हिन्दी
की फिल्मों, हिन्दी के गानों तथा टी.वी. कार्यक्रमों का प्रसार
हिन्दी की फिल्मों, गानों, टी.वी. कार्यक्रमों ने हिन्दी को कितना लोकप्रिय बनाया है- इसका
आकलन करना कठिन है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान में हिन्दी पढ़ने के लिए आने वाले 67
देशों के विदेशी छात्रों ने इसकी पुष्टि की कि हिन्दी फिल्मों को
देखकर तथा हिन्दी फिल्मी गानों को सुनकर उन्हें हिन्दी सीखने में मदद मिली। लेखक
ने स्वयं जिन देशों की यात्रा की तथा जितने विदेशी नागरिकों से बातचीत की उनसे भी
जो अनुभव हुआ उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि हिन्दी की फिल्मों तथा फिल्मी
गानों ने हिन्दी के प्रसार में अप्रतिम योगदान दिया है। सन् 1995 के बाद से टी.वी. के चैनलों से
प्रसारित कार्यक्रमों की लोकप्रियता भी बढ़ी है। इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता
है कि जिन सेटेलाईट चैनलों ने भारत में अपने कार्यक्रमों का आरम्भ केवल अँगरेज़ी
भाषा से किया था; उन्हें अपनी भाषा नीति में परिवर्तन करना
पड़ा है। अब स्टार प्लस, जी.टी.वी., जी न्यूज, स्टार न्यूज,
डिस्कवरी, नेशनल ज्योग्राफिक आदि टी.वी. चैनल अपने कार्यक्रम हिन्दी में दे रहे हैं।
दक्षिण पूर्व एशिया तथा खाड़ी के देशों के कितने दर्शक इन कार्यक्रमों को देखते
हैं - यह अनुसन्धान का अच्छा विषय है।
सन् 1984
से सन् 1988 के बीच लेखक ने यूरोप के 18
देशों की यात्राएं कीं। यूरोप के देशों में कोलोन, बी.बी.सी., ब्रिटिश रेडियो, सनराइज, सबरंग
के हिन्दी सेवा कार्यक्रमों को हिन्दी प्रेमी बड़े चाव से सुनते हैं। यूरोप के
देशों में ऐसी गायिकाएं हैं जो हिन्दी फिल्मों के गाने गाती हैं तथा स्टेज शो करती
हैं ।
अपने विदेश प्रवास की
उक्त अवधि में जो फिल्मी गाने विभिन्न
यूरोपीय देशों में सर्वाधिक लोकप्रिय थे उनके नाम इस प्रकार हैं -
1. आवारा हूँ 2. मेरा जूता है जापानी 3.
सर पर टोपी लाल, हाथ में रेशम का रूमाल,
हो तेरा क्या कहना 4. जब से बलम घर आए जियरा
मचल मचल जाए 5. आई लव यू 6. मुड़-मुड़ के न देख, मुड़-मुड़ के 7.
ईचक दाना, बीचक दाना, दाने
ऊपर दाना, छज्जे ऊपर लड़की नाचे, लड़का
है दीवाना 8. मेघा छाये आधी रात, निदिंया
हो गई बैरन 9. मौसम है आशिकाना, है दिल
कहीं से उनको ढूँढ लाना 10. दम मारो दम, मिट जाये गम 11. सुहाना सफर है 12. तेरे बिना जिन्दगी से कोई शिकवा तो नहीं 13. बोल रे
पपीहरा 14. चन्दा ओ !
चन्दा 15. यादों की बारात निकली है या दिल के
द्वारे 17. जिन्दगी एक सफर है सुहाना, यहां
कल क्या हो, किसने जाना 17. न कोई उमंग
है, न कोई तरंग है, मेरी जिन्दगी है
क्या ? एक कटी पतंग है 18. बहारों !
मेरा जीवन भी संवारों, 19. आ जा रे परदेसी,
मैं तो खड़ी इस पार सन् 1995 के बाद टेलिविजन
के प्रसार के कारण अब विष्व के प्रत्येक भूभाग में हिन्दी फिल्मों तथा हिन्दी फिल्मी गानों की लोकप्रियता सर्वविदित है ।
संयुक्त
राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाओं की तुलना में हिंदी मातृभाषियों की संख्या
सन् 1998
के बाद विश्व स्तर पर हिन्दी की संख्या के आँकड़ों में परिवर्तन आ
गया।भाषिक आँकड़ों की दृष्टि से सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रन्थों के आधार पर संयुक्त
राष्ट्र संघ की 6 आधिकारिक भाषाओं की तुलना में हिंदी के
मातृभाषा वक्ताओं की संख्या निम्न तालिका में प्रस्तुत है (मिलियन
में ) शेषांश........
संयुक्त
राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाएँ एवं हिन्दी
भाषा स्रोत (1) स्रोत (2) स्रोत (3) / स्रोत (4)
चीनी मंदारिन 836 800 874 874
हिन्दी 333 550 366 366
स्पेनिश 332 400 322-358 322-358
अँगरेज़ी 322 400 341 341
अरबी 186 200 - -
रूसी 170 170 167 167
.फ्रांसीसी 72 90 77 77
(1) Encarta Encyclopedia -- Aritcle of
Dr. Bernard Comrie (1998)
(2) D. Dalby : The Linguasphere Register
of the World's Languages and Speech
Communities, Cardiff, Linguasphere Press (1999)
(3)
Ethnologue, Volume 1. Languages of the World : Edited by Barbara F.
Grimes, 14th. Edition, SIL International (2000)
(4)The World Almanac and Book of Facts,
World Almanac Education Group, Inc (2003).
(1) एनकार्टा
एन्साइक्लोपीडिया में भाषा के बोलने वालो
की संख्या की दृष्टि से जो संख्या है वह इस प्रकार है :
1. चीनी 836 मिलियन (83 करोड़ 60 लाख)
2. हिन्दी 333 मिलियन (33 करोड़ 30 लाख)
3. स्पेनिश 332 मिलियन (33 करोड़ 20 लाख)
4. अँगरेज़ी 322 मिलियन (32 करोड़ 20 लाख)
5. अरबी 186 मिलियन (18 करोड़ 60 लाख)
6. रूसी 170 मिलियन (17 करोड़)
7 फ़्रांसीसी 72 मिलियन (7 करोड़ 20 लाख)
(2) दूसरे स्रोत के ग्रन्थ
में संख्या इस प्रकार है -
1. चीनी 800 मिलियन (80 करोड़)
2. हिन्दी 550 मिलियन (55 करोड़)
3. स्पेनिश 400 मिलियन (40 करोड़)
4. अँगरेज़ी 400 मिलियन(40 करोड़)
5. अरबी 200 मिलियन (20 करोड़)
6. रूसी 170 मिलियन (17 करोड़)
7. फ्रैंच 90 मिलियन (9 करोड़)
(3) तीन एवं चार स्रोतों के
ग्रन्थों के आँकड़े एक जैसे हैं। इसका कारण यह है कि द व:ल्ड
अल्मानेक एण्ड बुक ऑफ फैक्ट्स (The World Almanac and Book of Facts) के आँकड़ों का आधार एथनोलॉग ही है।
इन दोनो ग्रन्थों में प्रतिपादित संख्या इस प्रकार है :
1-
चीनी 874 मिलियन (87 करोड़ 40 लाख)
2-
हिन्दी 366 मिलियन (36 करोड़ 60 लाख)
3-
स्पेनिश 322-358 मिलियन (32 करोड़ 20 लाख से 35 करोड़ 80
लाख)
4- अँगरेज़ी 341 मिलियन (34 करोड़ 10 लाख)।
इन ग्रन्थों में अरबी को
रिक्त दिखाया गया है। इसका कारण इन ग्रन्थों में यह प्रतिपादित है कि अरबी एक
क्लासिकल लैंग्वेज है तथा इन्होंने भाषाओं के जो ऑंकड़े दिये हैं, वे मातृभाषियों के हैं, द्वितीयभाषा वक्ताओं (सैकेन्ड लैंग्वेज स्पीकर्स) के नहीं। इस कारण
इन्होनें टेबिल में अरबी लैंग्वेज को नहीं रखा है।
रूसी भाषियों की संख्या 167
मिलियन (16 करोड़ 70लाख)
तथा फ्रेंच भाषियों की संख्या 77 मिलियन (7
करोड़ 70लाख) है।
मातृभाषियों
की संख्या का अन्तर
तालिका का अध्ययन करने से
यह स्पष्ट है कि इन ग्रन्थों में विभिन्न भाषाओं के मातृभाषियों की संख्या के
ऑंकड़ों में एकरूपता/समानता नहीं
है। तालिका में स्रोत-2 के ग्रन्थ में हिन्दी भाषियों
की संख्या है - 550 मिलियन(55 करोड़), किन्तु तीन एवं चार स्रोत के
ग्रन्थों में हिन्दी भाषियों की संख्या प्रतिपादित है - 366 मिलियन
(36 करोड़ 60 लाख) । जब वैज्ञानिक ढंग से ऑंकड़े इकट्ठे हो रहे हैं तथा मातृ भाषियों की
दृष्टि से ऑंकड़े प्रस्तुत किये जा रहे हैं तो यह अन्तराल क्यों है ? स्रोत 3 एवं 4 के ग्रन्थों का
ध्यान से अध्ययन करने के बाद आँकड़ों के अन्तर का रहस्य उद्धाटित हो जाता है। इन
ग्रन्थों में हिन्दी के क्षेत्रगत भेदों एवं शैलीगत भेदों को अलग-अलग भाषाओं के रूप में प्रदर्शित किया गया है। हिन्दी भाषा क्षेत्र के
अन्तर्गत बोले जाने वाले इन क्षेत्रगत एवं शैलीगत भेदों के मातृभाषियों की जो
संख्याएँ प्रतिपादित हैं उन संख्याओं को 366 मिलियन (36
करोड़ 60 लाख) संख्या
में जोड़ने पर हिन्दी के मातृभाषियों की संख्या पहुँच जाती है - 553 मिलियन (55 करोड़ 30 लाख)
। स्रोत-2 में हिन्दी भाषियों की संख्या का
योग है- 550 मिलियन ( 55 करोड़)। स्रोत-3 एवं
स्रोत-4 के ग्रन्थों में हिन्दी भाषा के जिन 11 क्षेत्रगत (Regional) तथा शैलीगत (Stylistic)
भेदों के मातृभाषियों की संख्या को अलग-अलग
प्रदर्शित किया गया है, उनकी संख्याओं का योग कर देने पर इन दोनो ग्रन्थों में हिन्दी भाषियों की संख्या हो जाती है -
553 मिलियन (55 करोड़ 30 लाख)
संसार में ऐसा कोई भाषा
क्षेत्र नहीं होता, जिसमें क्षेत्रगत भेद नहीं होते। कहावत है -
चार कोस पर बदले पानी, आठ कोस पर बानी। चीनी भाषा के बोलने वालों की संख्या 700-800
मिलियन (70 करोड़ से 80 करोड़)
है तथा उसका भाषा क्षेत्र हिन्दी भाषा क्षेत्र की अपेक्षा बहुत
विस्तृत है। चीनी भाषी क्षेत्र में जो भाषिक रूप बोले जाते हैं वे सभी परस्पर
बोधगम्य नहीं हैं। जब पाश्चात्य भाषा वैज्ञानिक चीनी भाषा की विवेचना करते हैं तो
किसी प्रकार का विवाद पैदा नहीं करते किन्तु स्रोत-3 एवं 4
जैसे ग्रन्थों के विद्वान जब हिन्दी भाषा की विवेचना करते हैं तो हिन्दी भाषा क्षेत्र के
अन्तर्गत बोले जाने वाले हिन्दी भाषा के उपभाषा रूपों को भाषा का दर्जा दे देते
हैं। हिन्दी भाषा क्षेत्र के अन्तर्गत भारत के निम्नलिखित राज्य/केन्द्र शासित प्रदेश समाहित हैं :-1. उत्तर प्रदेश 2.
