महान हिन्दीसेवी, समाजसेवी,
हिन्दी-साहित्यकार एवं संस्कृतिकर्मी हैं।
नाटक, कविता,
आलेख, कहानी, समीक्षा की
विधा में लेखन करने वाले संजय भारद्वाज
की अकादमिक शिक्षा विज्ञान एवं फार्मेसी के क्षेत्र में हुई पर
आरंभ से ही हिंदी भाषा और
साहित्य के प्रति लगाव रहा।
भाषा का प्रश्न समग्र है।
भाषा अनुभूति को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर नहीं है। भाषा सभ्यता को संस्कारित
करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। किसी भी राष्ट्र की सभ्यता
और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। इस सूत्र को भारत पर शासन
करने वाले विदेशियों ने भली भॉंति समझा। आरंभिक आक्रमणकारियों ने संस्कृत जैसी
समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएँ लादने
की कोशिश की। बाद में सभ्यता की खाल ओढ़कर अँगरेज़ आया। उसने दूरगामी नीति के तहत
भारतीय भाषाओं की धज्जियॉं उड़ाकर अपनी भाषा और अपना हित लाद दिया। लद्दू खच्चर की
तरह हिंदुस्तानी उसकी भाषा को ढोता रहा। अंकुश विदेशियों के हाथ में होने के कारण
वह असहाय था।
यहॉं तक तो ठीक था। शासक
विदेशी था, उसकी सोच और कृति में परिलक्षित स्वार्थ व
धूर्तता उसकी सभ्यता के अनुरुप थीं। असली मुद्दा है स्वाधीनता के बाद का। अँगरेज़ी
और अंग्रेज़ियत को ढोते लद्दू खच्चरों की उम्मीदें जाग उठीं। जिन्हे वे अपना मानते
थे, अंकुश उनके हाथ में आ चुका था। किंतु वे इस बात से
अनभिज्ञ थे कि अंतर केवल चमड़ी के रंग में हुआ था। फिरंगी देसी चमड़ी में अंकुश
हाथ में लिए अब भी खच्चर पर लदा रहा। अलबत्ता आरंभ में पंद्रह बरस बाद बोझ उतारने
का "लॉलीपॉप' ज़रूर दिया गया।
धीरे-धीरे "लॉलीपॉप' भी बंद हो गया। खच्चर मरियल और मरियल होता गया। अब तो देसी चमड़ी के फिरंगियों
की धूर्तता देखकर गोरी चमड़ी का फिरंगी भी दंग रह गया है। प्रश्न है कि जब
राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा माना जाता है तो क्या हमारी व्यवस्था को एक डरा-सहमा लोकतंत्र अपेक्षित था जो मूक और अपाहिज हो? विगत
इकसठ वर्षों का घटनाक्रम देखें तो उत्तर "हॉं' में मिलेगा।
राष्ट्रभाषा
को स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने
की चौपटराजा प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं। इन परिणामों की तीव्रता
विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव की जा सकती है। इनमें से कुछ की चर्चा यहॉं की जा रही
है। राष्ट्रभाषा शब्द के तकनीकी उलझाव
और आठवीं अनुसूची से लेकर सामान्य बोलियों तक को राष्ट्रभाषा की चौखट में शामिल
करने के शाब्दिक छलावे की चर्चा यहॉं अप्रासंगिक है। राष्ट्रभाषा से स्पष्ट
तात्पर्य देश के
सबसे बड़े
भूभाग पर बोली-लिखी और समझी
जाने वाली भाषा से है। भाषा जो उस भूभाग पर रहनेवाले लोगों की संस्क़ृति के तत्वों
को अंतर्निहित करने की क्षमता रखती हो, जिसमें प्रादेशिक
भाषाओं और बोलियों से शब्दों के आदान-प्रदान की उदारता निहित
हो। हिंदी को उसका संविधान प्रदत्त पद व्यवहारिक रूप में प्रदान करने के लिए आम
सहमति की बात करने वाले भूल जाते हैं कि राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत
और राष्ट्रभाषा अनेक नहीं होते। हिंदी का विरोध करने वाले कल यदि राष्ट्रध्वज और
राष्ट्रगीत पर भी विरोध जताने लगें, अपने-अपने ध्वज फहराने लगें, गीत गाने लगें तो क्या कोई
अनुसूची बनाकर उसमें कई ध्वज और अनेक गीत प्रतिष्ठित कर दिये जायेंगे? क्या तब भी यह कहा जायेगा कि अपेक्षित राष्ट्रगीत और राष्ट्रध्वज आम सहमति
की प्रतीक्षा में हैं? भीरु व दिशाहीन मानसिकता दुःशासन का
कारक बनती है जबकि सुशासन स्पष्ट नीति और पुरुषार्थ के कंधों पर टिका होता
है। सांस्कृतिक अवमूल्यन का बड़ा कारण विदेशी भाषा
में देसी साहित्य पढ़ाने की अधकचरी सोच है। राजधानी के एक अँगरेज़ी विद्यालय ने
पढ़ाया - Seeta was sweetheart of Rama! ठीक इसके विपरीत श्रीरामचरित मानस में श्रीराम को सीताजी के कानन-कुण्डल मिलने पर पहचान के लिए लक्ष्मणजी को दिखाने का प्रसंग स्मरण कीजिए।
लक्ष्मणजी का कहना कि मैने सदैव भाभी मॉं के चरण निहारे, अतएव
कानन-कुण्डल की पहचान मुझे कैसे होगी?- यह भाव संस्कृति की आत्मा है।
कुसुमाग्रज की मराठी कविता में शादीशुदा बेटी का मायके में "चार भिंतीत नाचली' का भाव तलाशने के लिए सारा
यूरोपियन भाषाशास्त्र खंगाल डालिये। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी। शिक्षा के माध्यम को लेकर बनी
शिक्षाशास्त्रियों की अधिकांश समितियों ने प्राथनिक शिक्षा मातृभाषा में देने की
सिफारिश की। यह सिफारिशें आज कूड़े-दानों में पड़ी हैं।
त्रिभाषा सूत्र में हिंदी, प्रादेशिक भाषा एवं संस्कृत/अन्य क्षेत्रीय भाषा का प्रावधान किया जाता तो देश को ये दुर्दिन देखने को
नहीं मिलते। अब तो हिंदी को पालतू पशु की तरह दोहन मात्र का साधन बना लिया गया है।
सिनेमा में हिंदी में संवाद बोलकर हिंदी की रोटी खानेवाले सार्वजनिक वक्तव्य
अँगरेज़ी में करते हैं। जनता से हिंदी में मतों की याचना करनेवाले निर्वाचित होने
के बाद अधिकार भाव से अँगरेज़ी में शपथ उठाते हैं।
छोटी-छोटी बात पर और प्रायः बेबात
संविधान को इत्थमभूत धर्मग्रंथ-सा मानकर अशोभनीय
व्यवहार करने वाले छुटभैयों से लेकर कथित राष्ट्रीय नेताओं तक ने कभी राष्ट्रभाषा
को मुद्दा नहीं बनाया। जब कभी किसीने इस पर आवाज़ उठाई तो बरगलाया गया कि भाषा
संवेदनशील मुद्दा है। तो क्या देश को संवेदनहीन समाज अपेक्षित है? कतिपय बुद्धिजीवी भाषा को कोरी भावुकता मानते हैं। शायद वे भूल जाते हैं कि
युद्ध भी कोरी भावुकता पर ही लड़ा जाता है। युद्धक्षेत्र में "हर-हर महादेव' और "पीरबाबा सलामत रहें' जैसे भावुक (!!!) नारे ही प्रेरक शक्ति का काम करते हैं। यदि भावुकता से राष्ट्र एक सूत्र
में बंधता हो, व्यवस्था शासन की दासता से मुक्त होती हो,
शासकों की संकीर्णता पर प्रतिबंध लगता हो, अनुशासन
कठोर होता हो तो भावुकता अनिवार्य रूप से देश पर लाद दी जानी चाहिए।
वर्तमान में सीनाजोरी अपने चरम पर है। काली चमड़ी के
अंगरेज़ पैदा करने के लिए भारत में अँगरेज़ी शिक्षा लानेवाले मैकाले के प्रति
नतमस्तक होता आलेख पिछले दिनों एक हिंदी
अख़बार में पढ़ने को मिला। यही हाल
रहा तो वह दिन दूर नहीं जब जनरल डायर और जनरल नील-छत्रपति
शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहान के स्थान
पर देश में शौर्य के प्रतीक के रूप में पूजे जाने लगेंगे। सामान्यतः श्राद्धपक्ष
में आयोजित होनेवाले हिंदी पखवाड़े के किसी एक दिन हिंदी के नाम का तर्पण कर देने
या सरकारी सहभोज में सम्म्मिलित हो जाने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के
कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो सकती। आवश्यक
है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। वह सूचना के अधिकार के तहत
राष्ट्रभाषा को राष्ट्र भर में मुद्दा बनाएँ।
लगभग तीन दशक पूर्व दक्षिण
अफ्रीका का एक छोटा-सा देश आज़ाद हुआ। मंत्रिमंडल की पहली बैठक में
निर्णय लिया गया कि देश आज से "रोडेशिया' की बजाय "जिम्बॉब्वे' कहलायेगा। राजधानी "सेंटलुई'
तुरंत प्रभाव से "हरारे' होगी। नई सदी प्रतीक्षा में है कि कब "इंडिया'की केंचुली उतारकर "भारत' बाहर आयेगा। आवश्यकता है महानायकों के जन्म की बाट जोहने की अपेक्षा भीतर
के महानायक को जगाने की। अन्यथा भारतेंदु हरिशचंद्र की पंक्तियॉं - "आवहु मिलकर रोवहुं सब भारत भाई, हा! हा! भारत दुर्दसा न देखन जाई!' क्या सदैव हमारा कटु यथार्थ बनी रहेंगी?
विषय
सूची
१ विदेशों में हिन्दी शिक्षण : समस्यायें
और समाधान
२ हिंदी पर हमला
३ हिंदी साहित्य के विकास और मिशनरी
४ प्रवासी साहित्य - नई व्याकुलता और
बेचैनी
५ विश्व में हिन्दी फिर पहले स्थान पर
६ विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास एवं हिंदी
७ विश्व हिंदी सचिवालय : एक नज़र में
८ भाषा और संस्कृति
९ हिंदी में वैज्ञानिक-तकनीकी शिक्षण
और चुनौतियाँ
१० अहिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी
११ दक्षिण भारत मे हिंदी का प्रचलन
१२ बाजार की मार से बेज़ार हैं
किताबें
१२.१ राज्याश्रय में पलता प्रकाशन
उद्योग
१२.२ पाठक और किताब का रिश्ता
१३ विश्व-फ़लक पर हिन्दी: कुछ सुझाव
१४ हिन्दी और विज्ञान लेखन
१४.१ संचार माध्यमों में विज्ञान लेखन
१५ मनोरंजन जगत को मालामाल करती हिंदी
१६ प्रबंधन और हिन्दी
१६.१ हिन्दी पाठ्यक्रमों में प्रबंधन
१६.२ प्रबंधन के पाठ्यक्रमों में
हिन्दी
१७ संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को लाने का समय
१८ हिन्दी : करवट लेती नयी चुनौतियाँ
१९ हिन्दी भाषा 'भारती' का भविष्य
२० हिन्दी एवं प्रवासी भारतीयों की वर्तमान पीढ़ी
२१ हिन्दी की फिल्मों, हिन्दी के गानों
तथा टी.वी. कार्यक्रमों का प्रसार
२२ प्रवासी साहित्यः हमारा दायित्व
२३ जापान में हिंदी
२४ संयुक्त राष्ट्र संघ और हिन्दी
२५ हिंदी भाषा, शिक्षा और अनुशासन
२६ विश्व भाषा बनेगी हिंदी
२७ विश्व हिन्दी सम्मेलन-ट्रिनिडाड को
याद करते हुए
२८ मैं और मेरा हिंदी प्रेम
२९ मैं हिंदी में क्यों लिखता हूँ
३० गयाना में भारतीय संस्कृति और हिन्दी
३१ हिंदी की मूरति
३२ इंदिरा गाँधी
३३ विश्व-हिंदी' के
साथ-साथ 'विश्व-नागरी'
भी चले
३४ समापन समारोह है, तो मन भारी है
३५ परदेशों में हिन्दी का बढता प्रभाव
३५.१ मॉरिशस
३५.२ फिजी
३५.३ नेपाल
३५.४ श्रीलंका
३५.५ यू.ए.ई.
