देवनागरी
'विश्व-हिंदी' के साथ-साथ 'विश्व-नागरी' भी चले। इस काम
में देर करने की आवश्यकता नहीं है। कुछ लोगों का विचार है कि इस दिशा में हमको
धीरे-धीरे आगे बढ़ना होगा, जिससे कुछ
भय मालूम न हो। मैं ऐसा नहीं मानता। देवनागरी लिपि, हिंदी की
ही लिपि न मानी जाए। वह 'संस्कृत लिपि' है- ऐसा माना जाए। संस्कृत, मराठी,
हिंदी, पालि, मागधी,
अर्धमागधी, नेपाली- इन
सभी भाषाओं की लिपि देवनागरी है। जब संस्कृत विश्व-भाषा बनने
की योग्यता रखती है, तो उसकी लिपि देवनागरी को 'विश्व-नागरी' के रूप में
फैलाने में किसी बाधा का भय क्यों होना चाहिए? विश्व की तमाम
भाषाएं यदि देवनागरी अथवा विश्व-नागरी लिपि में भी लिखी जाने
लगें, तो 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का स्वप्न शीघ्र साकार होगा।
संस्कृत भाषा के लगभग 3000 शब्द इंग्लिश में कुछ बदले
हुए रूप में विद्यमान हैं। मदर (माता), फादर (पिता), ब्रदर (भ्रातृ), नोज (नासा) आदि। नी (जानु)- 'नी' में 'के' का उच्चार नहीं होता।
वास्तव में वह 'क्नी' है। अंग्रेजी के
अनेक शब्द धातु संस्कृत से बने हैं।
जापानी भाषा में भी लगभग 300-350 संस्कृत शब्द मुझे
मिले हैं। अपने कोश में मैंने उन पर चिन्ह लगा दिया है। अन्य कई भाषाओं में भी
संस्कृत शब्दों की कमी नहीं है। इसलिए जब हम हिंदी को 'विश्व
हिंदी' बनाने की कल्पना करते हैं, तब
देवनागरी लिपि को भी 'विश्व नागरी' बनाने
की बात सोचना उचित ही माना जाएगा। (यह आलेख प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन के अवसर पर पढ़ा गया था । विनोबाजी
उक्त सम्मेलन में स्वयं उपस्थिति नहीं पो पाये थे सो उन्होंने इसे अपने संदेश के
रूप में भेजा था। )
समापन समारोह है, तो मन भारी है
(महादेवी वर्मा) आज समापन-समारोह
है। यानि आज जा रहे हैं तो मन भारी है। विदा अच्छी लगती नहीं है, लेकिन क्या करूं विदा में ही मुझे बोलना है। मैं प्रयाग की पुण्यभूमि से
आई हूं, जहां यमुना, गंगा में विलीन हो
जाती है। अंत:शरीरा सरस्वती अपना परिचय नहीं देती और रहती है
साथ, क्योंकि यह तो साक्षात् मिलनभूमि है और आज भी एक प्रकार
का पर्वस्थान है। तीर्थ है जिसमें हम सब मिले हैं।
देखिए, देश तो भिन्न हो सकते हैं जैसे फूल रंगों से भिन्न होते हैं। आकृति में
भिन्न होते हैं। परन्तु उनके सौरभ को मिलने से कोई रोक नहीं सकता। वह एक होता है।
इसी तरह हमारा स्नेह, हमारा सौहार्द्र, हमारी बंधुता एक है और इसी कारण विदेश से इतने बंधु आ गए हैं हमारे प्रेम
के कारण, हिन्दी प्रेम के कारण। उन सबका मैं अभिनंदन करती
हूं। उन सबको अपनी वंदना देती हूं।
भारत बड़ा राष्ट्र है और
उसके एक-एक भूखंड में एक-एक देश है,
लेकिन बड़े राष्ट्र को जोड़ने के लिए, एक रखने
के लिए, संवाद के लिए हमको एक भाषा चाहिए। बिना इसके नहीं
चलेगा। और वह भाषा हिन्दी हो सकती है। हिन्दी सच्चे अर्थ में भूमिजा है, वाटर वर्क्स नहीं है। वह दूब है जिसको लेकर हम संकल्प करते हैं। वास्तव
में हिन्दी की विशेषता देखकर ही उसे देश की राजभाषा का पद दिया गया था। अब संयोग
ऐसा हुआ है कि वह बेचारी वहीं है और अंग्रेजी प्रेत की तरह हमारे सिर पर सवार है।