उत्तराखंड 3. बिहार 4. झारखण्ड
5. मध्य प्रदेश 6. छत्तीसगढ़ 7.
राजस्थान 8. हिमाचल प्रदेश 9. हरियाणा 10. दिल्ली
11. चण्डीगढ़।
हिन्दी भाषा का क्षेत्र
बहुत व्यापक है। हिन्दी भाषा क्षेत्र में ऐसी बहुत सी उपभाषाएँ हैं जिनमें
पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत बहुत कम है, किन्तु ऐतिहासिक एवं
सांस्कृतिक दृष्टि से सम्पूर्ण भाषा क्षेत्र एक भाषिक इकाई है तथा इस भाषा-भाषी क्षेत्र के बहुमत भाषा-भाषी अपने-अपने क्षेत्रगत भेदों को हिन्दी भाषा के रूप में मानते एवं स्वीकारते आए
हैं। भारत के संविधान की दृष्टि से यही स्थिति है। सन् 1997 में
भारत सरकार के सैन्सस ऑफ इण्डिया द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ में भी यही स्थिति है।
'खड़ी बोली' हिन्दी भाषा क्षेत्र का उसी प्रकार एक भेद है, जिस
प्रकार हिन्दी भाषा के अन्य बहुत से क्षेत्रगत भेद हैं। प्रत्येक भाषा क्षेत्र में
अनेक क्षेत्रगत, वर्गगत एवं शैलीगत भिन्नताएँ होती हैं।
प्रत्येक भाषा क्षेत्र में किसी क्षेत्र विशेष के भाषिक रूप के आधार पर उस भाषा का
मानक रूप विकसित होता है, जिसका उस भाषा-क्षेत्र के सभी क्षेत्रों के पढ़े-लिखे व्यक्ति
औपचारिक अवसरों पर प्रयोग करते हैं। पूरे भाषा क्षेत्र में इसका व्यवहार होने तथा
इसके प्रकार्यात्मक प्रचार-प्रसार के कारण विकसित भाषा का
मानक रूप भाषा क्षेत्र के समस्त भाषिक रूपों
के बीच संपर्क सेतु का काम करता है तथा कभी-कभी इसी
मानक भाषा रूप के आधार पर उस भाषा की पहचान की जाती है। प्रत्येक देश की एक
राजधानी होती है तथा विदेशों में किसी देश की राजधानी के नाम से प्राय: देश का बोध होता है, किन्तु सहज रूप से समझ में आने
वाली बात है कि राजधानी ही देश नहीं होता।
जिस प्रकार भारत अपने 28 राज्यों एवं 07 केन्द्र शासित प्रदेशों को मिलाकर भारतदेश है, उसी प्रकार भारत के जिन राज्यों एवं
शासित प्रदेशों को मिलाकर हिन्दी भाषा क्षेत्र है, उस
हिन्दी भाषा-क्षेत्र के अन्तर्गत जितने भाषिक रूप बोले जाते
हैं उनकी समाष्टि का नाम हिन्दी भाषा है। हिन्दी भाषा क्षेत्र के प्रत्येक भाग में
व्यक्ति स्थानीय स्तर पर क्षेत्रीय भाषा रूप में बात करता है। औपचारिक अवसरों पर
तथा अन्तर-क्षेत्रीय, राष्ट्रीय एवं
सार्वदेशिक स्तरों पर भाषा के मानक रूप अथवा व्यावहारिक हिन्दी का प्रयोग होता है।
आप विचार करें कि उत्तार प्रदेश हिन्दी भाषी राज्य है अथवा खड़ी बोली, ब्रजभाषा, कन्नौजी, अवधी,
बुन्देली आदि भाषाओं का राज्य है। इसी प्रकार मध्य प्रदेश हिन्दी
भाषी राज्य है अथवा बुन्देली, बघेली, मालवी,
निमाड़ी आदि भाषाओं का राज्य है। जब संयुक्त राज्य अमेरिका की बात
करते हैं तब संयुक्त राज्य अमेरिका के अन्तर्गत जितने राज्य हैं उन सबकी समष्टि का
नाम ही तो संयुक्त राज्य अमेरिका है। विदेश सेवा में कार्यरत अधिकारी जानते हैं कि
कभी देश के नाम से तथा कभी उस देश की राजधानी के नाम से देश की चर्चा होती है। वे
ये भी जानते हैं कि देश की राजधानी के नाम से देश की चर्चा भले ही होती है,
मगर राजधानी ही देश नहीं होता। इसी प्रकार किसी भाषा के मानक रूप के
आधार पर उस भाषा की पहचान की जाती है मगर मानक भाषा, भाषा का
एक रूप होता है : मानक भाषा ही भाषा नहीं होती। इसी प्रकार
खड़ी बोली के आधार पर मानक हिन्दी का विकास अवश्य हुआ है किन्तु खड़ी बोली ही हिन्दी नहीं है। तत्वत: हिन्दी
भाषा क्षेत्र के अन्तर्गत जितने भाषिक रूप बोले जाते हैं उन सबकी समष्टि का नाम
हिन्दी है। हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का षडयंत्र अब विफल हो गया है
क्योंकि 1991 की भारतीय जनगणना के अंतर्गत जो भारतीय भाषाओं
के विश्लेषण का ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है उसमें मातृभाषा के रूप में हिन्दी को
स्वीकार करने वालों की संख्या का प्रतिशत उत्तर प्रदेश (उत्तराखंड
राज्य सहित) में 90.11, बिहार (झारखण्ड राज्य सहित) में 80.86, मध्य प्रदेश (छत्तीसगढ़ राज्य सहित) में 85.55, राजस्थान में 89.56, हिमाचल प्रदेश में 88.88, हरियाणा में 91.00,
दिल्ली में 81.64 तथा चण्डीगढ़ में 61.06
है। हिन्दी एक विशाल भाषा है। विशाल क्षेत्र की भाषा है। अब यह
निर्विवाद है कि चीनी भाषा के बाद हिन्दी संसार में दूसरे नम्बर की सबसे अधिक बोली
जाने वाली भाषा है।
यदि हम सम्पूर्ण
प्रयोक्ताओं की संख्या की दृष्टि से बात करें जिसमें मातृभाषा वक्ता (First
Language Speakers) तथा द्वितीयभाषा वक्ता (Second Language
Speakers) दोनो हों तो हिन्दी भाषियों की संख्या लगभग एक हजार
मिलियन (सौ करोड़) है।
दूसरे स्रोत के ग्रन्थ (The
Linguasphere Register of the World's Languages and Speech Communities) में इस दृष्टि से हिन्दी भाषियों की संख्या 960 मिलियन
मानी गई है। जो प्रमाणिक तथ्य प्रस्तुत हैं उनसे यह निर्विवाद है कि हिन्दी को
संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता मिलनी चाहिए। (साहित्य अमृत से)
प्रवासी
साहित्यः हमारा दायित्व
हिन्दी का सबसे बड़ा
दुर्भाग्य यह रहा है कि उसे अपनों के ही प्यार से वंचित रहना पड़ा है। राष्ट्रभाषा
का गौरवशाली पद पाकर भी वह उस पर प्रतिष्ठित नहीं हो पा रही है। उसकी एक से एक
कमियाँ निकालने वाले उसके अपने ही हैं। जनगणना में उसके बोलने वालों में उसकी
बोलियाँ/सहभाषायें में (राजस्थानी,
भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, मैथिली,
आदि) बोलने वालों को नहीं जोड़ा जाता । धर्म
और सम्प्रदाय के कारण वे लोग भी उसे अपनी मातृभाषा नहीं लिखाते जो उसके अतिरिक्त
और कोई भाषा जानते ही नहीं। प्रपत्रों में मातृभाषा का स्तम्भ तो होता है। भाषा-ज्ञान का नहीं, कि उससे हिन्दी बोलने और जानने वालों
की संख्या अत्याधिक बढ़ जाने की आशंका रहती है। अँगरेज़ी माध्यम के विद्यालय सबसे अधिक हिन्दी भाषी
क्षेत्रों में ही खुल रहे हैं, उसके अपनों के उसकी ओर से
मुँह मोड़ लेने के कारण। प्रकाशन की आज की स्थिति में केवल लेखन के भरोसे जी सकना
हिन्दी के लिए संभव नहीं है।
सबसे अधिक दुर्व्यवस्था का
शिकार हिन्दी का प्रवासी-साहित्य है। अपनी धरती की
महक से सिक्त यह साहित्य निकट-दृष्टि सम्पादकों के कारण न तो
पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पा रहा है न संचार माध्यमों में और
नहीं पाठ्यक्रम या साहित्येतिहास में । इससे भारतवासियों को पता ही नहीं चलता कि
भारत के बाहर हिन्दी के प्रचार-प्रसार की क्या स्थिति है।
प्रवासियों के सम्मेलन में भी सम्पन्न देशों के सम्पन्न (भारतवंशी)
प्रवासी ही ससम्मान प्रस्तुत किए जाते हैं, और
वे भी अँगरेज़ी बोलने में ही गर्व का अनुभव करते हैं।
फिजी, मारीशस सुरीनाम, गुयाना आदि में प्रवासी भारतीयों ने
अपनी भाषा को न केवल जीवित रखा है वरन उसे निष्ठापूर्वक पुष्पित और पल्लवित भी
किया है। वहाँ के हिन्दी-साहित्य के बारे में कभी-कभार कहीं कोई लेख आदि पढ़ने को मिल जाए तो मिल जाए। कभी वर्षों में,
कृतार्थ करने के भाव से प्रकाशित, कोई रचना भी
शायद देखने को मिल जाए, बिना लेखक के किसी परिचय या चित्र
आदि के। विश्व हिन्दी सम्मेलन के प्रयासों से प्रवासी हिन्दी-लेखकों के बारे में यहाँ कुछ जानकारी हो पायी है और वहाँ की एकाध
साहित्यिक कृतियाँ भी पढ़ने को मिल गयी है। इस सबसे अनुमान लगा है कि वहाँ भी
साहित्य की लता पूरी गति से सदैव गतिशील रही है । ऐसे में हिंदी-साहित्य का इतिहास अधूरा-अधूरा लगने लगा है। प्रवासी
हिन्दी-साहित्य के समावेश के बिना उसके सर्वाग सम्पूर्ण हो
सकने की संभावना नहीं है । कम से कम पिछले सौ-सवा सौ वर्षों
का साहित्येतिहास संशोधित किया जाना चाहिए और उसमें प्रवासी-साहित्य
की प्रवृत्तियों, शैलियों एवं अवदान का उल्लेख होना चाहिए ।
उसे हीन या न्यून कहकर उपेक्षित कर देना अदूरदर्शिता होगी। उसे यहाँ की परिस्थितियों
से नहीं, वहाँ की परस्थितियों को ध्यान में रखकर देखना और
समझना होगा।
परिचित हो जाने पर प्रवासी-साहित्य के पाठकों की संख्या बढे़गी जिससे उसे प्रकाशक मिलने की
संभावनायें बढे़गी और उन देशों के भारतवांशियों के प्रति एक नई निकटता और सौहार्द
का भाव उत्पन्न होगा जो लेखकों के आदान-प्रदान का द्वार
उन्मुक्त करेगा। साथ ही साथ हिन्दी के पाठ्यक्रम में उनकी रचनाओं को भी स्थान
मिलने की संभावनायें बढ़ेगी। क्या यह विडम्बना नहीं है कि चलचित्र-जगत के तुक्कड़ गीतकारों को पाठ्यक्रम में स्थान दिलाने के तो प्रयास हो
रहे हैं, पर प्रवासी-साहित्य की ओर से
आँखें पूरी तरह बंद रखी जा रही हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दी भारत के हिन्दी
भाषी क्षेत्र की ही भाषा न रहकर विश्व-भाषा बन चुकी है और
विश्व का शायद ही कोई बड़ा नगर या उपनगर हो जहाँ हिन्दी बोलने वालों की कुछ न कुछ
संख्या न हो।
प्रत्येक स्तर पर प्रवासी-साहित्य का समावेश हिन्दी के पाठ्यक्रम में होना चाहिए और विश्वविद्यालयों के स्नातक एवं स्नातकोत्तर
स्तर पर प्रवासी-साहित्य का प्रश्नपत्र होना चाहिए। जैसे
अँगरेज़ी -साहित्य में अँगरेज़-साहित्यकारों
के अतिरिक्त स्थानीय अँगरेज़ी-लेखकों तथा अमेरिका (अँगरेज़ी) साहित्य का खण्ड होता है, उसी प्रकार हिन्दी साहित्य में भी होना चाहिए। इस में अन्य भाषाओं के
पाठ्यक्रमों से भी प्रेरणा ली जा सकती है।
भाषा के विकास की यह प्रथम
शर्त है कि उसके साहित्य को जानने-समझने का प्रयास से,
उसके साहित्यकारों को उचित सम्मान मिले तथा उसके साहित्य का प्रचार-प्रसार हो। और सबसे रोचक तथ्य यह है कि पाठ्यक्रम में सम्मिलित लेखकों को
ही सामान्य जन लेखक मानते हैं। यहाँ एक बात और ध्यान में रखनी होगी कि प्रवासी-साहित्य का अर्थ वहाँ की मिट्टी में रचा-बसा साहित्य
ही है। दूतावासों के कर्मचारियों और अनुबंध पर सेवा- कार्य
कर रहे भारतीयों को उसका अपहरण नहीं करने दिया जा सकता । अपने दाय का संरक्षण-संवर्द्धन करके ही हम वास्तविक रूप से समृद्ध हो सकेंगे।
जापान में हिंदी
‘यूजि इचिहाशि साना’
‘उपस्थित’
इकुमि सान।
‘उपस्थिति’
‘यूको हिरायशि सान।’
‘उपस्थित।’
उपस्थित, उपस्थित और उपस्थित। तोक्यो विश्वविद्यालय के कक्ष में छात्र-छात्राओं की उपस्थिति की श्रृंखला। यह एक विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालय है
यहाँ हिंदी विदेशी भाषा के रूप में पढ़ायी जाती है। चार वर्ष का स्नातकीय और छः
वर्ष का स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम। जापानी और भारतीय प्रोफेसरों के सहयोग से हिंदी की
यह यात्रा वर्णमाला से प्रारंभ होकर महादेवी वर्मा, डॉ.