विदेशों में हिन्दी शिक्षण : समस्यायें और
समाधान
सन् 1998 के पूर्व, मातृभाषियों
की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के जो आँकड़े
मिलते थे, उनमें हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था । सन् 1997
में सैन्सस ऑफ़ इंडिया का भारतीय भाषाओं के विश्लेषण का ग्रन्थ प्रकाशित
होने तथा संसार की भाषाओं की रिपोर्ट तैयार करने के लिए यूनेस्को द्वारा सन् 1998
में भेजी गई यूनेस्को प्रश्नावली के आधार पर उन्हें भारत सरकार के
केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन द्वारा भेजी
गई विस्तृत रिपोर्ट के बाद अब विश्व स्तर पर यह स्वीकृत है कि मातृभाषियों की
संख्या की दृष्टि से संसार की भाषाओं में चीनी भाषा के बाद हिन्दी का दूसरा स्थान
है। चीनी भाषा के बोलने वालों की संख्या
हिन्दी भाषा से अधिक है किन्तु चीनी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिन्दी की अपेक्षा
सीमित है। अँगरेज़ी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिन्दी की अपेक्षा अधिक है किन्तु
मातृभाषियों की संख्या अँगरेज़ी भाषियों से अधिक है।
विश्व के लगभग 100
देशों में या तो जीवन के विविध क्षेत्रों में हिन्दी का प्रयोग होता
है अथवा उन देशों में हिन्दी के अध्ययन अध्यापन की व्यवस्था है। इन देशों को हम
तीन वर्गों में विभाजित कर सकते हैं -
- वे देश जिनकी भारतीय मूल
के आप्रवासी नागरिकों की आबादी अपने देश की जनसंख्या में लगभग 40 प्रतिशत या उससे अधिक है।
- इस वर्ग में वे देश आते
हैं जो हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में सीखते हैं।
- वे देश जिनमें हिन्दी-उर्दू मातृभाषियों की बड़ी संख्या निवास करती है। इन देशों में भारत,
पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल,
भूटान आदि देशों के अप्रवासियों/अनिवासियों की
रहने वाली विपुल आबादी सम्पर्क भाषा के रूप में ‘हिन्दी-उर्दू’
का प्रयेाग करती है, हिन्दी-उर्दू की
फ़िल्में देखती है, गाने सुनती है, टेलीविज़न
के कार्यक्रम देखती है। हिन्दी के
वैश्विक व्यवहार एवं प्रयोग की संक्षिप्त विवेचना के साथ ही यह विवेच्य है कि
विदेशों में हिन्दी शिक्षण की प्रमुख समस्याएँ कौन-सी हैं
तथा उनका व्यवहारिक दृष्टि से क्या समाधान है, क्या करणीय
है। इस सम्बंध में सूत्रवत शैली में कुछ
विचार हिन्दी के विद्वानों के लिए प्रस्तुत हैं।
(1) प्रत्येक देश के शिक्षण
स्तर एवं हिन्दी प्रशिक्षण के लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को ध्यान में रखकर हिन्दी
शिक्षण के पाठ्यक्रम का निर्माण करना चाहिए। पाठ्यक्रम इतना व्यापक एवं स्पष्ट
होना चाहिए जिससे शिक्षक एवं अध्येता का मार्गदर्शन हो सके।
(2)
विदेशों में हिन्दी शिक्षण करने वाले शिक्षकों के लिए शिक्षण-प्रशिक्षण एवं नवीकरण पाठ्यक्रमों का आयोजन एवं संचालन होना चाहिए ।
(3) श्रवण कौशल, वाचन कौशल, वार्तालाप कौशल एवं रचना कौशल के शिक्षण
की दृष्टि से सामग्री के निर्माण की परियोजना बननी चाहिए एवं उस दिशा में
विद्वानों को कार्य सम्पन्न करना चाहिए।
(4) विदेशी अध्येताओं के
भाषा शिक्षण के उद्देश्य एवं लक्ष्य को ध्यान में रखकर आवृत्ति के आधार पर आधारभूत
शब्दावली के निर्माण का कार्य होना चाहिए।
(5) देवनागरी लेखन तथा हिन्दी वर्तनी
व्यवस्था की दृष्टि से निम्न लिखित क्षेत्रों में कार्य सम्पन्न होने चाहियें:-
( क ) देवनागरी
लिपि के लिपि चिन्हों का विश्लेषण।
( ख ) एक लिपि चिन्ह से रूपान्तरित
होने वाले अन्य लिपि चिन्हों का क्रमिक विस्तार।
( ग ) मात्राओं से युक्त व्यंजन एवं
संयुक्त व्यंजन तथा हिन्दी वर्तनी की अन्य विशेषताओं के अनुरूप वर्णों से बनने
वाले शब्दों के अनुप्रयोगात्मक पाठों का निर्माण।
(6) वास्तविक भाषा व्यवहार
को आधार बनाकर व्यावहारिक हिन्दी संरचना - ध्वनि संरचना,
शब्द संरचना तथा पदबंध संरचना - के
अनुप्रयोगात्मक पाठों के निर्माण के क्षेत्र में विद्वानों को कार्य करते समय
समस्त सामग्री का निर्माण अभिक्रमित रूप में करना चाहिए तथा शिक्षार्थी के अधिगम
की पुष्टि के लिए प्रत्येक बिन्दु पर विभिन्न अभ्यासों की योजना भी होनी चाहिए।
(7) हिन्दी के आर्थी
प्रयोगों के लिए सामग्री का निर्माण होना चाहिए।
(8) जीवन के विविध प्रयोजनों
की सिद्धि के लिए हिन्दी भाषा के आधारभूत व्याकरणिक एवं संरचनात्क बिन्दुओं की
अनुस्तारित सामग्री निर्मित होनी चाहिए।
(9) हिन्दी साहित्य का
अध्ययन करने वाले विदेशी अध्येताओं के लिए ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’ का निर्माण
करते समय प्रत्येक काल की मुख्य धाराओं, प्रमुख प्रवृत्तियों,
प्रसिद्ध रचनाकारों तथा उनकी रचनाओं का विवरण भारत के हिन्दी समाज
के उस काल की सांस्कृतिक, सामाजिक एवं दार्शनिक पृष्ठभूमि को
ध्यान में रखकर प्रस्तुत की जानी चाहिए।
(10) हिन्दी की संस्कृति:
हिन्दी साहित्य में अभिव्यक्त सांस्कृतिक संकल्पनाओं से परिचित
कराने के लिए सामग्री का निर्माण सचित्र होना चाहिए।
(11) कम्प्यूटर साधित हिन्दी
भाषा शिक्षण की प्रभूत सामग्री के निर्माण के लिए ऐसी परिचालन प्रणाली का विकास
किया जाना चाहिए जिससे हिन्दी में काम करना अधिक सुविधाजनक हो। हिन्दी इन्टरफ़ेस
सभी प्लेटफ़ार्मों पर उपलब्ध हो, जिससे सारे आदेश उपकरण
पट्टियाँ, संवाद कक्ष तथा मदद हिन्दी में उपलब्ध हो सके।
(12) विदेशी अध्येताओं को
ध्यान में रखकर ‘स्पेल चैकर’ तथा ‘आन-लाइन शब्दकोष’ की
सुविधा का विकास किया जाना चाहिए।
(13) लीला प्रबोध की तर्ज पर
जीवन के विविध प्रयोजनों की सिद्धि के लिए हिन्दी में स्वयं शिक्षण पैकेज की दिशा
में प्रगति एवं विकास होना चाहिए।
(14) कम्प्यूटर आधारित भाषा
प्रयोगशाला के उपयोग में आने वाली सामग्री का निर्माण होना चाहिए।
(15) डाउनलोड करने वाली अनेक
प्रसिद्ध साइटों पर विश्व की अन्य सभी प्रमुख भाषाएँ उपलब्ध हैं किन्तु हिन्दी
नहीं है। इसके लिए सार्थक पहल की जानी चाहिए।
(16) महात्मा गाँधी हिन्दी
विश्वविद्यालय, वर्धा, केन्द्रीय हिन्दी
संस्थान, आगरा आदि संस्थाओं को हिन्दी में ऐसे पोर्टल विकसित
करने चाहिए जिससे कोई भी विदेशी अध्येता हिन्दी से सबन्धित प्रत्येक जानकारी
प्राप्त कर सके।लाइनेक्स और ओपन सोर्स साफ्टवेयर के ज़रिए इन संस्थाओं को हिन्दी
का लोकलाइजेशन ग्रुप विकसित करना चाहिए जो हिन्दी भाषा की ध्वनि, लिपि, शब्द, भाषा प्रयोग आदि
के सम्बन्ध में अपने विचार हिन्दी में दे सकें, हिन्दी में
अभिलेख एवं ई-मेल अधिकाधिक भेज सकें, विभिन्न
विषयों पर अपने विचार प्रस्तुत कर सकें, प्रस्तुत विचार-सामग्री में संशोधन कर सकें। हिन्दी में साफ्टवेयर निर्मिति का कार्य
तीव्र गति से होना चाहिए। हिन्दी में ज्ञान-विज्ञान की
प्रत्येक शाखा के प्रत्येक विषय पर प्रभूत सामग्री कप्यूटर पर उपलब्ध होनी चाहिए।
हिंदी पर
हमला
पिछले दिनों बैंगलोर में
भारतीय भाषाओं के कुंभ के नाम से विद्वतजनों का एक सम्मेलन आयोजित हुआ। इस सम्मेलन
का उद्धाटन हिंदी के नामचीन साहित्यकार एवं मार्क्सवादी बुध्दिजीवी डॉ. नामवर सिंह ने किया था। डॉ. नामवर सिंह ने अपन
उद्धाटन भाषण में कहा कि 1.- हिंदी समूचे देशकी भाषा नहीं है
वरन वह तो अब एक प्रदेश की भाषा भी नहीं है। उत्तरप्रदेश, बिहार
जैसे राज्यों की भाषा भी हिंदी नहीं है। वहाँ की क्षेत्रीय भाषाएँ यथा अवधी,
भोजपुरी, मैथिल आदि हैं। अत: देश को द्विभाषा फ़ार्मूला चाहिए। एक - क्षेत्रीय
भाषा दूसरी अँगरेज़ी। ख्यातिनाम व्यक्ति के ऐसे भाषण से, जहाँ
एक तरफ़ देश में चर्चित त्रिभाषा फ़ार्मूले पर प्रश्नचिन्न खड़ा हुआ तथा हिंदी के
राष्ट्रभाषा बनने की स्थिति पर एक हिंदी प्रदेश के हिंदी भाषी द्वारा ही
प्रश्नचिन्ह खड़ा कर चुनौती दी गई। वहीं तमिलनाडु में निरंतर बहाई जा राजनीति
प्रेरित हिंदी विरोधी हिंसा को साम्राज्यवादी बताने वाली धारणा को बल मिला है तथा
तमिलनाडु के कुछ अख़बारों ने डॉ. नामवर सिंह के इस भाषण को
प्रमुखता से छापा है। हो सकता है कि डॉ. नामवर सिंह ने इस
भाषण को सुनियोजित सोच के आधार पर दिया हो। 2.- दक्षिण भारत
में हिंदी विरोधी भावना को उकसाकर और वह भी हिंदी के एक साहित्यकार द्वारा उन्हें
दक्षिण में कुछ विशेष प्रशंसा मिली हो तथा दूसरे विवाद प्रचार का सशक्त माध्यम
होता है इस सिध्दांत के तहत श्री नामवर सिंह जी ने, विवादास्पद
भाषण को माध्यम बनाया हो ताकि विवाद हो- कुछ गाली-गलौच हो, पत्थर चलें तथा उसकी चर्चा सुर्खियों में
हो। कुछ लोगों का यह भी मत है कि डॉ. नामवर सिंह मार्क्सवादी
हैं तथा वे जिस वर्ग संघर्ष में विश्वास रखते हैं उसे नहीं चला सकें। अत: भाषा संघर्ष को चलाकर ही संतोष कर रहे हैं। बहरहाल दक्षिण भारत के
तमिलनाडु प्रदेश को जहाँ आज़ादी के आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी ने हिंदी को
राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकारने के आंदोलन का केन्द्र बनाया था। जहाँ गांधी जी
ने राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का कार्य प्रारंभ किया था, उसी