और हमारा शासन और विचित्र है। वह कहता है भाषा को पहले समर्थ बनाओ। इससे अद्भुत
कुछ बात नहीं है। प्रयोग में बिना लाए कोई भाषा समर्थ कैसे होती है। भाषा का
समर्थन रूप प्रयोग में आने पर ही होता है। हमने क्या किया है कि घोड़े को गाड़ी के
पीछे बांध दिया है और कहते हैं गाड़ी चलेगी। वह कभी नहीं चलेगी। न सौ वर्ष,
न दो सौ वर्ष। कभी नहीं चलेगी। अब सब कहते हैं, अरे आपके पास तो साहित्य नहीं है। विज्ञान का ज्ञान जब हो जाएगा तब देखा
जाएगा। मैं आपको इतना बताती हूं कि हर विभाग के लिए इतनी पुस्तकें, इतनी सहायिकाएं छप चुकी है कि कोई भी अगर थोड़ा कष्ट उठाकर उनका प्रयोग
करना चाहे तो कर सकता है। लेकिन हमारी पुस्तकों को कोई देखता नहीं है।
देखिए, बैंकिंग का सारा काम, पारिभाषिक शब्दावली हमारे पास
है। न्याय कहता है सब कुछ हमारे पास है। डाकखाने का समय और कार्य सब है, लेकिन कौन देखे, उसको कोई देखता नहीं है। जाएं तो
देखिए कि वहां सब साहित्य है, विधि का सारा साहित्य है,
लेकिन टंकण नहीं है। टाइपराइटर नहीं है। अच्छा और देखेंगे। अंग्रेजी में निर्णय लिया
जाता है। हिन्दी में लिख सकता है, लेकिन नहीं लिखता है।
बेचारा जो न्यायालय में जाता है, वह वकील से हाथ जोड़ता हुआ
घूमता है, क्या हुआ, वकील साहब हारे या
जीते। कौन क्या बोला- वह नहीं जानता और किसी कार्यालय में दो-चार जो हिन्दी में काम करते हैं, वह पूरी
वर्णव्यवस्था में मानों शूद्र हैं। सब उनको हीन मानते हैं, छोटा
मानते हैं। जितनी प्रतियोगिताओं की परीक्षाएं होती हैं, प्रश्नपत्र
अंग्रेजी में आते हैं। आप हिन्दी में काम कीजिए, परीक्षा
अंग्रेजी में दीजिए।
तो वास्तव में अंग्रेजी के
प्रेत से हमें मुक्ति कैसे मिले। आपके संकल्प से हो सकती है। जो आपको मैं इतना ही
कहती हूं कि आप यह न सोचिए कि भाषा समर्थ नहीं है। समर्थ है वह। उसके ज्ञान, विज्ञान और जितनी विधियां है, आप देखा कीजिए-
हरेक तहखाने में भरे हुए हैं, तल भरे हुए हैं।
कोई देखता नहीं क्या होता है उनका। और आप सोचिए कि एक विधि पर वह पुस्तक लिखता है।
बेचारा मर-मरके लिखता है, भूखा मरके
लिखता है और वह आपके कटघरे में बंद है, बाहर आती नहीं है। तो
एक बात यह भी मान लीजिए। हमको लेखा-जोखा बताइए कितनी
पुस्तकें कितने पारिभाषिक शब्द छप चुके हैं। एक बार आप लेखा-जोखा
ले लीजिए। मेरे पास तो बहुत हैं। क्योंकि जो लिखता है, रोता-धोता मेरे पास भेज देता है। मैं कुछ नहीं कर सकती हूं। लेकिन आपस में कहती
हूं कि इसको समारोह मत मानिए। मेले में आदमी खो जाता है। एक दिन बहुत अच्छा समारोह
करते हैं। आप इतने लोग बैठे हैं, अगर आप संकल्प लें तो कल
क्या नहीं हो सकता। लेकिन हम नहीं करते हैं।
तो वास्तव में आज आपके
संकल्प का दिन है। मैं यह नहीं मानती कि जब सब विदा हो जाएंगे तो आप कुछ काम
करेंगे। करेंगे नहीं कल से खो जाएंगे। और हो सकता है, सात वर्षों में फिर मिलें। यह सात वर्ष का जो अंतर है, वह बहुत भयंकर है। जब हिन्दी को पंद्रह वर्ष के लिए रोका था कि पंद्रह
वर्षों के बाद यह भाषा राजभाषा हो जाएगी, तो मैंने टंडनजी से
कहा था कि पंद्रह वर्ष तक इसको आप फांसी पर लटकाएंगे और जब उतारेंगे तो कहेंगे आधी