हरिवंशराय बच्चन और मोहन राकेश के साहित्य के अंतिम पड़ाव को छू
लेती है।
“आप अध्यापक हैं और हम सब छात्र हैं।”
“यह क्या है ?”
“वह शब्ददोष ।” वाक्यों
द्वारा अधयापक और छात्रों का परिचय प्रगाढ़ से प्रगाढोत्तर होता चला जाता है।
पन्द्रह छात्र-छात्राओं का समूह है यह । विश्वप्रसिद्ध
तोक्यो विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना बहुत कठिन हैं जिनमें से पाँच सौ का चयन
होता है और उनमें से पन्द्रह विद्यार्थी हिंदी विभाग में दाखिला लेते हैं । हिंदी
के अतिरिक्त, संस्कृत, बंगला और उर्दू
में से किसी एक भाषा का अध्ययन और भारत भ्रमण भी पाठ्यक्रम में सम्मिलित है। जापान
में रहते समय लिखने-पढ़ने और भारत में रहकर इनका बोलने पर भी
अधिकार हो जाता है।
“कहाँ गये वे चालीस-चालीस लोग
?”
“यह क्या हो रहा है ? सब
अपनी अपनी कहते हैं।”
विश्वविद्यालय के प्रांगण
में श्री विष्णु प्रभाकर के “टूटते परिवेश” का मंचन। भारत में बदलते मूल्य, टूटते परिवेश, परिवार, बेकार
युवकों की मानसिकता को प्रस्तुत करने में व्यस्त, त्रस्त
छात्र-छात्राएं और दर्शकों के रूप में प्रोफेसर, बुद्धिजीवी, लेखक और पत्रकार । जापान में भला कोई
कैसे स्वीकार कर ले कि नौकरी के लिए अर्जियाँ लिखते फाड़ते-फेंकते
जीवन का बहुमूल्य समय गुजर जाता है, नौकरी है कि मिलने का
नाम नहीं लेती । दूसरे वर्ष के छात्र वार्षिक समारोह में भारतीय रसोई का पूरी,
चावल, चाय, समोसा का
स्वाद चखते-चखते अन्नपूर्णा में विद्यार्थियों के झुंड के
झुंड। पढ़ने का यह कक्ष कुछ दिनों के लिए भोजनालय में परिवर्तित हो जाता है।
वस्तुतः भाषा के माध्यम से ये छात्र भारतीय राजनीति, सामाजिक,
सास्कृतिक ढांचे तक पहुँचना ही इनका प्रमुख उद्देश्य होता है।
आखिर क्यों विश्व से अलग-थलग रहने वाले जापान को यह आवश्यकता जा पड़ी कि विदेशी भाषा का अध्ययन
अध्यापन किया जाए। बहुत समय तक लगातार दूसरों देशों से कटकर वह रह नहीं सकता था
इसलिये नागासाकी के द्वार से पश्चिम की संस्कृति प्रविष्ट हुई और सैन्य-द्वार से भारतीय संस्कृति की। फ्रांस की तरह जापान में भी लेखकों, कवियों और बुद्धिजीवियों को सेना से जुड़े रहना पड़ता था।
बहुत कम लोगों को मालूम
होगा कि हिंदी के सुप्रसिद्ध विद्वान प्रोफेसर के. दोई किसी
ज़माने में वर्मा की सेना में भरती थे। उन्होंने भारतीयों से हिंदी के कुछ शब्द
सीखे, संस्कृति की जानकारी ली और युद्ध समाप्ति के बाद इस
कदर भारतमय हो गये कि हिंदी और भारत को प्रतिष्ठित करने के लिये पूर्ण मनोयोग से
जुट गए और हिंदी विभाग को शिखर तक पहुँचा दिया। हिंदी की प्रारंभिक स्थिति यह थी
कि किसी भी प्रवासी भारतीय को आमंत्रित कर लिया जाता और साधारण कामचलाऊ बोलबाली,
भाषा सीख ली जाती । आज स्थिति यह है कि अनुपलब्ध, दुर्लभ पांडुलिपियाँ पत्र-पत्रिकाएँ और हजारों
दुर्लभ ग्रंथों का संग्रह करते प्रो. तोशियोतनाका काजुहिकि
माचिदा।
भाषा के अतिरिक्त धर्म, इतिहास, संगीत और संस्कृति के प्रति भी छात्रों में
गहरी रूचि होती है। कुछ मेहनती छात्र जापान के विदेश मंत्रालय में प्रवेश पा जाते
हैं और दो वर्ष तक हिंदी का अध्ययन कर नयी दिल्ली स्थित राजदूतावास में सचिव के
रूप में काम करने लगते हैं। श्री तागा, सातों ऐसे ही परिश्रमी
व्यक्तित्व है।
इसी तरह ओसाका
विश्वविद्यालय में भी हिंदी एक विभाग रूप में प्रतिष्ठत है। प्रो. कोगा और प्रो. मालवीय की हिंदी सेवा से कौन परिचित
नहीं है। पाठ्यक्रम तैयार करते समय कैसेट, हस्तलिपि को महत्व
दिया जाता है, विद्यार्थियों का योग्यता का आधार वर्ष भर का
कार्य है, परीक्षा नहीं। इसलिये तोक्यो विश्वविद्यालय में
परीक्षा की परम्परा नहीं है।
विश्वविद्यालयों के
अतिरिक्त हिंदी के विकास में रेडियो जापान का भी महत्वपूर्ण योगदान है। यहाँ से
नियमित रूप से हिंदी प्रसारण होता है। भारत-पाकिस्तान के कवियों,
लेखकों, साहित्यकारों और पत्रकारों से भेट-वार्ताएं ज्ञानवर्द्धक कार्यक्रमों में मानी जाती है । यहीं मेरी भेंट फैज
अहमद फैज से होती है। इनकी दास्तां दिल्ली-कराँची के इदगिर्द
घूमती रही है और ये भारत की यादों को हमेशा के लिये सहेज कर रखते हैं।
जनगण मन
अधिनायक जय है भारत भाग्यविधाता।
असाकुसा के पास तीन चार
जापानी युवक समवेत स्वर में गाते- नमस्कार करते निकल जाते
हैं। हम लोग जापान का “किमिगायो” राष्ट्रगीत जानें या न जानें लेकिन भारत के बारे
में जानकारी रखने वाला हर जापानी हमारे प्रसिद्ध गीतों को बखूबी जानता है।
रेडियो जापान के अतिरिक्त
हिंदी फिल्में भी जापान में बहुत लेकप्रिय है। हिंदी सीखने वाले वर्ग विशेष में भी
एक ऐसा वर्ग है जो फिल्मों के प्रति गहरा लगाव रखता है। हिंदी फिल्मों का जापानी
अनुवाद वार्षिक समारोह रूप में छायांकन आम बात है। सिनेमा हॉल के बाहर लंबी-लंबी कतारें अवसर मिलने पर वीडियो पर भी फिल्मों देखने चली जाती हैं। आलथी-पालथी और भारतीय चाय की चुस्कियाँ। कुछ लोग वार्षिक फिल्मोत्सव का आनंद
लेते हर वर्ष भारत आते हैं। इस माध्यम से सामाजिक, आर्थिक और
सांस्कृतिक गतिविधियाँ सागर पार पहुँच ही जाती है।
भारतीय राजनीति समाज-संस्कार अर्थव्यवस्था और हि्दी में गहरी रूचि रखने वाले प्रतिभा सम्पन्न
व्यक्तितत्व ही राजदूतावास में नियुक्ति पा सकते हैं। यही कारण है कि यहाँ का
प्रतिष्ठित व्यक्तित्व हमारे आस-पास हमसे ज्यादा दिलचस्पी
लेता है। महामहिम राजदूत की पत्नी श्रीमती नोदा टीप-वर्ष पर
पूजा साड़ी पहने द्वार पर रंगीली और हाथों पर मेंहदी रचाती है वे भारतीय आत्मीयता-आतिथ्य से प्रभावित है। चिड़ियों को दाना-चुगाते हाथ
कुबेर से कम नहीं हैं। “लाइए में हाथ बटाती हूँ” यह पत्र पुष्प हैं, स्वीकार कीजिए कहकर आसपास को भी आत्मीयता से भर देती हैं।
जब हमारे नवयुवक हिंदी के
नाम पर नाक भोंह सिकोडते हैं तो ऐमी आयोगी देवनागरी लिपि के प्रति बेहद आकर्षित है
क्योंकि यह सुंदर और आकर्षक लिपि है । कोशिश करती है कि सड़कों-चौराहें पर लिखा सभी कुछ पढ़ डालें।
आर-पार आना जाना लगा ही रहता है । श्रीमती तबाता ने भारत में रहकर दो वर्ष
हिंदी सीखी है, यदि मौका मिला तो फिर से हिंदी सीखेंगी
क्योंकि हिंदी सम्मानसूचक और मानवतापूर्ण भाषा है । श्रीमती सुगियामा और उनकी दो
वर्षीया बेटी में होड़ लगी रहती है । बेटी है कि माँ को हरा देती है । हाथ जोड़
नमस्ते करती, और माँ की गलतियाँ निकालती है ।
श्रीमती साइगो जब नमस्कार
करती अपनी बात हिंदी में समझाती है तो उनकी सहेलियाँ खुश हो जाती हैं । कामचलाऊ
स्थिति से जा पहुँचती है संस्कृति की ओर । दिल्ली में हिंदी के अध्ययन, अध्यापन की बात करते समय श्रीमती इवासाकी को याद रखना बहुत जरुरी है
उन्हें यह बताया गया कि भारत की राष्ट्रभाषा अंग्रेज़ी है यहाँ पहुँचने पर पता चला
कि राष्ट्रभाषा हिंदी ही है । इसी भाषा के माध्यम से ये भारतीय परिवारों से जुड़
गयी है ।
मैसूर हिंदी प्रचार परिषद्
के स्वर्ण जयन्ती समारोह के अवसर पर इन जापानी महिलाओं का उल्लेख करना मेरे लिए
आवश्यक हो गया है । जापान के उच्चवर्ग को पृष्ठ भूमि में भारतीय अभिवादन आतिथ्य के
संस्कार तो देने ही हैं। (अध्यापक के नाते) क्योंकि यह भाषा संस्कार पूर्ण है । धीरे-धीरे इस
भाषा के संस्कार लुप्त होने लगे हैं, कौन-सी भाषा इन विदेशियों को सिखायी जाए ? वर्ष साल मास-महीना सप्ताह-हफ्ता में से कौन सा शब्द, कौन-सी हिंदी ? रेलवे
प्लेटफार्मों, बाजारों फुटपाथों, गलियारों
और पुस्तकालयों में बोली जाने वाली हिंदी का यह कौन-सा रुप ?