दक्षिण भारत से श्री नामवर सिंह द्वारा राष्ट्रभाषा हिंदी के वृक्ष को उखाड़ने की
पहल की पड़ताल ज़रूरी है।
पिछले कुछ दिनों से
अँगरेज़ी ने हिंदी पर एक नये ढंग से आक्रमण शुरू किया है। शायद इसकी एक वजह यह हो
सकती है कि विश्व व्यापार संगठन की भाषा अँगरेज़ी बन चुकी है और इस अर्थ में
अँगरेज़ी विश्व व्यापार की प्रवक्ता भाषा बन गई है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि
भारत जैसे देशों ने किसी भी स्तर पर इसका विरोध नहीं किया। क्योंकि भारत व रंगीन
दुनिया के सत्ताधीश तो अँगरेज़ी के सामने पहले से ही नतमस्तक हैं। अब भारत के
नामवरी बुध्दिजीवियों का वर्ग और उसमें से भी चुनकर ऐसे लोगों का इस्तेमाल, हिंदी के विरोध में और अँगरेज़ी के पक्ष में हो रहा है, जिन्हें अभी तक हिंदी सेवियों की अग्रिम पँक्ति में रखा जाता था। जब श्री
नामवर सिंह के इस भाषण की आलोचना हुई, तो श्री गोपालराव,
जो जाने-माने मार्क्सवादी साहित्यकार एवं
बुध्दिजीवी हैं, ने श्री नामवर सिंह के समर्थ में लम्बे लेख
लिखे तथा अनेक कुतर्क देने का प्रयास किया। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि हमारे देश
के वामपंथी मित्र आज़ादी के आंदोलन से लेकर लगभग 20वीं सदी
के अंत तक अँगरेज़ी को ही अपनी मुख्य भाषा के रूप में प्रयोग करते रहे हैं व मानते
रहे हैं। श्री नामवर सिंह ने जिस द्विभाषा फ़ार्मूले को प्रस्तुत किया है, याने राज्य स्तर पर या केन्द्र स्तर पर अँगरेज़ी तथा घर में क्षेत्रीय
बोली, उसका व्यवहारिक प्रयोग हमारे देश के मार्क्सवादी मित्र
तो आज़ादी के ज़माने से ही करते रहे हैं। हालांकि वे इस सिध्दांत का प्रयोग चीन,
रूस या क्यूबा में नहीं करा सके। वहाँ क्रमश: रूस
या चीनी, देशज भाषाएँ हैं तथा अँगरेज़ी विदेशी। परन्तु
ब्रिटेन के कैम्ब्रिज जैसे ज्ञानतीर्थों से स्नातक होकर लौटे इन मार्क्सवादी
बुध्दिजीवियों की दर्शन प्रक्रिया अलग ही है।
श्री नामवर सिंह व श्री
गोपालराव का तर्क है कि अँगरेज़ी राष्ट्रीय भाषा तथा मातृभाषा क्षेत्रीय भाषा होने
से छात्रों का बोझ घटेगा क्योंकि केवल दो ही भाषाएँ सीखना होंगी, एक क्षेत्रीय या मातृभाषा, दूसरी अँगरेज़ी। अगर इस
तर्क को आगे बढ़ाया जाये तो किसी दिन ये मित्र यह भी कहेंगे कि क्षेत्रीय मातृभाषा
सीखने-सिखाने की क्या आवश्यकता है। अँगरेज़ी ही चले -
घर से लेकर दिल्ली तक, तब छात्रों को केवल एक
बी भाषा पढ़ना होगी। और मुझे विश्वास है कि कुछ दशकों के बाद उपयुक्त अवसर मिलते
ही ये हमारे वामपंथी बुध्दिजीवी यह दर्शन प्रचारित करेंगे।
दरअसल हिंदी पर यह हमला
अनेक कारणों से है। परन्तु उनमें से एक बडा कारण भारत राष्ट्र की पराजित मानसिकता
भी है। आज भारत अपना आत्मविश्वास खो चुका है तथा दुनिया का शोषण करने वालों के हर
आदेश को यह कहते हुए स्वीकारने को तैयार है कि अब कोई विकल्प नहीं है। बाजारीकरण
स्वीकारो क्योंकि अब कोई विकल्प नहीं है। इसी में मानवता खोजो। अमेरिकी संप्रभुता
स्वीकारो क्योंकि कोई विकल्प नहीं है, अब अमेरिका की शरण में
जाना ही मुक्ति है। अँगरेज़ी स्वीकारो क्योंकि कोई रास्ता नहीं है। अत: स्वत: बढ़कर अँगरेज़ी के दरवाज़े खोलो तथा अँगरेज़ी
के नाम पर जो सुविधाएँ हासिल कर सकते हो हासिल करो। पिछले कुछ अरसे से कुछ
स्वयंसेवी संस्थाओं के महाप्रभुओं, जिनका अर्थसत्ता केन्द्र
विदेशों में है, समाचार पत्रों में लेखों व वक़्तव्यों के
द्वारा देश को अँगरेज़ी की सत्ता स्वीकारने के लिए, मानसिक
प्रशिक्षण दिया जा रहा है। एक मित्र लिखते हैं कि अब अँगरेज़ी विरोध बंद कर
अँगरेज़ी की गुनगुनी धूप को तापना शुरू करें। विश्व बाज़ार की आर्थिक शक्तियाँ,
हर दौर में अपने विरोधी के लिए अपने अनुकूल नेताओं का सृजन करती है।
उनका प्रचारतंत्र इस कार्य को बखूबी अंजाम देता है और फिर उपयुक्त समय आने पर
उन्हें अपने पक्ष में खड़ा कर वास्तविक विरोधियों को समर्थन करने के लिए मानसिक
रूप से तैयार करती है। जब सेनापति हथियार डालता है तो सेना निराश होती है, उसी प्रकार जब कोई नायक हथियार डालता है तो देश व जनता में निराशा होती
है। श्री शरद जोशी, जो एक ज़माने में किसानों के नेता बनाए
गए थे, अचानक पेप्सी कोला के समर्थन में खड़े दिखाई दिए।
मार्क टुली, जिनका बी.बी.सी के संवाददाता के रूप में भारत में काफ़ी सम्मान है, अचानक अँगरेज़ी की वक़ालत करते दिखाई देते हैं। कुछ विद्वान मित्र
राष्ट्रभाषा व राजभाषा में फ़र्क करते हैं तथा चाहते हैं कि हिंदी राष्ट्रभाषा तो
रहे परन्तु राजभाषा अँगरेज़ी हो। क्या राज राष्ट्र से ऊपर है ? आखिर राष्ट्रभाषा राजभाषा क्यों नहीं हो सकती ? क्या
दुनिया में दूसरा कोई ऐसा उदाहरण होगा ? दरअसल यह अँगरेज़ी
की चालाक व बौध्दिक वक़ालत है।
जवाहरलाल नेहरू वि.वि. के कुछ मित्र अचानक हिंदी राष्ट्रभाषा के प्रश्न
पर विचारगोष्ठी आमंत्रित करते हैं तथा हिंदी के इन गद्दार नायकों को मंच देकर
इन्हें प्रतिष्ठित करने का प्रयास करते हैं।
बोली और भाषा के प्रश्न पर
कुछ विस्तार से विचार ज़रूरी है। बोली के लिए लिपि ज़रूरी नहीं है। यद्यपि कुछ
विद्वान कहते हैं कि लिए भाषा के लिए भी लिपि ज़रूरी नहीं है। केवल बोली या
व्याकरण पर्याप्त हैं। श्री रमाकांत अग्निहोत्री ने शैक्षिक संदर्भ के
सितम्बर अक्टूबर के अंक में यही स्थापना
की तथा कहा कि भाषा किसे कहा जाए यह सामाजिक-राजनैतिक प्रश्न है। वे
कहते हैं कि सत्ताधारी और पैसे वाले लोग अक्सर जो बोली बोलते हैं, वह भाषा कहलाने लगती है। श्री रमाकांत जी की स्थापना से सहमत होना संभव
नहीं है। अगर यह स्थिति होती तो भारत में तो दशकों पूर्व ही अँगरेज़ी भाषा तथा
हिंदी व अन्य भारतीय भाषाएँ बोली हो गई होतीं। क्योंकि कश्मीर से कन्याकुमारी तक
सत्ता व पैसे वाले लोग अँगरेज़ी का इस्तेमाल करते रहे तथा लगभग 200 वर्षों से वह इस्तेमाल हो रही है। तब भी अँगरेज़ी भारत की जनभाषा नहीं बन
सकी व देश की क्षेत्रीय भाषाएँ व कुछ क्षेत्रों में हिंदी, भाषाएँ
भी रहीं, बोली भी, वे परिवर्तित नहीं
हो सकी। संस्कृत, प्राकृत, पाली,
दक्षिण की तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयाली, उर्दू,
मराठी, पंजाबी, गुरूमुखी,
गुजराती, उड़िया, बंगाली
आदि भाषाएँ जिनकी लिपियाँ पृथक हैं, परन्तु मैथिली, अवधी, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी,
गोंडी मालवी आदि बोलियाँ ही हैं, जिनकी लिपि
तो के ही हैं। देवनागरी शब्द संस्कृत आधारित है परन्तु लोक प्रयोग से व लोग लहजे
से शब्दों में कुछ नए गढ़ाव व बदलाव आए हैं। भारत में तो बोली के भी कुछ नए स्वरूप
नज़र आते हैं। पूना की मराठी में तथा विदर्भ की मराठी में कुछ फ़र्क है। विदर्भ की
मराठी में हिंदी के साथ सामंजस्य है क्योंकि सी.पी. एँड बरार अँगरेज़ी ज़माने में पृथक राजधानी थी तथा विदर्भ उसका हिस्सा था,
जबकि पूना की मराठी शुध्दता की ओर ज़्यादा प्रवृत्त है।
आजकल एक और नया दर्शन
अँगरेज़ी समर्थक लोगों ने गढ़ा है और जो हिंदी और अँगरेज़ी के शब्दों को मिलाकर
गढ़ा जा रहा है। कुछ विद्वानों ने कहना शुरू किया है कि अब भारत में हिंगलिश चाहिए, जिसमें अँगरेज़ी और हिंदी के मिले शब्द होंगे। सच्चाई तो यह है कि भारत के
महानगरों के रहवासी जो पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित हैं, पहले
से ही इसका इस्तेमाल करते रहे और आधी हिंदी और आधी अँगरेज़ी या कहा जाए कि जितनी
बन सके उतनी अँगरेज़ी और फिर हिंदी या अपनी क्षेत्रीय भाषा का इस्तेमाल करते रहे।
परन्तु यह उनकी नगरीय मानसिकता की या अँगरेज़ी के अल्पज्ञान की कमज़ोरी का परिणाम
था, जिसे वे अब विधिवत वाद या दर्शन के रूप में परोसा जा रहा
है। हिंगलिश के पीछे एक सुनियोजित षड़यंत्र है, जिसके पीछे लोगों
को क्रमश: अँगरेज़ी की ओर ले जाना है और राष्ट्रभाषा के
मानसिक आधार को शिथिल करना है। क्या दुनिया के किसी और देश में इस प्रकार का
प्रयोग हो रहा है ? अमेरिका में जहाँ यूरोपीय नस्ल के लोग ही
मूलत: हैं। वहाँ भी अमेरिकी अँगरेज़ी और यूरोप की अँगरेज़ी
में अंतर है। जिसे मिलाने का प्रयास उन्होंने कभी नहीं किया। यूरोप के अधिकांश देश
ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से ब्रिटेन के सहोदर और हिस्से रहे हैं। वहाँ भी
भाषाओं का इतना घालमेल नहीं रहा है। फ्रांस में फ्रेंच बोली जाती है, फ्रेंच-इंग्लिश नहीं। जर्मनी में जर्मन भाषा बोली
जाती है, जर्मन-इंग्लिश। टिली में
इटेलियन भाषा बोली जाती है, इटेलियन-इंग्लिश
नहीं। जबकि यूरोप की अधिकांश भाषाएँ लैटिन से उसी प्रकार करीब हैं जैसे की भारतीय
भाषाएँ संस्कृत से।
तथ्य तो यह है कि फ्रांस, जर्मनी, इटली आदि में कोई अँगरेज़ी बोलना पसंद नहीं करता
और अँगरेज़ी बोलने वाले को एक प्राकार से राष्ट्रीय घृणा का पात्र माना जाता है।
जबकि संपर्क, रिश्तों, नस्ल, इतिहास के आधार पर ये देश अँगरेज़ी के स्वाभाविक रूप से नज़दीक हैं। इतना
ही नहीं इन मुल्कों की बहुमत आबादी एक ही धर्मावलंबी अर्थात इसाई है। यूरोप के इन