मर गई। तो आज ही कीजिए। छोटे-छोटे देशों में देखिए, उन्होंने अपनी भाषा को दूसरे दिन राष्ट्रभाषा बना दिया है।
हम हिन्दी प्रदेशों में भी
राजभाषा नहीं बना पाए हैं। और तमाशा है कि उन्होंने हमें उर्दू से उलझा दिया है
जिसका कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि हिन्दी- उर्दू दोनों एक भाषा है,
वाक्य-विन्यास एक है। व्याकरण एक है, सर्वनाम एक हैं, ग्रंथ एक हैं, एक ही भाषा है। हम संस्कृत लाते हैं, वे फारसी के
शब्द लाते हैं। इतना ही अंतर है। अंतर लिपि में है। तो हमारी लिपि नागरी लिपि अधिक
व्याकरण सम्मत हैं। विज्ञान के साथ है और विदेशी नहीं है। आपकी उसी ब्राह्मी के
क्रम से आई है। वास्तव में हमने लिपि को लेकर के उलझन फिर उत्पन्न कर दी है। देहात
में जाकर देखिए तो जो हिन्दू बोलता है, वही भाषा मुस्लिम
बोलता है। अब उन्होंने कहा कि नहीं दो भाषाएं हैं। अब इसी को लेकर लड़ाई है।
वास्तव में अगर युद्ध ही चलेगा, रात-दिन
विवाद चलेगा, विद्रोह चलेगा तो यह देश गूंगा रहेगा और आप
जानते हैं न जो गूंगे हैं, वे बहरे भी होते हैं। न वह सुनेगा,
न वह बोलेगा। तो जो सुनेगा, बोलेगा नहीं तो
आपका इतने बड़े देश का क्या होगा। इसको कौन बांधेगा, कैसे
बांधेगा। तो आज जब आप सब इकट्ठे हुए हैं, देख के मन बड़ा
प्रसन्न हो जाता है। लेकिन जब शक्ति उसकी देखते हैं, तो लगता
है कि अब क्या होगा। यह तो आज सब जगह से बादल घिरा और चला गया बरस के।
तो वास्तव में आपको एक
व्रत लेना ही होगा कि हमको अपने राष्ट्र को वाणी देना है, यानी अपने को ही देना है। कोई विचार कोई जनतंत्र बिना भाषा के नहीं आता।
तो मुझे जब बहुत आपने अभिनंदन, वंदन दिया तो मैंने कहा कि भई
देवता को आपने बाहर कर दिया है और पुजारी को आप अभिनंदन दे रहे हैं। तो हम जो
हिन्दी के नाम से बैठे हैं, अगर हिन्दी को लाते नहीं हैं और
हिन्दी ऐसे ही रखते हैं, तो हिन्दी के नाम से एक एकत्र होकर
क्या करेंगे और जो विदेश के बंधु आए हैं, वे बेचारे मन ही मन
क्या सोचेंगे।
हम अक्सर ऐसी बात करते हैं, राष्ट्रसंघ की बात करते हैं उधर की बातें करते हैं। बिना अंतरराष्ट्रीय
हुए हम जी नहीं सकते और राष्ट्रीय होने की हमें चिंता नहीं है। तो यह तो ऐसे ही
हुआ कि पेड़ को आप काट दीजिए और फिर संगमरमर के चबूतरे पर रोप दीजिए।
अंतरराष्ट्रीय वही हो सकती है जिसकी राष्ट्र में जड़ें हों। जिसके राष्ट्र में जड़
ही नहीं है, वह क्या अंतरराष्ट्रीय होगा।
आप ही सोचिए कि आप तो
राष्ट्रसंघ में उधार लेकर अंग्रेजी में बोलेंगे। आप कहेंगे राष्ट्रसंघ में कि भारत
की भाषा अंग्रेजी है। बताइए लोग नहीं हतोत्साहित होंगे? कहते होंगे इतना विशाल देश और इतना हिन्दी का सौहार्द्र और इसके पास बोलने
के लिए कुछ है ही नहीं। यह समुद्र पार से उधार लाकर बोलता है। अब तो ऐसी अच्छी
अंग्रेजी नहीं जानता। बल्कि गलत-सलत बोलता है। तो मैं कहती
हूं यही हीनता की भावना है। इसको दूर करना चाहिए। पहले इसको आप कर सकते हैं।
जिस दिन आप संकल्प करेंगे, उसी दिन कर देंगे। आपमें असीम शक्ति है। लेकिन आपके पास कोई स्वप्न न हो,
कोई आदर्श न हो, आपके पास राष्ट्र की चेतना न
हो, तो राष्ट्र कैसे बनेगा। कुछ नहीं बनेगा। बाहर के लोग आ
