्ञान में ब्रिटेन और अमेरिका से आगे नहीं थे। आज उपभोक्ता वस्तुओं और तकनीक में जापान इन सबसे आगे है। सामरिक विज्ञान और अंतरिक्ष की खोज में रूस किसी से कम नहीं है। दोनों देशों में विज्ञान और तकनीक में अपनी जीवन पद्धतियों को नहीं बदला। इन देशों ने सार्वभौम विज्ञान को अपनी भाषाओं में सीखा और तकनीक को अपने देश की भाषाओं की आवश्यकताओं के अनुसार विकसित किया। लेकिन हमने अपनी मान्यता बना रखी है कि विज्ञान और आधुनिकता अँग्रेजी भाषा से सीखी और लायी जा सकती है। अंग्रेजी भाषा में साहित्य रचने वाले भारतीयों के लेखन में मौलिकता का अभाव होता है। इस कारण वे अँग्रेजी साहित्य में सही जगह नहीं पा रहे हैं। यही हालत अँग्रेजी से डॉक्टरइंजीनियर या तकनीक सीखने वालों की है। अँग्रेजी हमें किसी क्षेत्र में आगे नही बढ़ने देगी। हम उसके अंध बन कर ही रह सकते हैं। असली सवाल हिंदी या भारतीय भाषाओं का है ही नहींअपितु भारत‘ का अपने साक्षात्कार के माध्यम से भारत‘ होने का है। इण्डिया‘ से मुक्त होना होगा। जब तक हम अँग्रेजी से अपनी समस्याओं के ताले खोलने की कोशिश करेंगेतब तक हम विषमता,भेदभावग़रीबीबेरोज़गारी और हर व्यक्ति को सच्ची स्वाधीनता दे नहीं सकेंगे और नही सच्चे लोकतंत्र की स्थापना कर सकेंगे। भारत को बांग्लामराठीकन्नड़पंजाबीमलयालमउड़ियाअसमियातमिल,हिंदीतेलुगु और गुजराती आदि भाषाओं से ही समझा जा सकता है और उसकी समस्याओं को सुलझाया जा सकता है।

सिर्फ हिंदी भाषा पर जोर देने से हमारी हालत वही रहेगी जो अँग्रेजी ने कर रखी है। भारत‘ के भविष्य का निर्माण हिंदी सहित भारतीय भाषाओं को अपना कर ही किया जा सकता है। हमें पता लगाना होगा कि भारत की भाषाओं में कहाँकहाँ पर कितने युवाओं ने इंजीनियरवैज्ञानिकतकनीक के लिए संघर्ष किया है। अँग्रेजी भाषा से मुक्ति के लिए अपनी भाषाओं को अंगीकार किया है। इनका यशोगान हिंदी वालों को अवश्य करना चाहिए। हमारा लक्ष्य अँग्रेजी भाषा की अनिवार्यता के ख़िलाफ़ भारतीय भाषाओं को सम्मान देने का होना चाहिए। इण्डिया‘ को उसकी संस्कृति को हटा कर भारत‘ को लौटाने का होना चाहिए। यह उद्घोषणा संत शिरोमणि विद्यासागर आचार्य की है।

हमें समझना होगा कि भारत की नियति और साक्षात्कार भारत और उसकी भाषाओं से ही समझी और देखी जा सकती है। भारत की प्रतिभाएँ अविष्कारअनुसंधान और मौलिकता के क्षेत्र में चमत्कार कर सकती है। नोबल पुरस्कार की क़तार हमारी भाषाओं के दम पर लग सकती है। दुनिया के विश्वविद्यालयों में हमारी भाषाओं के आधार पर गुणवत्ता की शिक्षा से हम अग्रणी पंक्ति में पहुंच सकते हैं। लॉर्ड मैकाले ने भारत भ्रमण कर के जो ब्रिटिश संसद में सोने की चिड़ियाँ कहा थावह पहचान वापस आ सकती है।

हिंदी दिवस‘ को अब सिर्फ हिंदी भाषा का सरकारी दिवस न मनाते हुए अब भारतीय भाषा दिवसमनाना सार्थक होगा।

श्री निर्मलकुमार पाटोदी,

विद्यानिलय४५शांति निकेतन, (बॉम्बे हॉस्पीटल के पीछे),
इन्दौर४५२०१० मध्य प्रदेश
सम्पर्क ०७८६९९१७०७० मेल: nirmal.patodi@gmail.com