देशों का यह सौभाग्य है कि वहाँ पर अभी तक नामवर सिंह और गोपाल राय जैसे विद्वानों
का जन्म नहीं हुआ।
मैं भाषाई शुध्दता का
पक्षधर नहीं हूँ और यह मानता हूँ कि भाषाओं को यदि समृध्द बनाना है तो उसे व्यापक
बनाना होगा। दूसरी भाषाओं के आमजनों में प्रचलित शब्दों को अपनी भाषा में समाहित
करना होगा। सांस्कृतिक समन्वय के समान ही भाषा समन्वय आवश्यक है। परन्तु भाषा
समन्वय का अर्थ अपनी भाषा को या अपनी लिपि को ही समाप्त करना नहीं है। नि:संदेह संस्कृतनिष्ठ हिंदी या रघुवंशी हिंदी हमारा आदर्श ध्येय नहीं है। हम
अँगरेज़ी के प्रचलित शब्दों यथा स्टेशन, प्लेटफार्म आदि और
उसी प्रकार अरबी, फारसी, उर्दू के
प्रचलित शब्दों को, हिंदी में समाहित करना चाहते हैं,
जो हिंदी भाषियों की ज़ुबान पर चढ़े हुए हैं। क्योंकि भाषा का प्रथम
उद्देश्य संवाद है और संवाद के लिए समझ अपरिहार्य है, परन्तु
समाहित और आत्म समर्पण या आत्महत्या में फ़र्क है। अपने भाषाई समुद्र में अन्य
भाषाओं के जन बोलू शब्दों के नदी नालों को समाहित करना, भाषाओं
के प्रचलित शब्दों के मिलन के बाद की गंगा बनाना हमें अभीष्ट है। परन्तु हिंदी
राष्ट्रभाषा को समग्र रूप से नकारना और अँगरेज़ी के छोटे से नाले में हिंदी की
गंगा को मिलाना, यह हमारा अभीष्ट नहीं है। हिंदी भाषियों को
भारतीय भाषा भाषियों को या क्षेत्रीय भाषाओं के समर्थकों को इस षड़यंत्र के प्रति
सावधान होना होगा। यह षड़यंत्र बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अलिखित वैश्विक सत्ता के
द्वारा चलाया जा रहा है, जिसमें प्रत्यक्ष रूप से हिंदी के
इन नामवरी साहित्यकारों को उसी प्रकार सामने खड़ा किया जा रहा है जिस प्रकार
महाभारत काल में भीष्म पितामह के समक्ष शिखंडी को खड़ा किया गया था। अगर श्री
नामवर सिंह और गोपाल राय हिंदी को इतना अनुपयोगी मानते हैं तो उन्हें सबसे पहले
हिंदी लेखन बंद कर देना चाहिए। हिंदी में भाषण देना बंद कर देना चाहिए और अँगरेज़ी
साहित्य रचना और अँगरेज़ी में अपनी क़िस्मत आजमाना चाहिए। उन्हें असलियत का पता चल
जाएगा। और अपने तर्कों के रेत के खम्बों की सच्चाई का भी पता चल जाएगा। देश के सत्ताधारी
जो पहले से ही अँगरेज़ी के मानसिक गुलाम हैं, ने व्यवस्था के
माद्यम से एक नया खेल शुरू किया है। भारत के आकाशवाणी की बहुचर्चित और जनप्रिय
प्रसारण एफ.एम. में जो कार्यक्रम देने
वाले लोग आते हैं, वे आपसी संवाद हिंदी और अँगरेज़ी का मिला-जुला इस्तेमाल करते हैं। अब तो स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि हिंदी के
समाचारों के बीच में अँगरेज़ी के उध्दरण पढ़े जाते हैं और लगभग हिंदी समाचारों का
एक तिहाई हिस्सा अँगरेज़ी में पढ़ा या उध्दृत किया जाने लगा है। यह क्रम अभी कुछ
ही माहों से शुरू हुआ है। क्या सत्ताधीशों ने कभी यह भी सोचा है कि भारत के दूरस्थ
ग्रामों, क़स्बों में बैठा हुआ आदमी अँगरेज़ी के उध्दरणों को
समझ पाएगा और क्या इस प्रक्रिया के माध्यम से हिंदी के श्रोताओं को अँगरेज़ी सीखने
के लिए बाध्य नहीं किया जा रहा है ? अँगरेज़ी समाचारों के
प्रसारण में हिंदी के उध्दरणों को शामिल क्यों नहीं किया जाता ? फिर यदि यही प्रक्रिया जारी रही तो आकाशवाणी और एफ.एम.
हिंदी के समाचाह ही बंद कर देगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि देश के
एक हिस्से में यह समझ है कि अँगरेज़ी विश्वभाषा है या दुनिया में सबसे ज़्यादा
बोली जाने वाली भाषा है। यह समझ कुछ ग़लती से है और कुछ योजनापूर्ण प्रचार से।
सच्चाई तो यह है कि अँगरेज़ी दुनिया के बहुत छोटे से हिस्से की भाषा है।
अँगरेज़ीदाँ लोगों को यह भी पता नहीं है कि बाज़ार की बाध्यताएँ राष्ट्रीय भाषाओं
और क्षेत्रीय भाषाओं को भले ही मुनाफे के लिए ही सही गले लगा रही हैं। आज अमेरिका
में अँगरेज़ी भाषा जानने वालों की संख्या और चीन में चीनी भाषा जानने वालों की
संख्या ब्रिटेन की अँगरेज़ी भाषा जानने वालों की तुलना में कहीं ज़्यादा है।
अमेरिका और यूरोप के अनेक देशों ने भारत में अपने व्यापार का जाल फैलाने के लिए
बड़े पैमाने पर अपने अपने देशों में हिंदी प्रशिक्षण प्रारंभ किया है।
क्या हमारे ये हिंदी के
नामवर महाप्रभु यह नहीं जानते कि ब्रिटेन के लिए भारत बाज़ार है भारत के लिए
ब्रिटेन बाज़ार नहीं है। और यदि बाज़ार की अनिवार्यता और शर्त को देखा जाए तो
ब्रिटेन को हिंदी सीखने की आवश्यकता है न कि भारत को अँगरेज़ी। पहले ही देश के
क्षेत्रीय क्षत्रपों ने अपने राजनैतिक लाभ के लिए हिंदी साम्राज्यवाद जैसे जुमले
चलाए और क्षेत्रीय जन भावनाओं को प्रदूषित और विकृत किया है। उन्हें अँगरेज़ी
साम्राज्यवाद कुबूल है, परन्तु राष्ट्र की एकता के
तंतुओं को जोड़ने वाली जन भाषा हिंदी कुबूल नहीं है। यह अँगरेज़ी साम्राज्यवाद की
उपज है। जो भाषा के नाम पर क्षेत्रवाद को मजबूत किले में बदलना चाहता है ताकि
राष्ट्र मानसिक रूप खंडित हो सके। सैकड़ों साल पहले आदि शंकराचार्य दक्षिण से
उत्तर जाकर जन संवाद करते थे और उत्तर का गैर पढ़ा लिखा हिंदी भाषी दक्षिण के
रामेश्वरम जाकर संवाद कर सकता था। श्री नामवर सिंह जैसे मित्रों को एक सूचना देते
मैं अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा कि ब्रिटेन के 1300 स्कूलों
में हाल ही के सर्वेक्षण यह पाया गया कि मात्र 13 प्रतिशत
छात्र ही अँगरेज़ी सीखने वाले थे। जो अँगरेज़ी ख़ुद ब्रिटेन में ख़त्म हो रही है
उसे भारत के सिर पर बिठाना क्या अपने वतन, राष्ट्रभाषा और
मादरीजबान के साथ वफ़ादारी होगी ? मैं जानता हूँ यह अँगरेज़ी
समर्थक मित्र राष्ट्रवाद को संकीर्णता और विश्व व्यापकता के फैलाव का तर्क देंगे परन्तु
क्या कभी ये रूस, चीन और क्यूबा जैसे साम्यवादी सत्तावाले
देशों से कुछ राष्ट्रीयता का सबक सीखेंगे ?
हिंदी साहित्य के विकास और
मिशनरी
धर्म किसी-न-किसी रूप में मनुष्य के जीवन को निरंतर प्रभावित
करता रहता है। समाज के वर्तमान स्वरूप में संस्थाबद्ध संबंधों को बनाने में धर्म
और आध्यात्मिकता का योगदान महत्त्पूर्ण माना जाता है। इसमें भाषा की मध्यस्था को
नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता क्योंकि उसकी प्रमुख भूमिका संप्रेषण है। चूँकि ईसा
के वचनों का प्राचर-प्रसार उनके अनुयायियों का परम कर्तव्य
समझा जाता है इसीलिए ईसा की मृत्यु के बाद उनके चेलों ने दुनिया के विभिन्न
हिस्सों में जाकर धर्म-प्रचार किया । भारत में सेंट थॉमस का
आगमन सन् 52 का माना जाता है।
वैसे तो प्राचीनकाल से
भारत और पश्चिम के बीच संबंध रहे हैं। ईसा पूर्व 975 में लाल
समुद्र स्थित अकाबा बंदरगाह और भारत के पश्चिमी तट के बीच व्यापार का ज़िक्र
अफ्रीका के इतिहास में मिलता है। वहाँ के निवासी-पोनेश्यिन-भारत और यूनान के बीच मध्यस्थ थे। यूनान के लोग वेद एवं पुराणों के बारे
में ईसा से 300 वर्ष पूर्व परिचित थे। लगभग इसी समय बौद्ध
धर्म के सिद्धांतों की गूँज भूमध्सागरीय इलाकों तक पहुँची । लेकिन रोमन साम्राज्य
के पतन के बाद भारत और पश्चिम के बीच सीधा संपर्क 20 मई,
1498 को पुर्तगाली नाविक वास्कोडिगामा के कालिकट आगमन के बाद
प्रारंभ हुआ। राजा जामोरिन द्वारा यात्रा का कारण पूछे जाने पर उत्तर मिला,
“ईसाईयत और मसाले”।
अँगरेज़ बहुत बाद में आए।
सन् 1579 में प्रथम अँगरेज़ जेसुइट पादरी थॉमस
स्टीवेंसन गोवा पहुँचा । भारतीय बोलियों के व्याकरण में उसकी गहरी रुचि थी और 1615
में उसने कोंकणी व्याकरण पर एक किताब प्रकाशित की। साथ ही
‘क्रिस्टियन पुराण’ नामक काव्य लिखा।
सन् 1583
में महारानी एलिजाबेथ प्रथम की एक सिफ़ारिशी चिट्ठी लेकर अँगरेज़
व्यापारियों का शिष्टमंडल भारत के लिए र्वाना हुआ जो सम्राट अकबर के दरबार में
आगरा सन् 1585 में पहुँचा। अकबर अत्यंत उदार हृदय सम्राट था
और राज्य में शांति स्थापना के उद्देश्य से उसने सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता का
दृष्टिकोण अपना रखा था। उसके निमंत्रण पर गोवा से दो पादरी उसके दरबार में आए।
अकबर, शाहजहाँ और जहाँगीर के जमाने में ईसाई धर्मप्रचारकों
को कोई कठिनाई नहीं हुई। ‘दी जेसुइट एँड
दी ग्रेट मुगलस’ नामक किताब में सर एडवर्ड मेकलेगन ने लिखा है कि स्थानीय सूबेदारों
ने धर्मप्रचार में कभी बाधा नहीं डाली बल्कि वे कैथोलिक पादरियों का बड़ा आदर करते
थे।
यह वह समय था जब इंग्लैंड
में औद्योगिक क्रांति का परवान चढ़ रहा था। सन् 1600के
अंतिम दिन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का गठन किया गया जिसके प्रतिनिधि के रूप में
सर टामस रो जहाँगीर के दरबार में आया और सूरत में फैक्ट्री खोलने का फ़रमान पाने
में सफल हुआ। कंपनी की प्रारंभिक नीति ईसाई प्रचारकों को दूर रखने की थी। अँगरेज़
भारत में व्यापार करने के इरादे से आए थे लेकिन यहाँ की परिस्थिति और राजनीतिक
कमज़ोरियों का फ़ायदा उठाकर शासक बन बैठे।
उन्होंने भारत के उद्योग-धंधों को चौपट कर दिया। इस शोषण का
विरोध उन प्रोटेस्टेंट प्रचारकों ने किया जो डेनमार्क से भारत में ईसाई धर्म का