जाते हैं, और आ करके बड़े उदास हो जाते हैं। स्नेह के मारे आ
जाते हैं, हमारे सौहार्द्र के नाते आ जाते हैं और आके यहां
बड़े उदास हो जाते हैं। जब मुझे बोलते हैं, तो यहीं बातें
कहते हैं कि हम क्या करें। हमसे तो कोई हिन्दी में बोलता ही नहीं। जहां बात करते
हैं, वहां अंग्रेजी ही आ जाती है। हम लोग आज तक अपनी उस हीनता
की भावना को नहीं भूले हैं।
इतने साल हो गए हैं, अभी हमारी हीनता नहीं गई और जब तक नहीं जाती तब तक राष्ट्र अपने वर्चस्व
को नहीं पाता। अस्मिता को नहीं पाता।
विश्व में उसकी वाणी को
कैसे कौन सुनेगा, जब उसके पास कोई भाषा नहीं है। यह कहना कि जब
इसमें विज्ञान लिखा जाएगा, जब इसमें ज्ञान लिखा जाएगा,
तब वह हो जाएगा। आप देखिए तो क्या इसमें लिखा गया है। किसी ने देखा
है, कोई पढ़ता है, हिन्दी की पुस्तक।
कभी नहीं पढ़ता। आप देखिए जरा, तो आप जब जानते ही नहीं हैं,
तो वही मेरी बात आ जाती है कि गाड़ी के पीछे आप घोड़े को बांध
दीजिए। गाड़ी चलेगी? कभी चलेगी नहीं। मैं यही कहती हूं कि यह
समय का संकेत है। अधिक बात करना भी कठिन है। आप इतने थक गए हैं, मैं स्वयं भी थक गई हूं। लेकिन आपसे कहती हूं कि एक व्रत आपको लेना है।
संकल्प आपको लेना है। मंदिर की मूर्ति अगर खंडित हो जाती है तो उसे हम फेंक देते
हैं, पूजा नहीं करते। परन्तु हम अपने टूट संकल्पों को लेकर
पूजा कर रहे हें। हमें दूसरा संकल्प लेना चाहिए और सोचना चाहिए कि अगर हमारे
राष्ट्र को वाणी नहीं मिलती हैं, तो हमारा वर्चस्व नहीं है,
हमारी अस्मिता नहीं है। फिर हमारा ज्ञान-विज्ञान
के लेखन में भी मन नहीं लगेगा। हम लोग आए हैं, विश्वविद्यालयों
से पढ़कर लेकिन अगर हम अंग्रेजी में कविता करते तो? वास्तव
में वाणी मनुष्य का परिचय है। वाणी राष्ट्र का परिचय है। उसमें उसका व्यक्तित्व
है। आप अपने व्यक्तित्व को खंडित मत कीजिए। आपके संकल्प ऐसे हों, आपके स्वप्न ऐसे हों, आपके आदर्श ऐसे हों कि आप
राष्ट्र को जोड़ सकें। देखिए, सूर्य के ताप से धरती में बड़ी
दरारें पड़ जाती हैं, लेकिन एक बादल जब बरस जाता है तो सब
दरारें मिट जाती हैं। ऐसा ही हमारा स्नेह हों, हमारा
सौहार्द्र हो, हमारी ऐसी ही बंधुता हो कि हम सब लोगों को
मिला सकें और अन्य देशों में भी हमारी बात सुनी जा सके। अब आपको मैं अधिक थकाऊंगी
नहीं। आपसे केवल इतना कहती हूं कि यह विदा की बेला है। परन्तु इसको मत मानिए।
स्नेह में कोई विदा होती है? लेकिन हमारा सौहार्द्र, हमारा स्नेह, आप ले जाएंगे। हम एक-दूसरे के निकट रहेंगे। मैं समझती हूं अगर आप निश्चय करें तो एक साल में
हमको वाणी मिल जाएगी। अगर हम कुछ भी नहीं करेंगे तो हमें अनंत काल तक वह नहीं
मिलेगी। इन शब्दों के साथ मैं आपको अपना प्रणाम देती हूं। धन्यवाद। (तीसरे विश्व हिंदी
सम्मेलन के समापन समारोह में महादेवीजी मुख्य अतिथि थीं।)
परदेशों में हिन्दी का
बढता प्रभाव
आज दुनिया का कौन-सा कोना है, जहाँ भारतीय न हों । अनिवासी भारतीय
सपूर्ण विश्व में फैले हुए हैं । दुनिया के डेढ सौ से अधिक देशों में दो करोड़ से
अधिक भारतीयों का बोलबाला है। अधिकांश प्रवासी भारतीय आर्थिक रूप से समृध्द हैं । 1999
में मशीन ट्रांसलेशन शिखर बैठक में में टोकियो विश्वद्यालय के प्रो.