ठीक है । कोशिश करने पर एकमानिक रुप सिखा भी दिया जाए तो हमारे यहाँ
बोली जाने वाली खिचड़ी बोली का प्रभाव क्या होगा ? सेब को
‘एप्पल’ के माध्यम से पढ़ाना तो रोकना ही होगा । नहीं तो लज्जित होने की सीमा बहुत पीछे छूट जाएगी । यदि इसी प्रकार विदेशी
शब्दों और अंग्रेज़ियत की घुसपैठ जारी रहेगी तो वह दिन दूर नहीं जब अपने ही घरों
में अपने ही कान “नमस्कार” सुनने को तरसे जायेंगे । जाना तो सभी को स्टेशन ही है ।
चाहे “इसटेसन” कह लो या “सटेशन”, कहने से काम
नहीं चलेगा । संस्कारगत भाषा के अभाव में कोई भी साहित्य ज्यादा समय तक जीवित नहीं
रह सकता । यदि हमें जीवित रहना है तो सबसे पहले भाषा को जीवित रखना होगा । कम से
कम इस अवसर पर यह संकल्प तो कर ही लें । यदि पाँच नये शब्द रोज़ हम सीख लें और दो
नये शब्द विदेशियों को सिखा दें तो हिंदी का शब्द कोष समृद्ध हो जाएगा ।
हमारे यहाँ के कुछ सरकारी
और ग़ैर सरकारी प्रतिष्ठान हिन्दी के प्रचार-प्रसार में प्राणप्रण से
जुटे हैं । हिंदी अकादमी, साहित्य अकादमी, साहित्य कला परिषद का हिंदी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है । अन्य
कार्यक्रमों के अतिरिक्त विदेशी छात्र-छात्राओं के लिये यदि
शब्दावलियाँ तैयार की जाएं तो सोने में सुहागा होगा । प्रारंभिक शिक्षण में करीब-करीब पाँच हजार शब्द आसानी से सिखाये जाते हैं उन्हें यदि पुस्तक बद्ध कर
दिया जाये तो यह महत्वपूर्ण कार्य होगा । जाने-माने
हस्ताक्षरों से यह ज्ञान यज्ञ निर्विघ्न सम्पन्न हो सकता है । आज जबकि शिक्षण
प्रणाली में परिवर्तन की गुंजाइश है । राष्ट्रभाषा को विदेशी अध्येताओं तक पहुँचने
के लिए ऑडियो वीडियो भी तैयार कर लिए जाएं तो सोने में सुहागे का काम होगा।
संयुक्त
राष्ट्र संघ और हिन्दी
हिन्दी आज एक राष्ट्र की
भाषा न रहकर विश्व भाषा के रूप में अपनी ख्याति अर्जित कर चुकी है। क्योंकि हिन्दी
भूमण्डलीकरण के दौर में विश्व की सबसे सरल भाषा के रूप में अपना स्थान बनाने में
सफल हुई है। इसका प्रमुख कारण यह है कि हिन्दी जैसे बोली जाती है वैसे ही लिखी
जाती है यही नहीं विश्व की सबसे प्रचलित भाषाएं जो संयुक्त राष्ट्रसंघ में अपना स्थायी
स्थान बनाये हुए हैं। (अंगरेज़ी, फ्रेंच, रूसी, चीनी, स्पेनिश और अरबी) इनकी भाषिक एवं वाचिक संरचना के
आधार पर हमारी हिन्दी सबसे उत्कृष्ट है। भाषिक, वाचिक
विशेषताओं की दृष्टि से हिन्दी ही विश्व की ऐसी भाषा है जो विस्तार एवम एक रूपकता
की शक्ति रखती है। भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया को देखें तो यह वास्तव में
वास्कोडिगामा के समय से ही अस्तित्व में आ गयी थी। परन्तु इस प्रक्रिया के चलते जो
परिवर्तन हमें परिलक्षित होते हैं उसका समर्थन करना जटिल सन्दर्भों पर निर्भर करता
है। भूमण्डलीकरण की इस प्रक्रिया को आज भी कोई निश्चित ,निर्णायक
राय नहीं मिल पायी है ? शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक क्षेत्रों
को यदि हम छोड़ दें तो अन्य क्षेत्रों में भूमण्डलीकरण आज अपना दबदबा कायम किये
हुए है। भूमण्डली करण के कारण हिन्दी का प्रभाव व्यावसायिकता पर स्पष्ट दिखने लगा
है। वैश्विक परिदृश्य की बात करें तो हिन्दी की पहचान तथा हिन्दी के प्रति रूचि
विश्व में उत्तरोत्तर बढ़ रही है। अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य में यदि हम देखें तो
जितना हमरा देश में व्यावसायिक एवं वैधानिक दृष्टि से हिन्दी का विकास नहीं हुआ है
उससे कहीं अधिक विकास विश्व में हिन्दी का हुआ है । और संयुक्त राष्ट्र संघ में जो
भाषाएं स्थाई रूप से मान्यता प्राप्त किये हुए हैं उनमें हिन्दी को रखे जाने की
माँग पर लगभग हर देश से इसे समर्थन मिलता शुरू हो गया है।
संयुक्त राष्ट्र संघ में
हिन्दी को स्थाई मान्यता दिलाये जाने का प्रकरण आज कोई नयी बात नहीं है। हिन्दी को
अधिकारिक भाषा के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ में सन् 1975
से ही प्रयास जारी हैं। क्योंकि सन् 1975 ई.
में नागपुर में सम्पन्न प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन के माध्यम से
औपचारिक रूप से यह प्रस्ताव रखा गया । इसमें कोई शक नहीं कि हिन्दी राष्ट्रभाषा एवं
विश्व भाषा के मानकों में कहीं पीछे हो यह बात हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी
सन् 1918 से पहले ही व्यक्त कर चुके थे। हाँ इस विश्व हिन्दी
सम्मेलन से यह बात तो निश्चित हो गयी थी कि हिन्दी को जो स्थान मिलना चाहिए वह
वैश्विक दृष्टि से उसे नहीं मिल पा रहा है। यह बात मॉरिशस के प्रथानमेंत्री सर
शिवसागर राम गुलाम स्पष्ट कर चुके थे। इस सम्मेलन की यह विशेषता रही कि सभी ने एक
स्वर से हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ में अधिकारिक भाषा के रूप में दर्जा दिलाने
की पुरजोर वकालत की। भारतीय संसद में समय समय पर इस पर काफी तीखी बहसें एवं सुझाव
पेश किये गये और तत्कालीन समय के प्रधानमेंत्रियों इंदिरा गाँधी, नरसिम्हा राव एवं अटल बिहारी बाजपेयी ने अपने-अपने
स्तर पर पार्टी से सम्बन्धित नितियों के आधार पर थोड़ी बहुत कोशिश की थी परन्तु
संकल्प शक्ति के वह बहस नहीं की जो उन्हें करनी चाहिये । एक ही प्रधानमेंत्री ने
संयुक्त राष्ट्र संघ से हिम्मत जुटाकर अपना उद्बोधन हिन्दी को अपनी ही संसद के
माध्यम से वह बहस नहीं की जो उन्हें करनी चाहिए । एक ही प्रधानमंत्री ने संयुक्त
राष्ट्र संघ से हिम्मत जुटाकर अपना उद्बोधन हिन्दी में दिया। हालांकि इससे पहले
अटल बिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री की हैसियत में नहीं थे। जब बाजपेयी जी
प्रधानमंत्री बने तो लोगों में आशाओं का संचार हुआ और उम्मीदें बँधी कि अब शायद
हिन्दी को संवैधानिक दर्जा मिल जाये परन्तु वह सब कुछ सम्पन्न नहीं हो पाया जिससे
हम वैश्विक परिदृश्य में हिन्दी को लेकर अपनी बात को दमखम के साथ रखते । वर्तमान
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से उम्मीद की कुछ नयी किरणें
बनी हैं कि शायद हमारी हिन्दी संयुक्त राष्ट्रसंघ की भाषा बन जाये इसके लिये
सर्वप्रथम यह होना चाहिये कि सर्वसम्मत से संसद द्वारा हिन्दी को प्रथम वरीयता के
रूप में संवैधानिक प्रस्ताव पास करके संविधान में राष्ट्रभाषा के रूप स्थापित किया
जाये तब फिर हम इसे उत्साह से संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को अधिकारिक भाषा का
स्थान दिलाने के लिये प्रयास करें।
संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व
व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने की विश्व (वैश्विक
देशों) की सहयोगी संस्था है। और विश्व के लगभग 150 से अधिक देश इसमें अपना सक्रिय सहयोग देते हैं। भाषिक दृष्टि से यह संस्था
इस समय छह भाषाओं का प्रतिनिधित्व करती है। जिसमें चीनी, अंग्रेजी,
स्पेनिश, रूसी, फ्रेंच
एवं अरबी हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ अपने स्थापना तथा चार्टर 1945 के समय जब अस्तित्व ने आया तो उस समय इसमें प्रमुख रूप से पाँच देश
अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन ही थे। ये ही राष्ट्र सुरक्षा परिषद के तत्कालीन सदस्य भी बने।
संयुक्त राष्ट्र संघ में वर्तमान भाषाओं के बोलने वालों की बात करें (एन कार्टा एनसाइक्लोपीडिया) तो स्पेनिश 33 करोड़ 20 लाख, अंग्रेजी 32
करोड़ 20 लाख, अरबी 18
करोड़ 60 लाख, रूसी 16
करोड़ तथा फ्रेंच 4 करोड़ 20 लाख। इस प्रकार हम देखते हैं कि आज जो संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकारिक
भाषाएं हैं उसने परिप्रेक्ष्य में हमारी बोलचाल की हिन्दी इस समय 80 करोड़ अभिजनों की विश्व भाषा के रूप में प्रथम स्थान पर है। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में यह प्रावधान
है कि इसमें किसी नई भाषा को मान्यता लेने के लिये इसकी जनरल असेम्बली 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पारित करके अधिकारिक भाषा के रूप में इसे मान्यता दिला
सकती है। तथ्यों एवं आँकड़ों पर गौर फरमायें की इस समय हिन्दी बोलने वाले विश्व
में पहले स्थान पर आ गये हैं। हिन्दी अपनी विशुद्ध वैज्ञानिक लिपि तथा अनुशासित
भाषाके साथ सरल, बोधगम्य व शीघ्र ही समझ में आने वाली,
साथ बहुत कम समय में सीखे जाने वाली भाषा है। हिन्दी का व्याकरण सरल
होने के साथ यह भाषा उच्चारण एवं समझने में सुगम है। यही कारण है कि यह विश्व के
हर कोने में इसका प्रचार-प्रसार हो रहा है। विदेशों में आज
हिन्दी अपने पठन-पाठन व अध्ययन के लिये सुगम भाषा के रूप में
ख्याति अर्जित करती जा रही है। वास्तविकता यह है कि विदेशों में हिन्दी भाषा में
रचित साहित्य की मांग दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। इतना सब
होने के बावजूद भी हिन्दी के प्रति अधिकारिक रूप से संयुक्त राष्ट्र संघ में हमारा
दावा इतना मजबूत नहीं हो पा रहा है। कि उसे विश्व जनमत अधिकारिक भाषा का दर्जा दे
सके। आखिर ऐसी कौन सी कठिनाइयां एवं परेशानियां है जिससे हमारी हिन्दी को संयुक्त
राष्ट्र संघ में स्थान नहीं मिल पा रहा है ?