प्रचार करने तंजाबूर आए थे। जीगन बाल्गा और हेनरी प्लुचू नामंक दो पादरियों ने
दक्षिण भारत की सभी भाषाओं का अध्ययन किया। जीगन ने 1706 में
बाईबिल का तमिल भाषा में अनुवाद किया। भारतीय भाषाओं में बाइबिल का यह प्रथम
अनुवाद था। सन् 1712 में उन्होंने एक छापाखाना लगाया और
हिंदुस्तानी भाषा का व्याकरण प्रकाशित किया।
अठारहवीं शताब्दी में
फारसी राजदरबार में अपना रंग खो चुकी थी, ब्रजभाषा की शक्ति क्षीण
हो चुकी थी और मुसलमानों के बीच फारसी
मिश्रित शब्दों वाली खड़ीबोली
उर्दू जोर पकड़ चुकी थी। अब तक उत्तर भारत के अनेक स्थानों पर ईसाई मिशन स्थापित
हो चुके थे जिसमें आगरा, पटना, मुंगेर,
बनारस, मिर्जापुर व इलाहाबाद प्रमुख थे। सन् 1793
में कलकत्ता में विलियम कैरी के आगमन के बाद ईसाई धर्म प्रचार में
नया अध्याय प्रारंभ हुआ जिसमें स्थानीय भाषाओं में रचना करने को प्रमुख गतिविधि के
रूप में चिह्नित किया गया। विलियम कैरी के इस कार्य में समाज-सुधारक राजा राममोहन राय ने बड़ी मदद की। वैसे उनका उद्देश्य सती प्रथा,
बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं पर रोक लगाना था। लेकिन राममोहन राय के
अनुयायी कैरी के साथ उनकी मित्रता को संदेह की दृष्टि से देखने लगे। तब राममोहन
राय ने कहा कि डॉ. होरेल और डॉक्टर विल्सन जैसे मसीहियों ने
हिंदू शास्त्रों का गहन अध्ययन किया लेकिन इससे वे हिंदू तो नहीं बन गए।
बहरहाल स्थानीय भाषा में
धर्म-प्रचार करने की बाध्यता के कारण ईसाई मिशनरियों
ने हिंदी भाषा और व्याकरण के क्षेत्र में विशेष ध्यान दिया। इस दिशा में 1704
में कार्य प्रारंभ हुआ। इसके पीछे मूल उद्देश्य था विदेशों से
आनेवाले मिशनरिरयों को हिंदी सिखाने में मदद मिले और साथ ही प्रशासन चलाने में
शासकों की समझ बढ़ाई जाए। लेकिन इस तात्कालिक कारणों के अलावा आध्यात्मिक कारण भी
थे जिन पर शोधकर्ताओं का ध्यान कम गया है।
पाश्चात्य जगत में यूरोपीय
पुनर्जागरण का काल नवचेतना के नवयुग के प्रारंभ का काल था। इस काल में दार्शनिक
चिंतन चर्च और धर्मगुरुओं के प्रभाव से मुक्त होकर साधारणजन विशेषतः विज्ञान की
ताकिंकता और इहलौकिकता से प्रभावित विद्धत जगत के बीच आया । इस काल की एक विशेष
उपलब्धि यह है कि यूरोप में पहली बार ईश्वर विषयक चिंतन और दार्शनिक चिंतन को अलग-अलग करके देखने की कोशिशें हुई। चौदहवीं शताब्दी में दांते की ‘डिवाइन
कॉमेडी’ प्रकाशित होने के बाद ईसाई धर्म-प्रचारकों में ‘पाप’
और ‘मुक्ति’ पर पुनः बहस छिड़ गई। सोलहवीं सदी के प्रारंभ में धर्म-सुधार आंदोलन ने प्रोटेस्टेंट धर्म को जन्म दिया । दांते के बाद जॉन
मिल्टन (1608-1674) की ‘पैराडाइस लॉस्ट’ से ‘चचुनने की स्वतंत्रता’ के सिद्धांत पर बहस
चली। क्या हव्वा ने बाग में फल अपनी मर्जी से खाया और क्या आदम ने हव्वा के अनुरोध
पर स्वविवेक से निर्णय लिया था। यह प्रश्न यूरोप में बुद्धिजीवियों और धर्म-प्रचारकों के बीच चर्चा का विषय बनने लगे। इसी बीच ईसाई जगत में जोन
काल्विन (1509-1564) के नियतिवाद-कि सब
कुछ पूर्व सुनिश्चित है-काफ़ी जोर पकड़ने लगा। उसने यह
प्रचारित किया कि आदिपुरुष आदम के पतन के बाद-सिवाय के कुछ
चुनिंदा लोगों के-अन्यों के लिए मुक्ति संभव नहीं है। इस
नियतिवादी ईसाई विचारधारा से यूरोप में बड़ी निराशा फैली लेकिन काल्विन का प्रभाव
फ्रांस, इंग्लैड, स्कॉटलैंड, नीदरलैंड और जिनेवा में बढ़ता गया। उधर मार्टिन लूवर (1483-1546) का प्रभाव भी बढ़ रहा था। सन् 1555 तक जर्मनी
प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक प्रभाव वाले क्षत्रों में बैंट चुका था और यह प्रवृत्ति
पूरे यूरोप में फैलन लगी थी। ईसाइयत के इस दोनों धड़ों में अब यूरोप ही नहीं बल्कि
अन्य भू-भागों में भी प्रतिस्पर्धा होने लगी। उपनिवेशवादी
संघर्ष भी इससे अछूता न रहा।
इस संदर्भ में मुक्ति या
उद्धार के लिए क्या किया जाना चाहिए अथवा क्या किसी मार्ग से मुक्ति संभव है ये भी
चर्चा का विषय बना। मिल्टन ने ‘पैराडाइस लॉस्ट’ में ईश्वर और शैतान के बीच युद्ध
का बखान करते हुए कुछ प्रश्न उठाए। जैसे, शैतान बेलजुबेब और उसके
विद्रोही साथी परिश्ते अपनी हार का बदला कैसे लेंगे ? क्या वे
पुनः युद्ध करेंगे या फिर ईश्वर की सृष्टि में नवनिर्मित मानव को भ्रष्ट कर ईश्वर
को लज्जित कर बदला लेंगे ? यदि मानव का पतन पूर्व नियोजित न
होकर शैतान द्वारा रचित षड्यंत्र या फिर मानव की स्वयं स्वतंत्र इच्छा का परिणाम
था तो फिर मानव को ‘मोक्ष’ कैसे मिलेगा ? आदम और हव्वा द्वारा प्रथम संभोग
के बाद उन्हें कौन बचायेगा। जहाँ दांते ने अंतिम पुरस्कार और दंड का संघर्ष बताया
वहीं मिल्टन ने मानव द्वारा स्वतंत्र निर्णय लेन की क्षमता को लेकर मानव की
परीक्षा और ज्ञान से उत्पन्न दुविधा को झेलते हुए दुविधा का वर्णन किया। मिल्टन की
कृति ‘पैराडाइस रिगेंड’ (स्वर्ग की पुनः प्राप्ति) इसी का परिणाम थी। इन प्रश्नों को लेकर यूरोप के इवेंजेलिक्स समाज के मन
में एक अजीब-सी झटपटाहट थी। तो ईसा को मुक्तिदाता का अवतार
किस रूप में बताया जाए जो सभी को स्वीकार्य हो। इस समय तक यूरोप में अरबी और फारसी
ग्रंथों से अनूदित सामग्री के आधार पर भी भारतवर्ष की छवि पहचानी जाती थी। काल्विन
के नियतिवाद के प्रत्युत्तर में एक जोरदार आध्यात्मिक अपील वाले दर्शन की तलाश
ईसाई प्रचारकों को थी जो कि ‘नई आत्माओं’
को नष्ट होने से बचाने के लिए उपनिवेशों में धर्मप्रचार कर रहे थे। यही समय था जब
उन्हें वेदों और उपनिषदों में वर्णित
अच्छाई और बुराई-देवताओं को और असुरों के संग्राम, अमृत मंथन और स्वर्ग-नरक की हिंदू कल्पना और मोक्ष
पाने के माध्यमों को जानने की तीव्र आवश्यता महसूस हुई। नए भूभागों में धर्म-प्रचार के लिए स्थानीय संस्कृति और भाषा को जानने की आवश्यकता को कोई नहीं
नकार सकता।
अँगरेज़ों के भारत आने का
मुख्य ध्येय व्यापार था न कि पुरातत्व विषयक खोज । और धर्म या संस्कृति की खोज तो
कतई नहीं। लेकिन धुन के पक्के इवेंजेलिकल पादरियों ने एक साधारण यात्री के रूप में
इन व्यापारियों के साथ यात्रा की और पश्चिम का ध्यान पूरब, विशेषकर भारत की ओर आकर्षित किया। सन 1630 में
दोपादरियों-हेनी और ओविंगटन ने ‘डिसप्ले ऑफ टू फिरंग सेक्ट
इन दे इस्ट इंडिया’ नामक किताब में पहली बार सूरत के हिंदू और पारसी समुदाय के
बारे में यूरोप को जानकारी दी। इसके बाद कई यात्रा-वृतांत
प्रकाशित हुए। इंग्लैड और जर्मनी के बुद्धिजीवियों में भारत के प्रति उत्सुकता
बढ़ने लगी।
प्रवासी
साहित्य - नई व्याकुलता और बेचैनी
प्रेमचंद स्कालर और
प्रेमचंद विशेषज्ञ श्री कमल किशोर गोयनका से रूबरू हुई अमेरिका की साहित्यकार सुधा
ओम ढींगरा, जो अपनी साहित्य की रचनात्मक दुनिया में कई
संस्थानों से जुड़ी रहकर हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार को
नियमित रूप से आगे बढ़ा रही हैं। उनकी बातचीत साहित्य की चौखट पार करती हुई सवालों
के दरमियान मुड़ी है प्रवासी साहित्य के भविष्य की ओर। प्रवासी साहित्य की इस नई
प्रवृत्ति की ओर ध्यान नहीं दिया गया है और उपेक्षा-भाव रखा
जा रहा है, इस सिलसिले में कुछ मान्यताएँ, कुछ शंकायें, कुछ समाधान जो श्री कमल किशोर ने अपनी
बातचीत के दौरान विस्तार से खुलासा किये हैं, उनको जानते
हुये उनका लगाव हिन्दी के प्रवासी साहित्य के प्रति जाहिर होता है। हिन्दी साहित्य
के प्रचार-प्रसार तथा प्रतिष्ठा के लिये वह जो प्रोत्साहन का
कार्य कर रहे हैं वह काबिले-तारीफ़ है।
गुफ्तगू की धारा में आते-जाते हिन्दी भाषा को लेकर जो साहित्य का सफ़र है इसी की राह की विडंबनाएँ,
अड़चनाएँ, उपेक्षाएँ पढ़ते हुये जहाँ मुझे
हैरानी हुई, वहीं ख़ुशी भी हुई। हैरानी इसलिये हुई यह जानकर
कि साहित्य का मूल्याँकन करने वाले अपनी विचारधारा, अपनी सोच
से समीक्षात्मक टिप्पणियों से यह जतलाते हैं कि प्रवासी साहित्य तो साहित्य ही
नहीं है और अगर है तो वह आधुनिकता से शून्य है। ख़ुशी इस सोच की प्रस्तुति से हुई
कि श्री कमल किशोर जी की मान्यता एक नहीं अनेक विचारधाराओं से स्पष्टीकरण देती है
कि हिन्दी का प्रवासी साहित्य हिन्दी का ही साहित्य है, जो
परदेश में रचा गया है।
हिन्दी हमारे भारत देश की
राष्ट्रभाषा के पहले हमारी मातृभाषा भी है जो आदान-प्रदान का
माध्यम है, हर क्षेत्र में, घरों में,
स्कूल-कालेज में, कई
कार्यशालाओं में, जहाँ के कर्मचारी अँगरेज़ी भाषा से ज़्यादा
परिचित नहीं हैं। बात भाषा की है- हिन्दी भाषा की, कोई भी साहित्य जो हिन्दी में रचा है या रचा जा रहा है वह हिन्दी का
साहित्य ही है, अन्यथा कुछ नहीं, साहित्य
की धारायें तो अपनी-अपनी विचारधाराओं की उपज हैं। जिस किसी
भाषा में एक रचनाकार कलम के ज़रिये साहित्य कला को प्रस्तुत करेगा वह उसी भाषा का
साहित्य होगा। अगर सिंधी भाषा में लिखा गया कोई लेख, आलेख,
संस्मरण, कहानी, गीत या
ग़ज़ल - जो भी स्वरूप रचना का हो तो वह सिंधी साहित्य का
हिस्सा ही है, चाहे वह भारत में बैठकर लिखा गया हो या विदेश
में और वह बिल्कुल पत्रिकाओं और अख़बारों में छपता है क्योंकि सिंधी लेखक की रचना