होजुमि तनाका ने जो भाषाई आंकड़े प्रस्तुत किए थे, उनके अनुसार विश्व में चीनी भाषा बोलने वालों का स्थान प्रथम और हिन्दी का
द्वितीय तथा अंग्रेजी का तृतीय है। हिन्दी
विश्व के सर्वाधिक आबादी वाले दूसरे देश भारत की प्रमुख भाषा है तथा फारसी लिपि
में लिखी जाने वाली भाषा उर्दू हिन्दी की ही एक अन्य शैली है । लिखने की बात छोड़
दें तो हिन्दी और उर्दू में कोई विशेष अंतर नहीं रह जाता सिवाय इसके कि उर्दू में
अरबी, फारसी, तुर्की आदि शब्दों का
बहुलता से इस्तेमाल होता है । एक ही भाषा
के दो रूपों को हिन्दी और उर्दू, अलग-अलग
नाम देना अंग्रेजों की कूटनीति का एक हिस्सा था । विदेशों में चालीस से अधिक देशों के 600
से अधिक विश्वविद्यालयों और स्कूलों में हिन्दी पढार्ऌ जा रही हैं ।
भारत से बाहर जिन देशों में हिन्दी का बोलने, लिखने-पढने तथा अध्ययन और अध्यापक की दृष्टि से प्रयोग होता है, उन्हें हम इन वर्गों में बांट सकते हैं - 1. जहां
भारतीय मूल के लोग अधिक संख्या में रहते हैं, जैसे - पाकिस्तान, नेपाल, भूटान,
बंगलादेश, म्यांमार, श्रीलंका
और मालदीव आदि । 2. भारतीय संस्कृति से प्रभावित दक्षिण
पूर्वी एशियाई देश, जैसे- इंडोनेशिया,
मलेशया, थाईलैंड, चीन,
मंगोलिया, कोरिया तथा जापान आदि । 3. जहां हिन्दी को विश्व की आधुनिक
भाषा के रूप में पढाया जाता है अमेरिका, आस्ट्रेलिया,
कनाडा और यूरोप क देश। 4. अरब और अन्य इस्लामी
देश, जैसे- संयुक्त अरब अमरीरात (दुबई) अफगानिस्तान, कतर,
मिस्र, उजबेकिस्तान, कज़ाकिस्तान,
तुर्कमेनिस्तान आदि ।
मॉरिशस
यहां भारतीय मूल के लोगों
की जनसंख्या कुल आबादी की आधे से अधिक है । मॉरिशस की राजभाषा अंग्रेजी है और
फ्रेंच की लोकाप्रेम है । फ्रेंच के बाद हिन्दी ही एक ऐसी महत्वपूर्ण एवं सशक्त
भाषा है जिसमें पत्र-पत्रिकाओं तथा साहित्य का प्रकाशन होता है ।
मॉरिशस में भारतीय प्रवासियों का विधिवत आगमन चीनी उद्योग के बचाव तथा उसके विकास
हेतु 1834 में शुरू हुआ था । यूरोप में चीनी की बढती मांग को
ध्यान में रखकर तत्कालीन प्रशासकों ने भारतीयों को सशर्त यहां लाकर स्थायी रूप से
बसने का प्रावधान किया । मॉरिशस में भारतीय प्रवासी वर्ष 1834 से बंधुआ मजूदरों के रूप में आने लगे थे । ये लोग अधिकांशत: भारत के बिहार प्रदेश के छपरा, आरा और उत्तर प्रदेश के
गाजीपुर, बलिया, गोंडा आदि जिलों के थे
। भारतीय श्रमिकों ने विकट परिस्थितियों से गुजरते हुए भी अपनी संस्कृति एवं भाषा
का परित्याग नहीं किया । अपने प्रवासकाल में महात्मा गांधी जब 1901 में मॉरिशस आए तो उन्होंने भारतीयों को शिक्षा तथा राजनीतिक क्षेत्रों में
सक्रिय भाग लेने के लिए प्रेरित किया । हिन्दी प्रचार कार्य में हिंदुस्तानी पत्र
का योगदान महत्वपूर्ण है । धार्मिक तथा
सामाजिक संस्थाओं के उदय होने से यहां हिन्दी को व्यापक बल मिला । वर्ष 1935
में भारतीय आगमन शताब्दी समारोह मनाया गया । उस समय यहां से हिन्दी
के कई समाचारपत्र प्रकाशित होते थे, जिनमें आर्यवीर, जागृति आदि उल्लेखनीय है । वर्ष 1941 में हिन्दी
प्रचारिणी सभा ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन तथा हिन्दी पुस्तक प्रदर्शनी का आयोजन
किया । 1943 में हिन्दू महायज्ञ का सफल आयोजन किया गया। 1948
में जनता के प्रकाशन के माध्यम से दर्जनों नवोदित हिन्दी लेखक
साहित्य सृजन क्षेत्र में आए । वर्ष 1950 में यहां
हिन्दी अध्यापकों का प्रशिक्षण प्रारंभ हुआ और
1954 से भारतीय भाषाओं की विधिवत पढार्ऌ शुरू
हुई। मॉरिशस सरकार ने स्कूलों में छठी
कक्षा तक हिन्दी पढाने की व्यवस्था की । वर्ष 1961 में
मॉरिशस हिन्दी लेखक संघ की स्थापना हुई । यह संघ प्रतिवर्ष साहित्यिक
प्रतियोगिताओं, कवि सम्मेलनों, साहित्यकारों
की जयंतियां आदि का आयोजन करता है । मॉरिशस में हिन्दी भाषा का स्तर ऊंचा उठाने
में हिन्दी प्रचारिणी सभा का योगदान अतुलनीय है । यह संस्था हिन्दी साहित्य
सम्मेलन (प्रयाग) की परीक्षाओं का
प्रमुख केन्द्र है । औपनिवेशिक शोषण और संकट के समय 1914 में
हिन्दुस्तानी, 1920 में टाइम्स और 1924 में मॉरिशस मित्र दैनिक पत्र थे । आज मॉरिशस में वसंत, रिमझिम, पंकज, आक्रोश, इन्द्रधनुष, जनवाणी एवं आर्योदय हिन्दी में प्रकाशित