प्राथमिक स्तर पर संयुक्त
राष्ट्र संघ में हिन्दी को स्थापित करने के लिये तीन तरह के परेशानियां उपस्थित हो
रही हैं - प्रथम दो तिहाई सदस्यों का बहुमत, दूसरे स्तर पर भारी आर्थिक खर्च, तीसरा कारण प्रमुख
भाषाओं के अनुवाद की समस्या । जहाँ तक 2/3बहुमत की बात करें
तो वैश्विक परिदृश्य में भारत के लिये यह सबसे कठिन कार्य है। क्योंकि भारत की
बढ़ती ताकत के प्रति कोई देश नहीं चाहता है कि इसे भाषिक दृष्टि से मजबूत किया
जाये। अमेरिका एवं बिट्रेन की वर्तमान स्थितियों को देखते हुए यह मजबूरी सी लगती
है क्योंकि इस समय इस्लामी आतंक के रूप में वह भारत का पुरजोर समर्थन प्राप्त करने
के लिये अपने यहाँ हिन्दी पढ़ाने की वकालत के साथ-साथ सरकारी
स्तर पर सहयोग राशि भी हिन्दी पर अधिक खर्च कर रहा हैं क्योंकि यदि वे नहीं करते
हैं तो वहाँ पर रहने वाले भारतवासी अमेरिका ब्रिट्रेन को उतना आर्थिक/भावनात्मक सहयोग नहीं देंगे। दूसरे देश भारत कोसहयोग इसलिए भी नहीं दे
सकते हैं कि अमेरिका एवं ब्रिट्रेन आखिर भारत को इतनी वरीयता क्यों दे रहा है। हम
यह याद दिला देना लाजिमी समझते हैं कि अरबी भाषा को संयुक्त संघ ने केवल इसलिये
अधिकारिक भाषा के रूप में दर्जा मिला क्योंकि अमेरिका एवं ब्रिट्रेन को तेल की
राजनीति करनी थी।फिलहाल कुछ भी हो भारत को इन अनुकूल परिस्थितियों को अपने पक्ष
में करने के लिये एक बार पुनः जोर आजमाइश शुरू कर देना चाहिये।
संयुक्त राष्ट्र संघ की
मान्यता है कि यदि उसे स्थायी दर्जा सदस्य देश के रूप में या भाषा के रूप में जो
भी मिलता है। उसको प्रतिवर्ष एक निश्चित राशि इसके बनाये हुए कोशों में जमा करनी
पड़ती है। इसलिये भारत के समक्ष यह बहुत बड़ी चुनौती है कि वह अपने आर्थिक ढाँचे
में सुधार कर पहले संयुक्त राष्ट्र के मानकों को पूरा करे और अपनी आर्थिक नीति एवं
मुद्रा स्फीति को वैश्विक स्तर पर लाकर विश्व के देशों के समक्ष कोई ऐसा मौका न दे
कि कोई हमारी अर्थव्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगा सके। तीसरी तरह की परेशानी संयुक्त
राष्ट्र संघ में भारत को हिन्दी भाषा के लिये अधिकारिक रूप में रखने के लिये
अनुवाद की समस्या आ सकती है क्योंकि अन्य अधिकारिक भाषाओं और हिन्दी के बीच
समानान्तर अनुवाद कराने का खर्च बहुत अधिक होगा। यही नहीं यांत्रिक दृष्टि से
हमारी अभी अनुवाद की यांत्रिक प्रक्रिया बहुत सशक्त नहीं है कि हम दावे के साथ इस
कह सकें । हमारा आशु अनुवाद यंत्रानुवाद के साथ अनुवाद प्रौद्योगिकी अभी बहुत
विकसित नहीं हो पायी है। इसके लिये भारत की यंत्रानुवाद एवं सी-डेक तथा अनुवाद प्रौद्योगिकी की दिशा में महत्वपूर्ण अनुसंधान की जरूरत
है। इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र में प्रचलित सभी भाषाओं के साथ हिन्दी में
यंत्रानुवाद के कार्यक्रमों को भारत में उत्तरोत्तर विकास की आवश्यकता है। इन सबके
अलावा भारतीय सरकार की दृढ़ इच्छा शक्ति एवं भारतवासियों और अप्रवासी भारतीयों आदि
का मानसिक/भाषिक/भावनात्मक सहयोग की
दरकार भी चाहिये तभी हम हिन्दी की पताका संयुक्त राष्ट्र संघ में फहरा सकते है।
हिंदी
भाषा, शिक्षा और अनुशासन
(आचार्य
हजारी प्रसाद द्विवेदी) (द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलन की अन्तिम गोष्ठी में प्रातः स्मरणीय
द्विवेदी जी का भाषण)
मेरी हालत रामायण के
लक्ष्मण की तरह है। आप जानते हैं तुलसीदास जी ने रामायण यह लिखा है कि जब राम, सीता और लक्ष्मण वन जा रहे थे, तो रामचन्द्र जी जिस
रास्ते से जाते थे उनके चरण जहाँ-जहाँ पड़े उस पर सीता जी
कैसे चरण रख सकती थीं। तो उन्होंने भरसक कोशिश की कि बीच-बीच
में जहाँ उनके चरण का चिन्ह नहीं था वहाँ पर पैर रखकर चलें - नहीं तो उनके चरण चिन्हों पर अपना चरण रख देने से तो बहुत अच्छा नहीं होता,
मर्यादा की हानि होती, सो सीता जी बचा-बचा के चलती रहीं। अब रास्ता तो भर गया एक रामजी चले, पीछे सीताजी बीच-बीच में जो जगह बची उस पर चलीं।
बेचारे लक्ष्मण की आफ़त कि अब कहाँ चलें, वे एक बार दाहिना
पैर रखते और एक बार बाएं पैर रखते - शायद कूद-कूद कर चलते थे। उससे भी कठिन अवस्था हमारी हैं । इतने श्रद्धेय, पूज्य विद्वानों ने ऐसी-ऐसी सब बातें कहीं हैं उन
सबको छोड़कर और उनसे अछूती कौन-सी बात कहूँ, मुझे समझ में नहीं आ रहा है। मेरी समस्या लक्ष्मण से भी कठिन है।
अभी कमला बहन ने बड़ी
अच्छी एक बात कही - सूर्योदय हो रहा है। उन्होंने बड़ी आशा का संदेश
दिया। मुझे दुगुना सूर्योदय दिखाई दे रहा है। यह जो विश्व हिंदी सम्मेलन है,
इसका अभी दूसरा ही वर्ष है । बहुत बालक भी नहीं, शिशु है। अभी तो यह पैदा ही हुआ है, एक-दो साल का बच्चा है। लेकिन इसको देखकर लगता है कि एक महान भविष्य का द्वार
उन्मुक्त हो रहा है। ऐसा लग रहा है कि वे देश जो अब तक सताए हुए हैं, दबाए गए हैं, उनकी अंतरात्मा का विकास हुआ है और हमारे ऊपर उन संस्कृतियों का प्रभाव
इतना नहीं रहेगा जो इस बात में विश्वास करते हैं कि लोगों को दबाकर, लोगों का शोषण करके उससे अपना फायदा उठाया जाए, बल्कि
उनका होगा जिन्होंने यह देखा है कि संसार में जो कुछ दिखाई दे रहा है। भगवान का
रूप है। इससे भी बड़ी चीज है छोटी-छोटी सम्पत्तियों से बड़ी
चीज महान् भावना, बड़े मनुष्यत्व की कल्पना से मनुष्य बड़ा
होता है। जब अदिति के दो बच्चे हुए थे, एक तो अरुण हुए उनको
जल्दी में उन्होंने छोड़ दिया था, लेकिन वरुण बहुत देर बाद
पैदा हुए और काफी मजबूत पैदा हुए । पैदा होते ही उन्होंने कहा कि माँ बहुत भूख लगी
है। तो माता ने जाकर पिता कश्यप से कहा कि लगता है कि बड़ा कुलच्छनी बेटा पैदा हो
गया। पैदा होते ही कहता है बड़ी भूख लगी है। महाभारत में ऐसा प्रसंग आया है,
कश्यप ने कहा कि अदिति चिंता न करो, बड़ा बेटा
पैदा हुआ है। क्योंकि इसकी भूख बड़ी है। जिसकी भूख बड़ी होती है वह बेटा बड़ा होता
है। हमारा यह जो विश्व हिंदी साहित्य सम्मेलन विराट भूख लेकर निकला है सारे संसार
के किसी भी साहित्य से इसका विरोध नहीं है, सबको ग्रहण करना
चाहता है और सबको ग्रहण करने के बाद एक ज्योति से संसार को आलोकित करना चाहता है।
विश्व हिंदी सम्मेलन अभी छोटा दिखाई दे रहा है लेकिन बहुत बड़े भविष्य की कल्पना
हमारे सामने रखता है।
दूसरा, यह जो मारीशस देश है उसे क्या सुन्दर देश विधाता ने बनाया है। विधाता ने
तो शायद ऊबड़-खाबड़ ही बनाया होगा, लेकिन
आपने अपने-अपने पसीने से, अपने खून से,
अपने परिश्रम से, अपनी तपस्या से, इसको ऐसा सुंदर एक उद्यान बना दिया है कि जी नहीं करता कि यहाँ से जाया
जाए। क्या करें कामकाज के बंधन में हूँ। बहुत ही सुन्दर देश। कई दिनों बाद जाता ।
रामचरित मानस आपका प्रिय ग्रंथ है इसलिए में उसी में से एकाध और बात कहना चाहता
हूँ - जब रामचन्द्र जी धनुष तोड़ने के लिए आगे बढ़ने लगे तो
सीता जी की माता बहुत व्याकुल हुईं कि अरे कोई आदमी ऐसा नहीं कि- “काउ न बुझाई कहइ गुर पाहीं, ए बालक असि हठ भव
नाहीं।” ये छोटा सा बच्चा इसको कह रहे हैं कि धनुष तोड़े, शिव
का धनुष, जिसको बड़े-बड़े लोग आकर उठा