उसकी मूलभाषा में है। कभी तो संपादकों की माँग रहती है कि कुछ प्रवास की रोजमर्रा
ज़िंदगी के बारे में, आचार-विचार के
बारे में, या वहाँ जो दिक्कतें, दुश्वारियाँ
सामने आती हैं उनके बारे में लिख भेजें।
कमल किशोर जी से मैं सहमत
हूँ, जिनका कहना है- प्रवासी
साहित्य हिन्दी का साहित्य है जिसका रंग-रूप, उसकी चेतना और संवेदना भारत के हिन्दी पाठकों के लिये नई वस्तु है,
एक नये भाव-बोध का साहित्य है, एक नई व्याकुलता और बेचैनी का साहित्य है जो हिन्दी साहित्य को अपनी
मौलिकता एवं नये साहित्य संसार से समृध्द करता है। इस प्रवासी साहित्य की बुनियाद
भारत-प्रेम तथा स्वदेश-परदेश के
द्वन्द्व पर टिकी है। साहित्य तो एक माध्यम है अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का,
समाज में एक-दूसरे के साथ जुड़ने का शंकाओं से
निकलकर समाधान पाने के रास्तों पर बढ़ने का।
यहाँ पर उनकी पारखी नज़र
और दूरदेशी को मान्यता देते हुये यही कह सकती हूँ कि उनके सुझाये हुये समाधान जो
प्रवासी हिन्दी साहित्य को हिन्दी की मुख्यधारा का अंग बना सके और इस बात को भी
उजागर कर सके कि साहित्य का उद्देश्य साहित्यिक ही है, राजनीतिक नहीं। अगर कोई दलित लेखक या उस साहित्य का शोध करने वाला दलितों
के बारे में, उनकी समस्याओं के बारे में, कुछ शंकाओं, समाधानों का विवरण एक राय के तौर पर
प्रस्तुत करता है तो वह दलित साहित्य ही हो जाता है और वह पूरे हक के साथ प्रकाशित
होता है और होना भी चाहिये। साहित्य राजनीति नहीं है। इस आधुनिक युग में जहाँ युवा
पीढ़ी अपनी पढ़ाई के उपरांत बाहर जाती है विकास के लिये तो भारत की वह संतान अपने
साथ भारतीय परम्पराएँ और संस्कृति भी ले जाती है, जिसे वह
अपनी आने वाली नस्ल को भी प्रदान करने की भरपूर चेष्टा में लगी हुई है। यह इस बात
का पुष्टीकरण है कि जैसे-जैसे अमेरिका में भारतीयों की
संख्या बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे हमारे कुछ कर्मठ हिन्दी
प्रेमी बड़ी लगन के साथ हिन्दी के प्रचार-प्रसार में तन-मन और धन से लगे हुये हैं। वह भारतीयता का जज़्बा अभी ज़िन्दा है जिसको
लेकर हिन्दी प्रेमी व्यक्तियों ने हिन्दी की कक्षाएँ शुरू की हैं। यह इन प्रवासी
भारतीयों का योगदान है जो निरंतर भारतीय संस्कृति को बनाए रखने में लगे हुये हैं।
आज अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती
है। भारतीय बच्चों को भाषा और संस्कृति सिखाने के लिये जगह-जगह भारतीय शालाएँ प्रारम्भ हुई हैं। लोग
साप्ताहिक कार्यक्रम के तहत मंदिरों में, घरों में या
सार्वजनिक स्थानों में बच्चों को हिन्दी पढ़ाने में लगे हुये हैं। अमेरिकी शिक्षा
विभाग का ध्यान भी इस ओर आकर्षित किया जा रहा है ताकि जर्मन, फ्रेंच, रूसी, चीनी और जापानी
भाषाओं की तरह प्रत्येक स्कूल में हिन्दुस्तानी भाषा भी पढ़ाई जाये। यह उन्हीं
प्रवासी हिन्दुस्तानियों की बदौलत, उनकी साहित्य निष्ठा की
एवज आज यू।एस।ए में हिन्दी भाषा और अनेक मातृभाषाओं के सीखने-सिखाने की हलचल शुरू हो चुकी है। अमेरिका विश्व के उन देशों में से है
जहाँ प्रवासी भारतीयों और भारतवंशियों की सबसे ज़्यादा उपस्थिति है, न्यूयार्क विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जहाँ भारतीय
मूल के वासी अपनी प्रतिभा लगन और मेहनत से बनाए हुए हैं। हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय
स्तर पर मान्यता मिल रही है उसका एक मूल कारण है प्रवासी भारतीय, जो भारत की संस्कृति को जोड़ने का महत्वपूर्ण प्रयास करती आ रहा है। इस
भाषा के विकास में अनिवासी भारतीयों तथा विद्वानों, लेखकों
और शिक्षकों का योगदान है। इससे ज़ाहिर है कि जो जन देश से परदेस में जा बसा है और
अपनी मात्रभाषा या राष्ट्रभाषा में साहित्य का स्रजन करता है, वह स्वदेशी साहित्य है, परदेसी नहीं। अपनी सोच से
खींची हुई अगर ये भाषाई रेखाएँ व उनकी हदों सरहदों की लकीरें मिटा दें तो यह साफ़
साफ़ नज़र आएगा कि अपने देश की भाषा में रचित साहित्य देश का है, क्योंकि हम भारतवासी हैं और भाषा बोलते और लिखते वक्त हमारी वाणी व लेखनी
द्वारा जाति के अध्याय का गौरव छलकता है, इस बात को नकारा
नहीं जा सकता। हम इस देश के वारिस है, यहाँ की संस्कृति के
वारिस हैं, अतिशयोक्ति न होगी कहने में में अँगरेज़ी माहौल
के बीच में हिंदी भाषा व उस स्स्क्रुति को बनाये रखने की दिशा में जो लगन व निश्चय
से काम कर रहे हैं वह काबिले तारीफ़ है। अँधेरों से एक सुरंग जिससे अपनी भाषा की
रोशनी की किरणें फैलकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उजाला प्रदान करने वाले साहित्य के
सेनानी है उन्हें नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता। भारतीय राष्ट्र की इमारत किसी
विदेशी भाषा की नींव पर नहीं रखी जा सकती। भारतीय भाषा को सीखने और सिखाने के इस
निष्फल प्रयास को अभिनंदन करते हुये यही कहा जा सकता है कि ये प्रवासी भारतीय
सैनिक की भांति अपने वतन से दूर, गर्दिशों से जूझते, मुश्किलों के बीच से भाषा की एक सुरंग खोद रहे हैं जहाँ पर भारतीय भाषा और
उस भारतीय संस्कृति को जीवंत रख कर ये सच्चे सिपाही इन्हीं संस्थाओं, शिक्षा घरों, विद्यालयों में तैनात अगर कुछ कर पा
रहे हैं तो एकमात्र, हाँ एकमात्र वह सिर्फ़ हिन्दुस्तान की
महिमा बढ़ा रहे हैं। अगर ऐसा न होता तो कौन पहचानता वहाँ पर हिन्दुस्तानियों को जो
अब प्रवासी कहलाये जा रहे हैं और जो साहित्य वहाँ रचा जा रहा है उसे प्रवासी
साहित्य से अलंकृत किया जा रहा है। हिन्दी साहित्य जहाँ भी लिखा जा रहा है देश में
हो चाहे परदेश में वह हिन्दी साहित्य ही है।
महात्मा गाँधी ने
विश्वग्राम का जो सपना देखते हुये कहा था- मैं नहीं चाहता कि मेरा घर
चारों ओर दीवारों से घिरा रहे। न मैं अपनी खिड़कियों को ही कसकर बंद रखना चाहता
हूँ। मैं तो सभी देशों की संस्कृति का अपने घर में बेरोक-टोक
संचार चाहता हूँ। आज विज्ञान के प्रसारित ज्ञान के एवज़ में इंटरनेट के द्वारा
विश्व जुड़ता हुआ नज़र आता है। अपनी सारी भौगोलिक सीमाएँ तोड़कर एक 'विश्वग्राम' को साकार स्वरूप देकर। द्वितीय विश्व
हिन्दी सम्मेलन मारिशस में प्रस्तुत डॉ. ओदोलेन स्मेकल के
भाषण के एक अंश में हिन्दी-राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता
के संदर्भ में कहा था- मेरी दृष्टि में जो स्वदेशी सज्जन
अपनी मातृभाषा या किसी अपनी मूल भारतीय भाषा की अवहेलना करके किसी एक विदेशी भाषा
का प्रयोग प्रात: से रात्रि तक दिनों दिन करता है, वह अपने देश में स्वदेशी नहीं, परदेशी है।
हिन्दी की न केवल भौगोलिक
परन्तु भाषागत सीमाएँ वास्तव में असीम हैं। इस सत्य के आइने में यह विचारधारा
सरासर अनुचित है कि जो लेखक प्रवास में, देश से परे रहकर अपनी
मातृभाषा में या राष्ट्रभाषा हिन्दी में लिखते हैं तो वह साहित्य 'प्रवासी' है। देश के वासी क्या वतन से दूर रहकर अपने
देश के वासी नहीं रहते? क्या वे परदेशी हो जाते हैं? आज इसी बात को लेकर यह सवाल मन में उभरकर आता है कि अन्य भाषाओं की बात तो
दूर है, पर विदेश में लिखी हुई हिन्दी भाषा के साहित्य को
अपने देश के हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा का अंग भी माना जाता है या नहीं? हिन्दी का साहित्य और प्रवासी साहित्य एक है या नहीं? हालाँकि इस बात में कोई शक नहीं कि हिन्दी के प्रवासी साहित्य का रंग-रूप, उसकी चेतना और संवेदना भारत के हिन्दी पाठकों
के लिये नई वस्तु है। ऐसा साहित्य जो अपनी मौलिकता एवं नये साहित्य संसार से
हिन्दी साहित्य को समृध्द करता है।
कहानी संग्रह 'प्रवासी आवाज़' के प्रवेश पन्नों में डॉ. कमल किशोर गोयनका का यह अंश इस बात की ओर बखूबी इशारा कर रहा है कि
अमेरिका में रचा हुआ यह संकलन हिन्दी की मुख्यधारा का अंग बनेगा। उनके शब्दों में-
अमेरिका के 44 प्रवासी हिन्दी कहानीकारों की
कहानियों का यह संकलन निश्चय ही हिन्दी में नई संवेदना, नया
परिवेश, नयी जीवनदृष्टि तथा नये सरोकारों का द्वार खोलेगा।
संकलन के बहाने राजी सेठ का कहती हैं- हिन्दी साहित्य लेखन
की मुख्यधारा में वृध्दि, समृध्दि और विश्वास का वातावरण
पैदा करेगी। इतना ही नहीं, प्रवासी भारतीयों के इस योगदान के
चलते सांस्कृतिक राष्ट्रीय धरातल पर उनका स्थान भी सुरक्षित करेगी। हिन्दी लेखन की
मुख्यधारा को ऐसी समावेशिता के लिये कृतज्ञ होना होगा। अंजना का भी, जिसके यत्नों ने इन सब मुद्दों को विचारणीय और दर्शनीय धरातल पर ला दिया
है।
यह सब उदाहरण अपने संकेतों
से स्पष्टीकरण कर रहे हैं कि साहित्य राजनीति नहीं है जिसके हम उसे किसी धारा के
तहत रखें, परखें या नामकरण दें। साहित्य साहित्य है और कुछ
नहीं। अगर भारत के हिन्दी साहित्य को एक धारा के अंतर्गत शामिल किया जाता है और
प्रवासी हिन्दी साहित्य धारा को एक और धारा के अंतर्गत रखा जाता है तो फिर भाषा के
विकास में उतनी गति नहीं आ पायेगी। भारत में लिखे जाने वाले हिन्दी साहित्य को
अन्य देशों तक और अन्य देशों में साहित्यकारों की हिन्दी रचनाओं को भारत तक