होते हैं । वर्ष 2001 में विश्व हिन्दी सचिवालय की स्थापना
भी मॉरिशस में हो चुकी है ।
फिजी
फिजी दक्षिण प्रशांत
महासागर में स्थित 322 द्वीपों का समूह है । यहा के मूल निवासी
काईबीती है । देश की आबादी लगभग 8 लाख है । इसमें 50 प्रतिशत काईबीती, 44 प्रतिशत भारतीय तथा 6 प्रतिशत अन्य समुदाय के हैं। 5
मई 1871 में प्रथम जहाज लिओनीदास ने 471
भारतीयों को लेकर फिजी में प्रवेश किया था। गिरमिट प्रथा के अंतर्गत
आए प्रवासी भारतीयों ने फिजी देश को जहां अपना खून-पसीना
बहाकर आबाद किया वहीं हिन्दी भाषा की ज्योति भी प्रज्जवलित की जो आज भी फिजी में
अपना प्रकाश फैला रही है। फिजी की
संस्कृति एक सामासिक संस्कृति है, जिसमें काईबीती, भारतीय, आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड के निवासी है ।
इनकी भाषा काईबीती (फीजियन) हिन्दी तथा
अंग्रेजी है । फिजी का भारतीय समुदाय हिन्दी में कहानी, कविताएं
लिखता है । हिन्दी प्रेमी लेखकों ने हिन्दी समिति तथा हिन्दी केन्द्र बनाए हैं जो
वहां के प्रतिष्ठित लेखकों के निर्देशन में
गोष्ठियां, सभा तथा प्रतियोगिताएं आयोजित करते हैं ।
इनमें हिन्दी कार्यक्रम होते हैं कवि और लेखक अपनी रचनाएं सुनाते हैं । फिजी में औपचारिक एवं मानक हिन्दी का प्रयोग
पाठशाला के अलावा शादी, पूजन, सभा आदि
के अवसरों पर होता है । शिक्षा विभाग द्वारा संचालित सभी बाह्य परीक्षाओं में
हिन्दी एक विषय के रूप में पढार्ऌ जाती है । फिजी के संविधान में हिन्दी भाषा को
मान्यता प्राप्त है । कोई भी व्यक्ति सरकारी कामकाज,अदालत
तथा संसद में भी हिन्दी भाषा का प्रयोग कर सकता है। हिन्दी के प्रचार-प्रसार में पत्र-पत्रिकाओं तथा रेडियो कारगर माध्यम
हैं । हिन्दी के प्रचार-प्रसार में फिजी हिन्दी साहित्य
समिति वर्ष 1957 से बहुमूल्य योगदान दे रही है । इस संस्था
का मुख्य उद्देश्य है हिन्दी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति को
बढावा देना । फिजी में हिन्दी प्रगति के पथ पर है तथा इसका भविष्य उज्ज्वल है
।
नेपाल
भौगोलिक और राजनीतिक
दृष्टि से भारत और नेपाल संप्रभु राष्ट्र है, दोनों देशों के बीच
पौराणिक काल से संबंध चला आ रहा है, खुली सीमाएं, तीज-ज्यौहार, धार्मिक पर्व-समारोह तथा इन्हें मानाने की शैली और पध्दति की समानता के अतिरिक्त नेपाल
में हिन्दी-प्रेम हिन्दी के प्रचार-प्रसार
के लिए काफी है । नेपाली भाषा हिन्दी भाषी पाठकों लिए सुबोध है । यदि इसमें कोई
अंतर है तो लिप्यांतरण का है । प्रचीन
काल में नेपाली में संस्कृत की प्रधानता थी ।
हिन्दी और नेपाली दोनों भाषाओं में संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों की
प्रचुरता और इनके उदार प्रयोग के अतिरिक्त नेपाली भाषा में अरबी, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी एवं कई
अन्य विदेशी शब्दों का हिन्दी के समान ही प्रयोग हिन्दी और नेपाली भाषी जनता को एक
दूसरे की भाषा समझने में सहायक रहा है ।
प्रारंभिक दिनों में नेपाल के तराई क्षेत्रों में स्कूलों में तो शिक्षा का
माध्यम हिन्दी बना । काठमांडू से हिन्दी में पत्र-पत्रिका का
प्रकाशन हाता है । प्रख्यात नेपाली लेखक, कहानीकार एवं
उपन्यासकार डा. भवानी भिक्षु ने तो अपने लेखन कार्य का
श्रीगणेश हिन्दी से ही किया । गिरीश वल्लभ जोशी, रूद्रराज
पांडे, मोहन बहादुर मल्ल, हृदयचंद्र
सिंह प्रधान आदि की एक न एक कृति हिन्दी में ही है ।
श्रीलंका
श्रीलंका में भारतीय रस्म-रिवाज, धार्मिक कहानियां जैसे जातक कथा का भंडार आज
भी सुरक्षित है । श्रीलंका की संस्कृति वही है जो भारत की है । वहां हिन्दी का
प्रचार अत्यंत सुचारू एवं सुव्यवस्थित ढंग से होता रहता है । फिल्म प्रदर्शन,
भाषण विचार गोष्ठी आदि का आयोजन होता रहता है । भारत से आई पत्र-पत्रिकाओं जैसे बाल भारती, चंदा मामा, सरिता आदि श्रीलंका में बड़े चाव से पढी ज़ाती हैं । श्रीलंका रेडियो पर
भारतीय शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम प्रसारित होते हैं । वहां विश्वविद्यालय में
हिन्दी पढाई जा रही है ।
यू.ए.ई.