न सके, हजार-हजार लोगों ने कोशिश की,
“भूप सहस दस एक हि बारा” हजार राजाओं ने मिलकर उठाने की कोशिश की,
नहीं उठा और इस बालक को कह रहे हैं कि धनुष उठाएगा, तो कोई राजा से समझा कर कहो बाबा यह हठ ठीक नहीं है। तो उनकी साथी ने कहा
कि नहीं बहन ऐसा मत कहो, “ तेजवंत लघु गनि अनृप रानी” जो
तेजवंत होता है उसको छोटा न समझना और उसी प्रसंग में उन्होंने कहा कि “रवि मंडल
देखत लघु लागा, उदय तासु त्रिभुवन तम भागा”। सूर्य का मंडल
कितना छोटा सा, एक थाली जैसा उगता है लेकिन जिस दिन सूर्य का
मंडल उदय हो जाता है, उसी क्षण संसार का अंधकार दूर हो जाता
है। तो ये दो सूर्य उदय हो रहे हैं, हमारे सामने मारीशस को
देखने में छोटा लेकिन अपार तेजस्वी रूप है। यह देखें हमारे सामने है जो संसार को
निश्चित रूप से नया संदेश दे रहा है। और यही नया संदेश आगे चलकर कदाचित विश्व
संस्कृति का एक आदर्श रूप बनेगा।
यह हिंदी सम्मेलन जो देखने
में छोटा लग रहा है अपार भविष्य का संदेश लेकर आया है । कोई नहीं जानता कि कितनी
दूर तक यह बढ़ेगा । सारे संसार के मनीषी यहाँ एकत्र हुए हैं और हिंदी के प्रति
अपने प्रेम की चर्चा कर रहे हैं। आपने तो सिर्फ एक सूर्य देखा था, मुझे दो सूर्य दिखाई दे रहे हैं। मारीशस देश का सूर्य और विश्व हिंदी
सम्मेलन का सूर्य - दोनों की छोटे दिखाई दे रहे हैं। मारीशस
भी बहुत कम दिनों में स्वाधीन हुआ है, लेकिन दोनों की अपार
संभावनाएं हैं। मनुष्य अपार संभावनाओं से बढ़ता है। आप जानते हैं। हमारे देश में
आत्मा की बड़ी महिमा है। कई बार सुनते-सुनते समझ में नहीं
आता है कि आखिर यह आत्मा है क्या ? बहुत बार तो ये भी बताते
हैं कि “अंगुष्ठ मात्रः मुरुष” । यह तो कहने का ढंग है। असल में मनुष्य के भीतर जो
अपार सम्भावनाएं छिपी पड़ी हैं, उनका द्वार है आत्मा। मनुष्य
देखने में इतना छोटा लग रहा है, लेकिन इसके भीतर कितनी अपार
शक्ति है वह हम आत्मा शब्द से प्रकट करना चाहते है। शब्द से, कहने से ही चीज़ ज़रा छोटी जो जाती है, सीमाओं में
बंध जाती है क्योंकि उसका एक अर्थ होता है। तो यह जो एक आत्म-तत्व है, उसके भीतर का जो तत्व देखा जाता है कि वह
कितना प्रभावशाली है, वह क्या दूसरों को दबाने के लिए है,
क्या दूसरों के ऊपर आधिपत्य जमाने की लालसा से निकला है या शांति का
संदेश देने के लिए निकला है। इस समय सारे संसार की यह आशा है कि हमारा देश और आपका
देश इस क्षेत्र में नेतृत्व करे क्योंकि यहाँ से आत्मज्योति का संदेश उठा है। यह
संसार के छोटे-छोटे पदार्थों पर जो आसक्ति है उसके विपरीत
मनुष्य की जो गहन और छिपी हुई अनंत संभावनाएं हैं, उसके ऊपर
बल देता है और आज का विश्व हिंदी साहित्य सम्मेलन उसी बल का साधन बनने वाली भाषा
को आगे बढ़ाना चाहता है। इसलिए मैं, बहुत ज्यादा आपको नहीं
कहूँगा, ऐसी बातें नहीं बताऊँगा जिससे कि आपको, आपके दिमाग को और अधिक परिश्रम करना पड़े लेकिन दो-तीन
छोटी-मोटी बातें मैं अवश्य कहना चाहता हूँ।
एक तो यह कि अध्यापन, इसकी समस्या पर हमें विचार करना था। तो यह अध्ययन और अध्यापन साहित्य का
भी का होगा, और-और विषयों की भी चर्चा
हुई। हर विषय की अलग-अलग समस्याएं हैं। देश-विदेश के सामने भिन्न-भिन्न भाषाओं के बोलने वालों
के सामने भाषा के सिखाने की भी अनेक समस्याएँ है। व्यावहारिक क्षेत्र में आकर ही
उसको समझा जा सकता है।
साहित्य के बिना भाषा भी
नहीं चल सकती है। लेकिन बहुत अधिक इधर-उधर न जाकर मैं भाषा के
संबंध में थोड़ा सा आपको बताऊँगा और उसी की उंगली पकड़ कर एकाध बात अगर साहित्य के
बारे में भी आ गई तो उसे भी आपके सामने रखूँगा। बहुत ज्यादा समय नहीं लूँगा । पहली
बात यह है कि मनुष्य जाति मात्र की भाषा कई प्रकार के अनुशासनों ने बंधी दिखाई
देती है। ऐसा साधारणतः समझा जाता है कि भाषा के दो प्रकार के अनुशासन, मर्यादा या डिसिप्लिन हैं - एक तो शब्द और अर्थ का
जो व्याकरणसम्मत प्रयोग है, व्याकरण है उसकी, वाक्य-विन्यास की पद्धति है। उसके मुहावरे हैं,
कहने का ढंग है इन सब बातों
में मुख्य रूप से आप कहें कि व्याकरण और वाक्य-विन्यास का
अनुशासन। उसके बिना भाषा नहीं चलती। दूसरा एक अनुशासन उसको और लेना पड़ता है।
व्याकरण से शुद्ध होने पर भी भाषा गलत हो सकती है। वह ऐसा है कि जैसे आज अगर आप
कहें कि वह “आदमी आग से खेत सींच रहा है” तो व्याकरण की दृष्टि से कोई गलती इसमें
ही है। वाक्य-विन्यास की दृष्टि से भी कोई गलती नहीं है।
कर्ता अपनी जगह पर ठीक है, क्रिया अपनी जगह पर ठीक है,
कर्म, करण सब ठीक है आदमी आग से खेत सींच रहा
है। लेकिन एक और दूसरा अनुशासन भाषा का होता है। वह अनुशासन तर्क- सम्मत व्यवस्था है, बाह्य-जगत
को उसके अनुकूल होना चाहिए। नहीं तो व्याकरण सम्मत भाषा तो पागल लोग भी बोलते हैं।
लेकिन उनकी भाषा बाह्य-जगत की तर्क-सम्मत
व्यवस्था के अनुकूल नहीं होती। ये दो तो ऊपरी अनुशासन भाषा के लिए है। जो कुछ भी
आप कहेंगे, भाषा के संबंध में आप सिखेंगे, या दूसरे देश के लोगों को सिखाएं, यह दूसरी बोली
बोलने वालो को सिखाएं, आपको इन दो अनुशासनों को तो अवश्य
मानना पड़ेगा। तीसरा अनुशासन भी है। और वह अनुशासन भी बहुत मह्त्वपूर्ण है लेकिन
हमने भाषा को पाकर बहुत कुछ खो भी दिया है। वस्तुतः भाषा हमारे पास पड़ा कमजोर
साधन है इस बात को न भूलें । बहुत-सी बात कहने में, भाषा के
कहने में हम लोग हाथ, मुँह, नाक,
कान के द्वारा अभिनय करके, तरह-तरह का स्वर बदल कर नाना प्रकार की भाव-भंगिमा के
माध्यम से हम अपने भाव को आपके हृदय में प्रवेश करा पाते हैं। अगर इन चीज़ों को
हटा दिया जाए तो भाषा थोड़ी और कठिन हो जाएगी। तो एक तीसरा अनुशासन भी होता है जो
कि इस व्याकरण के नियम, अनुशासन और तर्क सम्मतता के अनुशासन -
इन दोनों से थोड़ा ऊपर जाता है।
तीसरा अनुशासन वस्तुतः
अध्यापकों के लिए विशेष रूप से माननीय है। पहले तो व्याकरण सम्मत दो अनुशासन, जिनके बिना तो भाषा चल ही नहीं सकती और विशेष करके परिनिष्ठत भाषा,
जिसका आप सबके लिए सर्वसामान्य भाषा बनाना चाहते हैं उसके लिए
व्याकरण और वाक्य-विन्यास का अनुशासन होना ही चाहिए ।
तर्कसम्मत जगत की व्यवस्था भी होनी चाहिए। लेकिन एक तीसरा और अनुशासन है जो दिखाई
नहीं देता । साहित्य में तो उसके बिना कोई कारोबार चल ही नहीं सकता । यह तीसरा
अनुशासन तर्कम्मत व्यवस्था के प्रतिकूल जाता है, लगता है कि
प्रतिकूल जा रहा है। अभी जब मैंने आपसे कहा कि आग से खेत सींचना यह बाह्य जगत की
तर्कसम्मत व्यवस्था के अनुकूल नहीं पड़ती। लेकिन कवि को कैसे रोकेंगे आप । कवि कह
सकता है कि वह आग से खेत सींच रहा है और आपको उसका अर्थ निकालना पड़ा क्योंकि अगर
साधारण आदमी ऐसा कहता तो हम कहते कि पागल है।
“हमही बोरी बिरह बस, कै बौरो सब गाँव, कहा जानिए कहत है शशी शीत कर नाम।” क्या मैं ही पागल हो गई हूँ या सारा
गाँव पागल हो गया है, क्या जान कर यह लोग कहते हैं कि
चंद्रमा ठंड़ा होता है। वस्तुतः चंद्रमा ठंडा होता है ही है। यह कोई पागल नहीं कह
रहा है। लेकिन उसको क्या कहेंगे, क्या उसको पागल कहेंगे !