पहुँचाना एक महत्वपूर्ण कार्य है। आज जब हिन्दी राष्ट्र भाषा से विश्वभाषा बनने जा
रही है उस राष्ट्रभाषा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी साहित्यकारों का बड़ा हाथ
होगा, चाहे वो भारत देश का हो या भारत के बाहर रहने वाले
प्रवासी भारतीय। जब राष्ट्रभाषा में इतना संगठन, इतना
एकात्मपन न होगा कि वह एक भाषा में बात कर सके तो विचार करने योग्य बात है कि उस
भाषा का प्रचार कैसे बढ़े। 1934, 29 दिसम्बर को भारत हिन्दी
प्रचार सभा मद्रास में एक भाषण में मुंशी प्रेमचंद के विचार 'राष्ट्रभाषा और उसकी समस्याओं' के तहत कुछ यूँ थे-
मैं जो कुछ अनाप-शनाप बकूँ, उसकी खूब तारीफ कीजिये, उसमें जो अर्थ न हो, वह पैदा कीजिये, उसमें अध्यात्म के और साहित्य के
तत्व खोज निकालिये... तमिलनाडू हिन्दी अकादमी के अध्यक्ष डा॰
बालशौरि रेड्डी का इस विषय पर एक सिद्धाँतमय कथन है "हिंदी
का साहित्य जहाँ भी रचा गया हो और जिसने भी रचा हो, चाहे वह
जंगलों में बैठ कर लिखा गया हो या ख़लिहानों में, देश में हो
या विदेश में, लिखने वाला कोई आदिवासी हो, या अमेरिका के भव्य भवन का रहवासी, वर्ण, जाति धर्म और वर्ग की सोच से परे, अपनी अनुभूतियों
को अगर हिंदी भाषा में एक कलात्मक स्वरूप देता है, तो वह
लेखक हिन्दी भाषा में लिखने वाला कलमकार होता है और उसका रचा साहित्य हिन्दी का ही
साहित्य है।"
हिन्दी का साहित्य विश्व
में, हिन्दी की अंतरराष्ट्रीयता को बुलंदी के साथ
स्थापित कर रहा है, इस बात में कोई शक नहीं,चाहे वह मारिशस का हिन्दी साहित्य हो या अमेरिका का हिन्दी साहित्य,
मास्को का हो या चीन का, सूरीनाम का हो या
इंग्लैंड का। हिन्दी के साहित्य की हर धारा उसी में मिलकर एक राष्ट्रीय भाषा
हिन्दी की सरिता जब बनकर बहेगी तब ही वह सैलाब अंतरराष्ट्रीय धरातल पर अपना स्थान
पा सकेगा।
विश्व में हिन्दी फिर पहले
स्थान पर
विश्व में सर्वाधिक बोली
जाने वाली भाषा के संबंध में मैने 1981 शोध कार्य करना शुरू
किया था। इस शोध की पहली रिपोर्ट भारत सरकार की राजभाषा पत्रिका में 1997 में प्रकाशित हुई थी। इस शोध अध्ययन को 2005 में
अद्यतन किया गया। इस रिपोर्ट का सार विश्व
के 185 देशों में दैनिक समाचार पत्रों के इन्टरनेट
संस्करणों में प्रकाशित हुआ। इस रिपोर्ट को पुनः 2007 में
अद्यतन किया गया है। अद्यतन शोध का संक्षिप्त सार प्रस्तुत हैः यद्यपि अब तक सभी यह मानते आए हैं कि मंदारिन
जानने वाले विश्व में सबसे अधिक हैं। परन्तु चीन में तो बड़ी संख्या में चीनी में
व विश्व के अनेक भागों में बोली जाती है। यहाँ तक कि मंदारिन के नाम पर तो उत्तरी
चीन एवं दक्षिणी चीन के मतभेद साफ़ नज़र आते हैं। तिब्बती, कैंटोनीज,
फुकीन, हक्का जैसी उप भाषाओं का वर्चस्व चीन
में व इसके बाहर देखा जा सकता है। चीनी भाषा की लिपि समान होने पर विश्व के
भाषाविदों ने समस्त चीनी बोलियों, उपबोलियों व चीनी भाषा
परिवार को जोड़ कर इसकी संख्या 1990 में लगभग 730 आँकी जो 2005 में बढ़कर लगभग 900 मिलियन हुई व आज 2007 तक 900 मिलियन
है। 2005 के बाद इसमें मामूली वृद्धि हुई है।
हिन्दी के विषय में आरंभ
से ही विदेशियों की धारणा ग़लत रही है। संसार भर के भाषाविद हिन्दी के नाम पर
सिर्फ़ खड़ी बोली को ही हिन्दी मानते आए हैं जबकि यह सच नहीं है। हिन्दी की
बोलियाँ भी इसमें शामिल की जानी चाहिए थी। साथ ही विदेशियों ने उर्दू को अलग भाषा
के रूप में गिना है। यह तो बिल्कुल ही ग़लत है। उर्दू अलग से भाषा नहीं है बल्कि
हिन्दी का ही एक रूप है। संसार का कोई भी भाषाविज्ञानी उर्दू को अलग कैसे मान सकता
है ? क्योंकि भाषा तो भाषिक संरचना से वर्गीकृत होती
है। उर्दू का अलग से व्याकरण नहीं है। इसमें अधिकांश शब्द व व्याकरण व्यवस्था
हिन्दी की ही है। अतः हिन्दी से इसे अलग भाषा मानना क़तई युक्तिसंगत नहीं है।
हिन्दी की बोलियाँ और उर्दू बोलने वालों की संख्या मिला देने से विश्व में हिंन्दी
जानने वाले 1023 मिलियन से अधिक हैं जबकि मंदारिन जानने वाले
केवल 900 मिलियन से थोड़ा-सा अधिक हैं।
अर्थात् मंदारिन जानने वालों से हिन्दी जानने वाले 123 मिलियन
अधिक हैं। अतः यह सिद्ध हो गया है कि हिन्दी जानने वाले विश्व में सर्वाधिक हैं।
हाल ही एक रिपोर्ट में यह दर्शाया गया था कि विश्व में चीनी भाषी एक अरब हैं।
अर्थात् 1000 मिलियन है। यह संख्या सभी प्रकार की चीनी भाषा
परिवार की भाषाओं को जोड़ कर निकली गई है। यदि हिन्दी में आर्य भाषा परिवार की
भाषाओं को मिला दें तथा अन्य भाषाओं में प्रयुक्त हिन्दी शब्दों की समानता को
देखकर संख्या निकालें तो यह संख्या विश्व में 2 अरब अर्थात् (दो हज़ार मिलियन) होगी। इसके लिए में एक छोटा-सा उदाहरण देना चाहूँगा । मलय भाषा को ही लें, यह
भाषा दक्षिणी थाईलैंड, फिलिपीन्स, सिंगापुर,
पूर्वी सुमात्रा, बोर्नियो, नीदरलैंड्स, ब्रूनेई आदि देशों में बोली जाती है। इसमें
थोड़ा-सा परिवर्तन करके इसे ही भाषा इंडोनेशिया कहा जाता है
जो इंडोनेशिया की भी राजभाषा है। यह भाषा हिन्दी से काफ़ी मिलती-जुलती है। लेकिन इसे हिन्दी परिवार से बहुत दूर मलाया पोलिनेशियन परिवार
में गिना जाता है। आर्य भाषा परिवार में नहीं। जबकि हिन्दी से साम्य होने के कारण
इसे हिन्दी में शामिल होने चाहिए था।
मलय भाषा में अधिकांश शब्द
हिन्दी और संस्कृत के हैं जैसे-पादरी, मनुष्य, लिम्मू (निम्बू),
बूमि (भूमि), दीवान,
दुक (दुख) कापल, हर्फ, गुरू, महा, मुफलिस, जबाब, हद, फलसफा, जंदला (जंगला), पाव, रोटी, फीता, ऊंट, तौलिया, सूका, संसार, वक्त, माफ, समामत आदि हज़ारों शब्द हैं। इसी प्रकार कहीं-कहीं
तो वाक्य रचना भी समान है जैसे आपका नामा (मलय भाषा) आपका नाम (हिन्द
भाषा)? अपा खबर (क्या खबर) आदि । इसी प्रकार कम्बोडिया की खमेर भाषा में 3000 से
अधिक संस्कृत एवं भारतीय भाषाओं के शब्द हैं। इन भाषाओं को तथा भारत की अन्य
भाषाओं के विदेशी रूपों को सम्मिलित करने से इसकी संख्या कितनी होगी आप स्वयं
अनुमान लगा सकते हैं।
मेरा मानना है कि भाषा
भाषियों की संख्या की गणना में एक ही मानदण्ड होना चाहिए। चीनी भाषा (मंदारिन) की गणना करते हुए चीनी लिपि में लिखी गई
चीन की सभी भाषाओं को शामिल किया गया है जबकि वे बोलियाँ बोलने वाले दूसरी बोली को
समझ नहीं पाते हैं। फिर भी इन्हें मंदारिन में शामिल किया गया है, जबकि हिन्दी की बिल्कुल समान बोलियों, जैसे ब्रज,
अवधी, भोजपुरी आदि को भी हिन्दी बोलने वालों
की सख्या से हटा दिया गया है। इस प्रकार विश्व के प्रकाशनों में हिन्दी भाषियों की
संख्या सिर्फ़ 3 या 4 करोड़ ही दर्शाई
जाती है जबकि हिन्दी जानने वाले विश्व में एक अरब से अधिक हैं। अर्थात् एक हज़ार
तेईस मिलियन चीनी भाषियों से एक सौ तेइस मिलियन अधिक। सबसे आश्चर्य की बात तो यह
है कि कुछ भारतीय प्रकाशनों में भी विदेशी विद्वानों की गणना के आधार पर ही
आँकड़ें छापे जा रहे हैं।
मेरे इस शोध का सारांश सन्
2005
में जब भारतीय व विदेशी समाचार पत्रों के इन्टरनेट संस्करणों के
माध्यम से विश्व के 185 देशों में प्रकाशित हुआ तो कई
पोर्टलों ने इस पर इन्टरनेट चैट कराया व पाठकों के विचार आमंत्रित किए। संसार में
किसी भी विद्वान के छपने के बाद कुछ विद्वानों ने कुछ देशों के अद्यतन आँकड़े
उपलब्ध कराए, मैं उनका आभारी हूँ। इस आँकड़ों को शोध रिपोर्ट
2007 में शामिल कर लिया गया है। इस आधार पर जून 2007 तक के आँकड़ों के आधार पर भी हिन्दी भाषा, विश्व में
सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा सिद्ध हुई है।
आज भारत और विश्व के कई
प्रकाशन इसे मानने लगे हैं व हिन्दी को प्रथम स्थान पर दिखाने लगे हैं। परन्तु अभी
बहुत कुछ किया जाना बाक़ी हैं। मेरा अनुरोध है कि संसार के हर प्रकाशन में हिन्दी
जानने वालों की संख्या 1023 मिलियन दर्शायी जानी
चाहिए व मंदारिन की संख्या 900 मिलियन। इस तथ्य को ध्यान में
रखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ को अविलम्ब हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकृत
भाषा का दर्ज़ा दे देना चाहिए।
अतः प्रत्येक हिन्दी
प्रेमी से मेरा आग्रह है कि हिन्दी को विश्व की सर्वाधित बोली समझी जाने वाली भाषा
के रूप में स्थापित करने में योगदान दें।
विज्ञान
और प्रौद्योगिकी का विकास एवं हिंदी
अर्थव्यवस्था के
भूमंडलीकरण और उदारीकरण के दबाव के कारण आज प्रौद्योगिकी की आवश्यकता बढ़ गई है। वास्तव में प्रौद्योगिकीय
गतिविधियों को बनाए रखने के लिए तथा सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का सामना
करने के लिए भारतीय जन मानस में वैज्ञानिक चेतना का विकास करना अनिवार्य है। देश
की सम्पर्क भाषा हिन्दी में वैज्ञानिक तथा प्रौद्योगिकीय ज्ञान के सतत विकास और
प्रसार के लिए वैज्ञानिक भाषा के रूप में हिन्दी विकास के लिए वैज्ञानिकों एवं
हिन्दी भाषा के विशेषज्ञों को मिलकर निरन्तर कार्य करना होगा।
हिन्दी में विज्ञान
सम्बन्धी साहित्य का लेखन-कार्य भारतेन्दु काल से