संयुक्त अरब अमीरात देश की
पहचान सिटी ऑफ गोल्ड दुबई से है । यूएई
में एफ. एम. रेडियो के कम से कम
तीन ऐसे चैनल हैं, जहां आप चौबीसों घंटे नए अथवा पुराने
हिन्दी फिल्मों के गीत सुन सकते हैं । दुबई में पिछले अनेक वर्षों से इंडो-पाक मुशायरे का आयोजन होता रहा है, जिसमें हिन्दुस्तान
और पाकिस्तान के चुनिंदा कवि और शायर भाग लेते रहे हैं । हिन्दी के क्षेत्र में
खाड़ी देशों की एक बड़ी उपलब्धि है, दो हिन्दी (नेट) पत्रिकाएं जो विश्व में प्रतिमाह 6,000 से अधिक लोगों द्वारा 120 देशों में पढी ज़ाती हैं ।
अभिव्यक्ति व अनुभूति (इंटरनेट) पर भी
उपलब्ध हैं । इन पत्रिकाओं की संरचना सही अर्थों में अंतर्राष्ट्रीय है क्योंकि
इनका प्रकाशन और संपादन संयुक्त अरब अमीरात से, टंकण कुवैत
से, साहित्य संयोजन इलाहाबाद से और योजना व प्रबंधन कनाडा से
होता है ।
ब्रिटेनवासियों ने हिन्दी
के प्रति बहुत पहले से रुचि लेनी आरंभ कर दी थी । गिलक्राइस्ट, फोवर्स-प्लेट्स, मोनियर
विलियम्स, केलाग होर्ली, शोलबर्ग
ग्राहमवेली तथा ग्रियर्सन जैसे विद्वानों ने हिन्दीकोष व्याकरण और भाषिक विवेचन के
ग्रंथ लिखे हैं । लंदन, कैंब्रिज तथा यार्क विश्वविद्यालयों
में हिन्दी पठन-पाठन की व्यवस्था है। यहां से प्रवासिनी,
अमरदीप तथा भारत भवन जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन होता है । बीबीसी से
हिन्दी कार्यक्रम प्रसारित होते हैं ।
संयुक्त राज्य अमेरिका में
येन विश्वविद्यालय में 1815 से ही हिन्दी की
व्यवस्था है । वहां आज 30 से अधिक विश्वविद्यालयों तथा अनेक
स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा हिन्दी में पाठ्यक्रम आयोजित किए जाते हैं । 1875
में कैलाग ने हिन्दी भाषा का व्याकरण तैयार किया था । अमरीका से
हिन्दी जगत प्रकाशित होती है ।
रूस में हिन्दी पुस्तकों
का जितना अनुवाद हुआ है, उतना शायद ही विश्व में
किसी भाषा का हुआ हो। वारान्निकोव ने तुलसी के रामचरितमानस का अनुवाद किया था ।
त्रिनीडाड एवं टोबेगो में भारतीय मूल की आबादी 45 प्रतिशत से
अधिक है । युनिवर्सिटी ऑफ वेस्टइंडीज में हिन्दी पीठ स्थापित की गई है । यहां से
हिन्दी निधि स्वर पत्रिका का प्रकाशन होता है । गुयाना में 51 प्रतिशत से अधिक लोग भारतीय मूल के हैं। यहां विश्वविद्यालयों में बी.ए. स्तर पर हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन
की व्यवस्था की गई है । पाकिस्तान की राजभाषा उर्दू है, जो
हिन्दी का ही एक रूप है । मात्र लिपि में ही अंतर दिखाई देता है । मालदीव की भाषा
दीवेही भारोपीय परिवार की भाषा है । यह हिन्दी से मिलती-जुलती
भाषा है । फ्रांस, इटली, स्वीडन,
आस्ट्रिया, नार्वे, डेनमार्क
तथा स्विटजरलैंड, जर्मन, रोमानिया,
बल्गारिया और हंगरी के विश्वविद्यालयों में हिन्दी के पठन-पाठन की व्यवस्था है ।
इस प्रकार हिन्दी आज भारत
में ही नहीं बल्कि विश्व के विराट फलक पर अपने अस्तित्व को आकार दे रही है । आज
हिन्दी विश्व भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त करने की ओर अग्रसर है । अब तक भारत
और भारत के बाहर सात विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित हो चुके हैं । पिछले सात सम्मेलन
क्रमश: नागपुर(1975),
मॉरीशस (1976), नई दिल्ली (1983), मॉरीशस (1993), त्रिनिडाड एंड टोबेगो (1996),
लंदन (1999), सूरीनाम (2003) में हुए थे । अगला विश्व हिन्दी सम्मेलन 2007 में
न्यूयार्क में होगा । इसके अतिरिक्त विदेश मंत्रालय क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन का
भी आयोजन करता रहा है। अभी तक ये सम्मेलन ऑस्ट्रेलिया और अबूधाबी में फरवरी,
2006 तथा तोक्यो में जुलाई 2006 में किए गए थे
। अभी हाल ही में शुक्रवार, 18 अगस्त, 2006 को विदेश मंत्रालय ने हिन्दी वेबसाइट का शुभारंभ किया है। यह वेबसाइट
माइक्रोसॉपऊट विंडोज प्रोग्राम और यूनीकोड पर आधारित है । इसे देखने के लिए कोई
फॉन्ट डाउनलोड करने की आवश्यकता नहीं है।
वर्तमान में आर्थिक
उदारीकरण के युग में बहुराष्ट्रीय देशों की कंपनियों ने अपने देशों (अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस,