जो व्याकुलता उसके अन्दर में ही, भीतर की जो
वेदना उसके मन में आ रही है इसी से वह कह रही है कि लोग क्या समझकर चंद्रमा को
शीतल कहते हैं क्योंकि यह तो जला रहा है। तो वहाँ सोचना पड़ता है कि एक तीसरा
अनुशासन भी है। वस्तुतः हमारे देश के सबसे बड़े महान कवि इस देश में तो यह कहना
मुश्किल है कि सबसे बड़ा कौन था - व्यास थे कि वाल्मीकि थे,
कौन थे ? लेकिन बहुत बड़े महान कवि कालिदास
थे। जिनकी चर्चा आप लोग सुन चुके होंगे, पढ़ चुके होंगे,
बहुतों ने उनका ग्रंथ पढ़ा होगा और जिन लोगों न न पढ़ा हो उनसे मेरा
अनुरोध है कि अवश्य पढ़ें । कालिदास जैसा महान नाटकककार, महान
कवि ऐसी बात कह जाता है, जो बाह्य जगत् की तर्कसम्मत
व्यवस्था के प्रतिकूल है।
जब दुष्यंत राजा शकुंतला
को देखता है। कि बहुत सुन्दर, कोमल, कमनीय मूर्ति शकुंतला पेड़ों को पानी से सींच रही है। राजा का मन छटपटा
उठता है, व्याकुल हो उठता है कि कौन ऐसा पागल ऋषि है जिसने
इस लड़की को, इतनी सुकुमार लड़की को इस काम में लगा दिया है।
“इंद लिव्याजमनोहरं वपुस्तपःक्षमं साधयितुं य
इच्छति।
धुवं सेनीलेत्पलपत्रधाराया शमीलता छेत्रुमृर्ष्व्यिवस्पति।”
इस कमनीय कांति, अव्याजमनोहर वपु, अव्याज मनोहर यानी उसके सौंदर्य को
कहने के लिए कोई बहाना, कोई उपमा, अलंकार
बगैरह की जरूरत नहीं, अव्याजमनोहर वपु, स्वयं स्वाभाविक, ये जो सौदंर्य है, इस सुकुमार बालिका को जो तपस्या कराने के योग्य बनाना चाहता है। वह ऋषि
निश्चय ही कमल की पंखुड़ियों से शमी के पेड़ को काटना चाहता है। आप समझिए बबूल के
पेड़ को काटें । यह वैसा ही प्रयोग है जैसे आग से खेत सींचना। लेकिन आपको एक तीसरे
अनुशासन की बात सोचनी होती है, वह है जो कि भाषा के इन सब
बंधनों से परे है जब कि कवि के शब्दों में जब छंद की भाषा आती है उसके पास तो
सप्तस्वर के सप्त पंख लग जाते हैं और उसमें विशाल विपुल व्योम में उड़ने की शक्ति
आ जाती है। वह नई ताकत है जो कि पद्य की भाषा में नहीं आती, वह
छंद की भाषा में, राग की भाषा में आती है वह कवि का कार्य है,
वहाँ पर उसको समझना पड़ता
है, वहाँ प्रसंग समझना पड़ता है कि आखिर क्या बात है।
दुष्यंत कोई ऐसा नासमझ आदमी तो था नहीं, ऐसी बात क्यों कहता
है ? तब वहाँ समझ में आता है कि एक और भी व्यवस्था है जो कि
साहित्य जगत की व्यवस्था है और उसकी हम उपेक्षा नहीं करते हैं।
सर्वप्रथम शिक्षण के लिए
सबसे बड़ी बात यह है कि अध्यापक अच्छा हो । शिक्षक के हृदय में प्रेम हो इस देश
में आपने बहुत परिश्रम किया। अधिकांश ऐसे लोग नहीं थे जो किसी प्रकार से
प्रशिक्षित शिक्षक कहे जा सकते हों, ट्रेंड टीचर नहीं था लेकिन
अपार प्रेम और उत्साह था उनके भीतर। जिसके भीतर अपार प्रेम और अपार उत्साह न हो,
बच्चों के साथ जिसका हृदय बच्चा न बन जाए, वह
अध्यापक क्या सिखाएगा। अध्ययन-अध्यापन की सबसे पहली शर्त है
कि हृदय में अपार प्रेम हो तुलसीदासजी ने इस प्रसंग में बड़ी मजोदार बात कही है।
तुलसीदासजी बालक थे और सौभाग्य से नरहरिदास उनके गुरु थे। ऐसा लोग कहते हैं कि
नरहरि उनके गुरु का नाम था क्योंकि उन्होंने साफ तो नहीं कहा लेकिन इतना कहा है कि
‘कंज, कृपासिंधु पर रूपहरि’ नर रूप में हरि उनको कहा इससे
अनुमान किया जाता है कि नरहरिदास उनका नाम रहा होगा।
बड़े महान अध्यापक रहे
होंगे, तुलसीदास को आप जानते हैं। जिस तुलसीदास को लेकर
हम इतना कहते हैं वे बड़े ही गरीब, बड़े ही दीनहीन थे,
“बारे ले ललातविललातद्वार-द्वार फिरौ” बचपन से
ही ललात विललात द्वार-द्वार चक्कर लगाते थे और यदि कोई उठाके
हाथ में चार चने के दाना रख देता था तो समझते थे कि चारों फल मिल गए, चारों पदार्थ मिल गए । ऐसा कि, कूकर टूकर लागि,
कुत्ते के लिए जो टुकड़ा फेंका जाता है उसके लिए भी ललक, इतनी भूख ओर दरिद्रता से मारा हुआ वह बालक, भगवान की
कृपा थी अच्छे गुरु का उसको स्पर्श मिल गया। उन्होंने इन बात को स्वतः स्वीकार
किया है कि बालकपन में समझ में नहीं आया, गुरु ने बहुत
समझाने की कोशिश की, समझाया लेकिन लड़कपन था, बुद्धि इतनी नहीं थी, ‘समझी नहीं तस बालपन तब अति
रहों अचेत’ उस समय बड़ा ही अचेत था। लेकिन गुरु ने हार नहीं मानी। ‘तदपि कही गुरु
बारही बारा’ बारंबार उसको कहते रहे ‘समझु परि कछु मति अनुहारा’।
आजकल हम देखते हैं कि
विद्यार्थियों पर दया करने की एक पद्धति चली हुई है, कि इसको
समझ में नहीं आएगा इसलिए इसको कम दो। कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने जीवन पर
अपने बाल्यकाल की एक कहानी लिखी है कि उनके पिता ने कोई नौकर उनके लिए रखा था उनकी
देखरेख के लिए तो वह आधा गिलास दूध ले आता था और उसको फेटता रहता था फेटते-फेटते फेन से जब पूरा गिलास भर जाता था तो उनके सामने रख देता था। आजकल
शिक्षा में कुछ यही विधि अपनायी जा रही है। स्वयं गुरुदेव ने कहा है कि आजकल ये
लोग फेट-फेटकर फेन से भर देना चाहते हैं गिलास को और बच्चे
को कहते हैं –लो, पियो। क्योंकि तुम ज्यादा नहीं पी सकते।
ज्यादा पीने से तुम को अपच हो जाएगा। ऐसी बात नहीं है। धैर्य होना चाहिए उसके भीतर
“तदपि कही गुरु बारहिंबारा, समझि कछु मति अनुहारा” तो पहली
शर्त तो यह है कि जो आध्यापक है उसके बीतर अगाध प्रेम होना चाहिए, स्नेह होना चाहिए । नहीं तो गुरुदेव की एक कविता है,
“तोरा फरबिनागो, पारबिना
फोटा ते,
जतोई करिश जतोई मरिश, आघात
करिश, फोटा ते,
तोरा पारबिनागो”
अरे तू फूल नहीं खिला
सकेगा। बड़ी कोशिश करेगा, बहुत वैज्ञानिक विश्लेषण
करने के बाद तुमको पता लगेगा कि इतना आक्सीजन चाहिए, इतना
हीट होना चाहिए, इतना हाइड्रोजन होना चाहिए । और एक पात्र
लगातार उसके नीचे, एक लैंप जलाकर और अनेक प्रकार के यंत्रों
का प्रयोग कर नीचे आक्सीजन दोगे लेकिन कली फूल नहीं बनेगी। कली को फूल बनाने वाला
कोई और होता है। “जे पारेशे अपनी पारे शे फूल फोटाते।” जो खिला सकता है वो खिला
सकता है।
हम कोशिश में रहतो हैं कि
हथौड़ा लेकर कली को चीर-चीर करके उसको विकसित पुष्प
बना दें, लेकिन नहीं होगा। फूल बन भी जाएगा किसी प्रकार आपके
हाथों के अत्याचार को सहकर कली के फूल के रूप में अपने को छितरा भी दे, रंग नहीं आएगा, गंध नहीं आएगी। मेरे मित्रो, बड़े धैर्य की आवश्यकता है। अध्ययन और अध्यापन का प्रथम मूल मंत्र है अगाध
प्रेम और बच्चे पर अगाध निष्ठा।
इसके बाद देश-विदेश में हमने देखा है अपने देश में और बाहर भी। बाहर देखा है थोड़ा ही
देखने का मौका किला है, कुछ जगह तो है, कुछ स्थानों पर तो है, लेकिन अधिकांश स्थानों पर जो
चीज़ नहीं है वह है शिक्षण के लिए, अध्ययन-अध्यापन के लिए उपयुक्त वातारवरण। अपने देश में विश्वविद्यालयों में और
विद्यालयों में हम बड़ा परिश्रम करते है। यहाँ आप भी ऐसा ही करते होंगे। पाठ्यक्रम
बनाने में कोई गलती नहीं करते भरसक बाहर के विद्वानों को बुलाकर सलाह लेकर हम पाठ्यग्रंथ
बनाते हैं। कोई त्रुटि भरसक नहीं होने देते । पढ़ाने वालों की नियुक्ति देकर
दुनिया भर के अध्यापकों को बुलाते हैं, कैंडिडेट्स आते हैं।
उनमें से हम अच्छा पढ़ाने वाला चुनते हैं। हम पढ़ने वालों के चुनने में भी गलती
नहीं करते । भरसक हम फर्स्ट क्लास वालों को लेते हैं, उसके
बाद फिर द्वितीय श्रेणी या अधम श्रेणी के लोगों को भी लेने की कोशिश करते हैं।
लेकिन भरसक हम अच्छे-से-अच्छे
विद्यार्थियों को लेते हैं। तो गलती कहाँ हो रही है। न हम अध्यापक चुनने में गलती
करते हैं, बड़ी सावधानी बरतते हैं, न
हम अध्यापक यानी विद्यार्थी चुनने में गलती करते हैं. बड़ी
मेहनत करते हैं। फिर भी शिक्षा का स्तर बढ़ नहीं रहा है।
हमारे देश में
विश्वविद्यालयों में प्रथा है कि कोई बड़ा आदमी आता है, कनवोकेशन ऐड्रेस देता है। उपाधि वितरण के समय बड़े-से-बड़े विचारक देश के आते हैं, महान् विद्वान् और
ज्ञाता एक भाषण देते हैं। मैंने देखा है कि सन् 1899 से लेकर
1914 तक के दीक्षांत समारोहों के भाषणों में हर साल एक बात
जरूर कही जाती है कि शिक्षा का स्तर गिर रहा है। गिर रहा है। गिर रहा है, गिरते-गिरते न जाने किस पाताल में पहुँचा है और
कोशिश हम कम नहीं कर रहे हैं, हर जगह गलती, किस प्रकार हो रही है। पाठ्यक्रम चुनने में सावधानी बरतते हैं और ऐसे बड़े-बड़े सम्मेलनों में हम चर्चा करते हैं कि अगर कोई त्रुटि रह गई हो तो उसका
परिमार्जन किया जाए। सब कहते हैं लेकिन कहीं कुछ गड़बड़ हो जाती है। ऐसी ही घटना
एक बार और घटी थी।
मैं फिर आपका ध्यान
कालिदास के शकुंतला नाटक की ओर ले जाना चाहता हूँ। दुष्यंत अच्छा प्रेमी था यह तो
आप जानते ही हैं, गलती हो गई थी, उससे
अंगूठी खो गई और उसने गलती कर दी, शकुंतला का त्याग कर दिया।
लेकिन वह कम्बख्त अंगूठी फिर मिल गई, और ऐसे अवसरों पर जैसा
होता है प्रेमी का हृदय व्याकुल हो उठा और अंगूठी को लेकर विलाप करने लगा। पुराने
ज़माने में भले आदमियों का एक अच्छा काम था, एक तो वे राजकाज
सब छोड़ देते थे। प्रेम का ज्वर चढ़ा नहीं कि राजकाज छुटा । दुष्यंत ने भी ऐसा ही
किया होगा लेकिन एक काम उनका अच्छा होता था कि ऐसे अवसरों पर वे चित्रकर्म द्वारा
मनोविनोद किया करते थे। सब भले आदमियों के घर में चित्रकर्म की सामग्री रहती थी।
अच्छी-अच्छी तुलिका, बछड़े के काम के
रोएं से बनी हुई तुलिकाएं, और बढ़िया रंगदानी, अनेक रंगों का बना हुआ और बढ़िया कागज वगैरह होता होगा। कागज न भी हो तो
कोई ओर वस्तु तो होती ही होगी जिस पर वे चित्रकर्म करते थे। तो दुष्यंत ने भी सोचा