प्रारम्भ हो गया था। 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही इस
दिशा में यत्र तत्र हुए प्रयास बिखरे हुए मिलते हैं। स्कूल बुक सोसायटी, आगरा (सन् 1847), साइंटिफिक
सोसायटी, अलीगढ़ (सन् 1862), काशी नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी (सन् 1898), गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार
(सन् 1900) विज्ञान परिषद, इलाहाबाद (सन् 1913), वैज्ञानिक
तथा तकनीकी शब्दावली मण्डल (सन् 1950), वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग (सन् 1961)
आदि ने वैज्ञानिक साहित्य के निर्माण में उल्लेखनीय कार्य किया । इस
वैज्ञानिक साहित्य-लेखन की भाषिक स्थिति के सम्बन्ध में
अपेक्षित विचार सम्भव नहीं हो सका। हिन्दी में जो पुस्तकें वैज्ञानिक विषयों पर
उच्चतर माध्यमिक एवं इन्टरमीडिएट कक्षा के विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर लिखी
गई हैं उनकी संख्या बहुत अधिक है। उनकी भाषा-शैली भी
अपेक्षाकृत सहज एवं बोधगम्य है । किन्तु जिन ग्रन्थों का निर्माण मानक ग्रन्थ
अनुवाद योजना के अंतर्गत किया गया है उनकी भाषा-शैली में
अस्पष्टता, अस्वाभाविकता तथा अँगरेज़ी के वाक्य-विन्यासों की छाया की बहुलता है।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी
के विकास के अनुरूप हिन्दी भाषा के विकास में नए आयाम जोड़ने की आवश्यकता है जिससे
सुगम एवं बोधगम्य तकनीकी लेखन की शैली का तीव्र गति से अधिकाधिक विकास हो सके, जन-सामान्य के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी को सुबोध
और सम्प्रेषणीय बनाया जा सके, उसमें जिज्ञासा की प्रवृत्ति
स्वाभाविक रूप से उत्प्रेरित की जा सके। विश्लेषणात्मक चिंतन शक्ति का विकास किया
जा सके और प्रकृति की प्रक्रियाओं के बीच समन्वय स्थापित करने की दृष्टि पैदा की
जा सके। साथ ही, बच्चों और किशोरों की कल्पनाशीलता को
आकर्षित किया जा सके तथा वयस्कों को रोचक ढंग से समुचित ज्ञान उपलब्ध हो सके।
विद्वानों को वैज्ञानिक
लेखन की विषय-वस्तु और उसके प्रस्तुतीकरण, सरलीकरण, मानकीकरण, शैलीकरण
आदि पर विचार-विमर्श करना चाहिए, एक
स्पष्ट नीति बनानी चाहिए। वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी के विभिन्न विषयों के
ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद की चर्चा होती है। मैं यह स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूँ
कि वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी के विभिन्न विषयों के ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद
करते समय भाषा जटिल, बोझिल एवं दुरूह हो जाती है। अनुवादित
ग्रन्थ को पढ़ते समय उसे समझने के लिए यदि मूल ग्रन्थ को पढ़ने की आवश्यकता का
अनुभव हो तो ऐसे अनुवाद की क्या सार्थकता।
इसकी अपेक्षा वैज्ञानिक
एवं प्रौद्योगिकी के विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ विद्वानों के हिन्दी में
व्याख्यानों की योजना बननी चाहिए। विद्वानों को अँगरेज़ी के तकनीकी शब्दों के
प्रयोग की छूट मिलनी चाहिए। इन व्याख्यानों को टेपाँकित किया जाना चाहिए। इस
सामग्री को आधार बनाकर ग्रन्थों के निर्माण की योजना बनाई जानी चाहिए। इसके लिए
भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय एवं विज्ञान एवं अभियांत्रिकी अनुसंधान
परिषद् को मिलकर कार्यक्रम का मार्ग प्रशस्त करने की पहल करनी चाहिए।
विश्वविद्यालयों, आई.आई.टी. संस्थानों, राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं तथा उद्योगों के
हिन्दी जानने वाले विख्यात वैज्ञानिकों एवं तकनीकी विशेषज्ञों की श्रम-शक्ति एवं निष्ठा के समन्वयन से यह कार्य अपेक्षाकृत कम धनराशि के नियोजन
तथा कम समय में सम्पन्न हो सकता है।
इसी पध्दति, विधि एवं प्रक्रिया से भिन्न-भिन्न विषयों के विश्व
कोष निर्मित हो सकते हैं तथा इन्टरनेट पर सम्पूर्ण सामग्री सुलभ करायी जा सकती है।
एक बार यह कार्य हिन्दी में निष्पन्न हो गया तो उसी पध्दति, विधि
एवं प्रक्रिया से भारत की अन्य आधुनिक भाषाओं में भी यह कार्य सम्पन्न कराना सहज
होगा।
हमें विज्ञान की अद्यतन
एवं जटिल संकल्पनाओं को हिन्दी में यथासंभव सरल ढंग से व्यक्त करने की विधि विकसित
करनी चाहिए। वैज्ञानिकों संकल्पनाओं को किस प्रकार सुबोध बनाने का प्रयास किया जाए; विज्ञान एवं तकनीक से संबंधित विभिन्न शाखाओं के तथ्यों, विचारों एवं संकल्पनाओं को हिन्दी भाषा की प्रकृति के अनुरूप सहज रूप में
प्रस्तुत किया जाए - इन दृष्टियों से विचार-विमर्श आवश्यक है। वैज्ञानिक साहित्य की विषय-वस्तु
को हिन्दी भाषा के प्रयोजनमूलक और व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करना
आवश्यक है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास और प्रसार के लिए तदनुरूप भाषिक
विकास भी आवश्यक है।
विश्व
हिंदी सचिवालय : एक नज़र में
हिंदी का एक अंतरराष्ट्रीय
भाषा के रूप में संवर्धन करने और विश्व हिंदी सम्मेलनों के आयोजन को संस्थागत
व्यवस्था प्रदानकरने के उद्देश्य से विश्व हिंदी सचिवालय की स्थापना का निर्णय
लिया गया और इसकी संकल्पना 1975 में नागपुर में आयोजित
प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान की गई । जब मॉरीशस के तत्कालीन प्रधानमंत्री
सर शिव सागर रामगुलाम ने मॉरीशस में विश्व हिंदी सचिवालय स्थापित करने का प्रस्ताव
किया । हिन्दी का एक अन्तर्राष्ट्रीय
भाषा के रूप में संवर्द्धन करने और विश्व हिन्दी सम्मेलनों के आयोजन को संस्थागत
व्यवस्था प्रदान करने के उद्देश्य से विश्व हिन्दी सचिवालय की स्थापना का निर्णय
लिया गया । इसकी संकल्पना 1975 में नागपुर में आयोजित प्रथम
विश्व हिन्दी सम्मेलन के दौरान की गई जब मॉरीशस के तत्कालीन प्रधानमंत्री सर शिव
सागर रामगुलाम ने मॉरीशस में विश्व हिन्दी सचिवालय स्थापित करने का प्रस्ताव किया
। इस संकल्पना को मूर्त रूप देने के लिए भारत और मॉरीशस की सरकारों के बीच 20
अगस्त 1999 को एक समझौता ज्ञापन सम्पन्न किया
गया । 12 नवम्बर 2002 को मॉरीशस के
मंत्रिमंडल द्वारा विश्व हिन्दी सचिवालय अधिनियम पारित किया गया और भारत सरकार तथा
मॉरीशस की सरकार के बीच 21 नवम्बर 2001 को एक द्विपक्षीय करार सम्पन्न किया गया । विश्व हिन्दी सचिवालय की एक
शासी परिषद (गवर्निंग कौंसिल) तथा एक
कार्यकारी मंडल (एग्ज़िक्यूटिव बोर्ड) है
। विश्व हिन्दी सचिवालय के महासचिव इसके मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं ।
शासी परिषद विश्व हिन्दी
सचिवालय की शासी परिषद में भारत तथा मॉरीशस, दोनों पक्षों, की ओर से 5-5 सदस्य हैं जो निम्नानुसार है
गैर-सरकारी सदस्य
शासी
परिषद की बैठक
शासी परिषद की प्रथम बैठक, भारत के विदेश मंत्री श्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में 28 जनवरी 2008 को नई दिल्ली में आयोजित की गई । बैठक
में भारत की ओर से श्री प्रणब मुखर्जी, विदेश मंत्री;
श्री अर्जुन सिंह, मानव संसाधन विकास मंत्री;
श्रीमती अम्बिका सोनी, संस्कृति मंत्री,
डॉ. रत्नाकर पांडेय, डॉ.
आर पी मिश्र, नामित उपमहासचिव, विश्व हिन्दी सचिवालय तथा विदेश मंत्रालय, मानव
संसाधन मंत्रालय, संस्कृति मंत्रालय के अधिकारीगण उपस्थित थे
। मॉरीशस की ओर से श्री डी. गोखुल, शिक्षा
एवं मानव संसाधन मंत्री, श्री एम.एम
डल्लु, विदेश कार्य, अन्तर्राष्ट्रीय
व्यापार एवं सहयोग मंत्री, श्री मुकेश्वर चुन्नी, मॉरीशस के उच्चायुक्त, डॉ.(श्रीमती)
विनोद बाला अरूण, महासचिव, विश्व हिन्दी सचिवालय, श्री अजामिल माताबदल, श्री सत्यदेव टेंगर तथा भारत में मॉरीशस के उच्चायोग से अन्य अधिकारी
उपस्थित थे ।
कार्यकारी
मंडल
सदस्य
सचिव, विदेश मंत्रालय, स्थायी सचिव, विदेश
कार्य, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार एवं सहयोग मंत्रालय
सचिव, मानव संसाधन विकास मंत्रालय
स्थायी सचिव, शिक्षा एवं मानव संसाधन मंत्रालय
सचिव, संस्कृति मंत्रालय
स्थायी सचिव, कला एवं संस्कृति मंत्रालय
मॉरिशस में भारत का
उच्चायुक्त
स्थायी सचिव, प्रधानमंत्री कार्यालय, मॉरीशस
कार्यकारी
मंडल की बैठक
कार्यकारी मंडल की प्रथम
बैठक श्री आर पी अग्रवाल, सचिव (उच्चतर शिक्षा), मानव संसाधन विकास मंत्रालय,
भारत सरकार की अध्यक्षता में 24-25 मई को
मॉरीशस में आयोजित की गई । बैठक में भारत की ओर से श्री आर पी अग्रवाल, सचिव(उच्चतर शिक्षा), मानव
संसाधन मंत्रालय, श्री वीपी हरन, संयुक्त
सचिव, विदेश मंत्रालय, श्री आर सी
मिश्र, संयुक्त सचिव, संस्कृति
मंत्रालय, श्री बी जयशंकर, मॉरीशस में
भारत के उच्चायुक्त उपस्थित थे और मॉरीशस की ओर से श्री एस रेगन, स्थायी सचिव, शिक्षा एवं मानव संसाधन मंत्रालय,
श्री एन के बल्लाह, स्थायी सचिव, कला एवं संस्कृति मंत्रालय, श्री वी चितू, प्रथम सचिव, विदेश कार्य मंत्रालय, श्रीमती एस बहादुर, सहायक सचिव, प्रधानमंत्री कार्यालय तथा डॉ.(श्रीमती) विनोद बाला अरूण, महासचिव, विश्व
हिन्दी सचिवालय उपस्थित थे ।
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