जर्मनी, चीन आदि) के
शासकों पर दबाव बढाना शुरू कर दिया है ताकि वहां हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार तेजी से बढे और हिन्दी जानने वाले एशियाई देशों में वे अपना
व्यापार उनकी भाषा में सुगमता से कर सकें । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी की
प्रगति यदि इसी प्रकार होती रही तो वह दिन दूर नहीं जब हिन्दी संयुक्त राष्ट्र संघ
में एक अधिकारिक रूप हासिल कर लेगी ।
Suggestion:
Why not create a Federation For Simple
National Language Script,India?
In the past India has spent so much time
in creating new language scripts under different rulers.Now in the internet age
some languages may disappear if they are not simplified or made translatable.
As you know that Gujarati Script is a
simplified version of Devnagari script without horizontal lines. In fact it’s a
developed Devnagari script where you write comparatively lesser times lifting
the pen.
Sure,Hindi is spoken by more peoples in
India but it’s not technical and very cluttered language with horizontal
lines.It’s writings in newspapers look like an old Sanskrit language.If you
look all Indian languages in Google Transliteration IME you will find Gujarati
script very simple computer-usable language Script.Gujarati alphabet is very
very easy for foreigners to learn and practice.
We all know that Devnagari is not the
script of Hindi to begin with.Basically it is the script of
Sanskrit,unquestionably the language of India,not any region.
Sanskrit language used horizontal lines
for grammatical lengthy meaningful words.
Besides languages in a Devnagari script
which Indian old or current languages or world languages use horizontal lines
to make words more cluttered in appearance?Why draw lines if not needed?
As you know China has simplify it’s
language to make it computer usable.Also most of European countries and other
world countries use Roman Script for their national languages.
Think,Why most Hindi song lyrics are
written in English but not in Hindi?
People don’t mind learning Hindi but
India needs one easy Script for all languages and that’s Gujarati Script. But
let the people of India decide what they want.
Please do express your opinion about
this.
लेखक परिचय:
संजय भारद्वाज महान हिन्दीसेवी, समाजसेवी, हिन्दी-साहित्यकार
एवं संस्कृतिकर्मी हैं।
नाटक, कविता, आलेख, कहानी, समीक्षा की विधा में लेखन करने वाले संजय भारद्वाज की अकादमिक शिक्षा
विज्ञान एवं फार्मेसी के क्षेत्र में हुई पर आरंभ से ही हिंदी भाषा और साहित्य के प्रति
लगाव रहा।
१९९५ में उन्होंने हिंदी
आंदोलन की स्थापना की जो पुणे में भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों का सबसे बड़ा मंच
है। पुणे से प्रकाशित प्रथम हिन्दी पाक्षिक 'विश्वभाषा' का संपादन व प्रकाशन तथा अनेक अन्य पत्रिकाओं के विशेषांकों के अतिथि
संपादन के अतिरिक्त उन्होंने पुणे में हिंदी के स्तरीय रंगकर्म के लिए 'भूमिका कलामंच` की स्थापना की। वे अनेक कविसंमेलनों
का आयोजन, व्यवस्थापन व संचालन भी कर चुके हैं।
विभिन्न साहित्यिक, सांस्कृतिक पुरस्कारों से सम्मानित संजय विभिन्न स्तरों पर लेखन, दिग्दर्शन, अभिनय, वक्तृत्व,
शैक्षिक प्राविण्य, संयोजन फ़ीचर/ विज्ञापन/ धारावाहिक/ फिल्म,
के लेखन-दिग्दर्शन, अभिनय
व डबिंग के लिए भी जाने जाते हैं।
उनकी समाजसेवा में भी गहरी
रुचि है। फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों के रात्रि निवास के लिए 'रैन बसेरा' एवं निर्धनतम लोगों को रु. ५/- में अन्न उपलब्ध कराने के लिए 'अन्नपूर्णा' नामक योजनाओं पर भी वे काम कर रहे है।
संप्रति वे दो डॉक्युमेंट्री फिल्मों के लेखन-निर्देशन में
व्यस्त हैं।
No comments:
Post a Comment