कि अब इस समय तो एक मात्र साधन यह है कि शकुंतला का चित्र बनाया जाए और बनाया।
अच्छा चित्रकार था, बढ़िया चित्र उसने बनाया शकुंतला की
सखियां अप्सराएं थीं। वे छिप कर देख रही थीं। उनको दुष्यंत नहीं देख रहे थे लेकिन वे देख रही थीं। वे आपस में
बातें करके कहती हैं कि वह क्या सूंदर चित्र बनाया है जैसे लगता है कि सखी मेरे
आगे ही बोल रही है। उनका एक साथी था विदूषक-वही एकांत का
साथी था उनका विदूषक ने कहा मित्र इसे देखकर तो ऐसा लगता है कि अब बोली, अब बोली इस तरह का चित्र बना दिया तुमने, बहुत
सुन्दर चित्र बनाया। लेकिन दुष्यंत परेशान था कि तस्वीर, बनी
नहीं ठीक। कुछ गड़बड़ लग रहा है, कहीं जैसे हमारी शिक्षा
व्यवस्था में हम लोग कहते हैं वैसे ही कहीं कुछ गड़बड़ है। कुछ ठीक नहीं हो रहा है
उन्होंने कहा कि बहुत बढ़िया चित्र बनाहै, इससे बढ़िया क्या
हो सकता है। कहने लगे - नहीं कुछ गड़बड़ है। फिर थोड़ी देर
में उसको याद आया और बोले - नहीं मित्र, ये तो शुकंतला बहुत ही अधूरी रह गई।
कृतं नं कर्मार्पितबन्धन सखे शिरीषमागण्डविलमिबिकेसरम्।
न वा शरच्चन्द्रमरीचिकोमलं मृणालसूत्र रचितं स्तनान्तरे।।
वो झूमका तो बनाया ही नहीं, शिरीष के फूल का झुमका जो वह पहने हुए थी जो गंडस्थल तक लटक रहे थे।
कपोलप्रांत तक लटके हुए झुमके तो बनाना ही भूल गया। फिर “न वा
शरच्चंद्रमरीचिकोमलं” शरद काल के चंद्रमा की किरणों के समान कोमल अब आप लोग सोच
लीजिए कैसा कोमल होता होगा। लेकिन सुनने में अच्छा लगता है। “शरच्चंद्रमरीचि” इस
कविता का अर्थ समझने में चाहे छोड़ा-बहुत भटकें आज, लेकिन सौंदर्य शब्द ही बता देगा आपको।
शरच्चंद्रमरीचिकोमलं, मृणालसूत्र, जो मृणाल की माला को उसने धारण किया था वह तो बना ही नहीं। नहीं-नहीं मित्र इसमें शकुंतला ठीक नहीं बनी और उसने तूलिका ली, अच्छी तूलिका थी, उसने बढ़िया से शिरीष पुष्पों का
झुमका भी बना दिया और मृणालसूत्रों की माला भी बना दी। कहने लगा अब ठीक हुआ।
विदूषक ने कहा दोस्त अब मत छूना । अब बिलकुल ठीक हो गया, अब
इससे बढ़कर कुछ नहीं होगा। लेकिन राजा कहता है नहीं दोस्त फिर कुछ गड़बड़ हो गया
है तो बहुत सिर-विर खुजलाके उसने कहा - मित्र ये तो आधी शकुंतला भी नहीं बन पाई है। जो शकुंतला अपने वातावरण से
विच्छिन्न है वह शकुंतला पूरी शकुंतला कैसे होगी।
‘कार्य सैकतलीनहंसमिथुना स्त्रोतावहा मालिनी’
‘पादास्तामभितो निषण्णहरिणा गौरीगुरोः पावना’
वह हिमालय की जो भूमि है, नीचे वाली तलहटी की भूमि जिसमें विश्रव्ध भाव से हरिण बिना डर बैठे-बैठे जुगाली किया करते थे, उन हरिणों का चित्र तो
बना ही नहीं, और वे जो बड़े-बड़े पेड़
थे वहाँ पर:-
‘शाखालम्बितवल्कंलस्य च
तरोर्निर्मातुमिच्छाम्यधः’
उसके नीचे बड़े पेड़ के
नीचे, मैं उस हरिण को बनाना चाहता हूं। आप देखिए अभी
तक वह विद्ध चित्र था, जिसको पोरट्रेट पेंटिग कहते हैं,
जिसका आजकल दुनिया में बड़ा मान है। हमारे देश में उसको मह्त्व नहीं
देते, विद्वचित्र या पोरट्रेट पेंट को, यथावत् चित्रण को महत्व नहीं देते । उसमें रस होना चाहिए। तो अभी तक
शकुंतला का चित्र तो विद्ध चित्र था। ज्यों-का-त्यों था आर्टिस्ट उसमें नहीं आता है। उसने अपना हृदय गार के उसमें नहीं
डाल दिया था। तो कहता है मित्र, मैं पेड़ भी बनाना चाहता
हूँ। आपने देखा होगा, हरिण को और मारीशस के भाइयों से सुना
है कि हरिण नहीं होता यहाँ, हमारे देश में यानी आपके देश में
भी बहुत बड़ा सींगों की एक जहाज, जहाज ही समझिए इत्ता बड़ा-बड़ा वह नुकीली निकली हुए बड़ी सींग, बड़ी-बड़ी होती है, तो वैसा ही मैं हरिण बनाना चाहता हूँ
और उसकी सींग, पर अपनी बाई आंख खुजलाती हुई मृगी को बनाना
चहाता हूँ । आप सोचें कि बारहसिंगा महाराज जरा सा ऐसे झटक दें तो वो आँख फूट जाए
उस मृगी की । मृगी की आँख संसार में दुर्लभ है। संसार में अगर सबसे सुन्दर वस्तु
है तो मृगी की आँख है और मृगी अब इतने विश्वास के सभी उसके सींग के कोने पर अपने
आँख का कोना खुजला रही है कितना विश्वास है और वे अपने समाधिस्थ अवस्था में जरूर
बैठे होंगे और उसके प्रेमी उसका आस्वादन
कर रहे होंगे। राजा के मन में यही तो डर है, यही तो वेदना है,
यही व्याकुलता है कि उस मृगी की तरह शकुंतला भी तो मेरे पास विश्वास
के साथ आई थी। ये मृग जितना उस आश्रय का समझते हैं उतना भी तो मैं नहीं समझ सकता।
‘तो मित्र मैं श्रंगे कृष्णामृगस्य वामनयन कण्डुयमानं मृगीम्’ बनाना चाहता हूँ
वातारण जब नहीं होगा जिस हद तक तब तक तो शकुंतला आधी है उसमें शकुंतला फूल की तरह
खिलेगी, जो विशिष्ट वातावरण उसके भीतर है वह खिलेगा।
मित्रो, मैं और ज्यादा कुछ भी नहीं कहना चाहता । शिक्षारूपी शकुंतला अभी अधूरी
पड़ी हुई है, उसे भी वातावरण चाहिए। उसे पढ़ाई-लिखाई का वातावरण चाहिए जो पुस्तकालयों से बनता है, जो
प्रयोगशलाओं से बनता है, लेकिन जो सबसे अधिक आदमियों से बनता
है, सच्चे गुरुओं से बनता है, महान
विद्वानों से बनता - जिन्होंने समर्पित जीवन जिया है। वे जब
आते हैं तो वातावरण बनता है और उसके भीतर शिक्षा फूल की तरह खिलती है। तो मित्रो,
ये मूल बातें है। और तो व्यावहारिक बातें है। सूरीनाम में आप कैसे
हिंदी सिखलाएंगे, यह आप यहाँ मंच पर व्याख्यान देकर नहीं
सूरीनाम के लोगों की भाषा जानकर, उनकी प्रकृति जानकर,
उनकी अवस्थाएं जानकर, आप उस विषय को तय कर
सकते हैं व्याकरण की हमें बहुत ही जरूरत है। अभी तो मैंने कहा न कि हमारी भूख बहुत
है। हमने तो अभी प्रारम्भिक काम भी नहीं किया। हम लोग तो इतना भी नहीं जानते बड़े-बड़े लोग अभी यह अंतर नहीं समझते कि स्नेह किसको कहते है ? बहुत से छोटे-छोटे लड़के भी सस्नेह लिख देते हैं।
स्नेह में और प्रेम में अंतर है। बहुत छोटी-छोटी बालों का भी
विभेद करने वाले जो समानार्थक शब्द है श्वारस है मैं उनकी सार को कहता हूँ श्वारस,
जो शब्द की बहनें हैं इसको थेसारस अँगरेज़ी में कहते हैं लेकिन मैं
समझता हूँ सूंदर शब्द है श्वसारः। तो ऐसी चीजें हमने अभी बनाई कहाँ ? अच्छा व्याकरण हमने नहीं बनाया। हमारे व्याकरण में अनेक प्रकार की
त्रुटियाँ रह गई। किन कारणों से कौन-सा प्रयोग होता है जो कि
हमें अच्छा लगता है। व्याकरण को शुद्ध होना चाहिए और तर्कसम्मत भी होना चाहिए ।
मेरी एक छात्रा थी। वह
मुझसे मिलने आई एम.ए. की परीक्षा देने के बाद
। संयोग से मैं नहीं था। तो मेरी पत्नी से मिल-मला कर वह चली
गई। लौटकर उसने बहुत बढ़िया पत्र लिखा। उसमें उसने एक वाक्य लिखा था कि आपसे तो
मुलाकात नहीं हो सकी लेकिन आपकी सुपुत्र कहते हैं, अब
सुपत्नी नहीं कहते। कुपुत्र ओर सुपुत्र तो कहते हैं लेकिन कुपति या सुपति नहीं
बोलते। ये शब्द भाषा में है ही नहीं ।पति, पति है। कुपति का
क्या अर्थ है। लेकिन नालायक पति। पत्नी है उसमें कुपत्नी या सुपत्नी होने का सवाल
ही कहा उठता है।लेकिन अगर तर्कसम्मत
दृष्टि से देखें तो बिलकुल ठीक था। अगर सुपुत्र और सुपुत्री कहा जा सकता है तो
सुपत्नी कहने में या सुपति कहने में क्या नुकसान है ? लेकिन
देख रहे हैं सब लोग हंस रहे हें । हंसने की क्या बात है भाई। भाषा तर्कसम्मत केवल
नहीं होती व्यवहार की अपेक्षा रखती है। लोग कहाँ, क्यों
बोलते हैं, विशेष प्रकार की भाषा बोलने वालों का विशेष
प्रकार का संस्कार होता है। वह उस भाषा पर चढ़ा रहता है। बहुत-सी बातें हैं, जो वैसे तो तर्कसम्मत नहीं हैं लेकिन
हमारे प्रयोग में चली आ रही है। उनको हम पढ़ते है, पढ़ाते
हैं और भाषा में वे आ ही जाती हैं तो हमें एक परिनिष्ठित नई भाषा सीखनी ही होगी ।
इसमें कोई संदेह नहीं कि भिन्न-भिन्न प्रदेशों में, भिन्न-भिन्न देशों में वहाँ की परिस्थिति के अनुसार
भाषा में भिन्न-भिन्न रूप होंगे। सब जगह का स्तर भी एक नहीं
होगा।
एक परिनिष्ठित भाषा हमारे
सामने अवश्य होनी चाहिए, जिसको किंग्ज इंन्लिश या
क्वींस इंग्लिश कहते हैं। एक शुद्ध, परिनिष्ठित भाषा का एक
आदर्श हमारे सामने रहना चाहिए। प्रयत्न करना अपना काम है हर प्रदेश के लोगों को,
हर देश के लोगों को उस शुद्ध भाषा को प्राप्त करने का प्रयत्न करना
चाहिए। बाकी जो थोड़ी-बहुत कमियाँ रहेंगी, हिंदी भाषा बहुत उदार है, बहुत कमियाँ, बहुत गलतियाँ बर्दाश्त करने की शक्ति उसमें है हम उसकी परवाह नहीं करते ।
गलतियाँ भी होगी। लिंग की गलतियाँ होती है। विभक्तियों की गड़बड़ियां होंगी,
हो सकती हैं। उसकी हम परवाह नहीं करते । लेकिन हर विद्यार्थी का
प्रयत्न यह अवश्य होना चाहिए कि एक परिनिष्ठित शुद्ध भाषा है, जो हमारा ध्रुव-तारा है उसके निकट हमें जाना चाहिए।
भिन्न-भिन्न देशों, भिन्न-भिन्न प्रांतों, भिन्न-भिन्न
भाषा बोलने वाले को हिंदी सिखाते समय शिक्षक इनका ध्यान रखें और तदनुसार
व्यावहारिक निर्णय करें। भाषा-ज्ञान के लिए द्विभाषी कोश बहुत आवश्यक है। शब्द-भंडार
बहुत आवश्यक है। इसी तरह से भाषा संबंधी मुहावरों का कोश बहुत आवश्यक है। इन सब
चीजों की रचना होती रहनी चाहिए। अच्छी-से-अच्छी रचना होनी चाहिए। भिन्न-भिन्न प्रदेशों में
उनकी जो व्यावहारिक कठिनाइयाँ है उनको समझकर उन देशों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के कोशों का हमें निर्माण करना पड़ेगा। मुझे कोई संदेह नहीं
है कि विश्व हिंदी सम्मेलन आगे चलकर इन महान कार्यों को भी अपने हाथ में लेगा और
हिंदी निरंतर शुद्धरूप में परिष्कृत रूप ओर परिनिष्ठित रूप में सारे संसार में
प्रतिष्ठित होगी।
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