Thursday, 29 December 2016
भारतीय भाषा आपनाओ अभियान की आठवीं बैठक संपन्न
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India
Wednesday, 21 December 2016
राष्ट्रभाषा : मनन, मंथन, मंतव्य - हिंदी कल्याण न्यास भाग 5
देवनागरी
'विश्व-हिंदी' के साथ-साथ 'विश्व-नागरी' भी चले। इस काम
में देर करने की आवश्यकता नहीं है। कुछ लोगों का विचार है कि इस दिशा में हमको
धीरे-धीरे आगे बढ़ना होगा, जिससे कुछ
भय मालूम न हो। मैं ऐसा नहीं मानता। देवनागरी लिपि, हिंदी की
ही लिपि न मानी जाए। वह 'संस्कृत लिपि' है- ऐसा माना जाए। संस्कृत, मराठी,
हिंदी, पालि, मागधी,
अर्धमागधी, नेपाली- इन
सभी भाषाओं की लिपि देवनागरी है। जब संस्कृत विश्व-भाषा बनने
की योग्यता रखती है, तो उसकी लिपि देवनागरी को 'विश्व-नागरी' के रूप में
फैलाने में किसी बाधा का भय क्यों होना चाहिए? विश्व की तमाम
भाषाएं यदि देवनागरी अथवा विश्व-नागरी लिपि में भी लिखी जाने
लगें, तो 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का स्वप्न शीघ्र साकार होगा।
संस्कृत भाषा के लगभग 3000 शब्द इंग्लिश में कुछ बदले
हुए रूप में विद्यमान हैं। मदर (माता), फादर (पिता), ब्रदर (भ्रातृ), नोज (नासा) आदि। नी (जानु)- 'नी' में 'के' का उच्चार नहीं होता।
वास्तव में वह 'क्नी' है। अंग्रेजी के
अनेक शब्द धातु संस्कृत से बने हैं।
जापानी भाषा में भी लगभग 300-350 संस्कृत शब्द मुझे
मिले हैं। अपने कोश में मैंने उन पर चिन्ह लगा दिया है। अन्य कई भाषाओं में भी
संस्कृत शब्दों की कमी नहीं है। इसलिए जब हम हिंदी को 'विश्व
हिंदी' बनाने की कल्पना करते हैं, तब
देवनागरी लिपि को भी 'विश्व नागरी' बनाने
की बात सोचना उचित ही माना जाएगा। (यह आलेख प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन के अवसर पर पढ़ा गया था । विनोबाजी
उक्त सम्मेलन में स्वयं उपस्थिति नहीं पो पाये थे सो उन्होंने इसे अपने संदेश के
रूप में भेजा था। )
समापन समारोह है, तो मन भारी है
(महादेवी वर्मा) आज समापन-समारोह
है। यानि आज जा रहे हैं तो मन भारी है। विदा अच्छी लगती नहीं है, लेकिन क्या करूं विदा में ही मुझे बोलना है। मैं प्रयाग की पुण्यभूमि से
आई हूं, जहां यमुना, गंगा में विलीन हो
जाती है। अंत:शरीरा सरस्वती अपना परिचय नहीं देती और रहती है
साथ, क्योंकि यह तो साक्षात् मिलनभूमि है और आज भी एक प्रकार
का पर्वस्थान है। तीर्थ है जिसमें हम सब मिले हैं।
देखिए, देश तो भिन्न हो सकते हैं जैसे फूल रंगों से भिन्न होते हैं। आकृति में
भिन्न होते हैं। परन्तु उनके सौरभ को मिलने से कोई रोक नहीं सकता। वह एक होता है।
इसी तरह हमारा स्नेह, हमारा सौहार्द्र, हमारी बंधुता एक है और इसी कारण विदेश से इतने बंधु आ गए हैं हमारे प्रेम
के कारण, हिन्दी प्रेम के कारण। उन सबका मैं अभिनंदन करती
हूं। उन सबको अपनी वंदना देती हूं।
भारत बड़ा राष्ट्र है और
उसके एक-एक भूखंड में एक-एक देश है,
लेकिन बड़े राष्ट्र को जोड़ने के लिए, एक रखने
के लिए, संवाद के लिए हमको एक भाषा चाहिए। बिना इसके नहीं
चलेगा। और वह भाषा हिन्दी हो सकती है। हिन्दी सच्चे अर्थ में भूमिजा है, वाटर वर्क्स नहीं है। वह दूब है जिसको लेकर हम संकल्प करते हैं। वास्तव
में हिन्दी की विशेषता देखकर ही उसे देश की राजभाषा का पद दिया गया था। अब संयोग
ऐसा हुआ है कि वह बेचारी वहीं है और अंग्रेजी प्रेत की तरह हमारे सिर पर सवार है।
और हमारा शासन और विचित्र है। वह कहता है भाषा को पहले समर्थ बनाओ। इससे अद्भुत
कुछ बात नहीं है। प्रयोग में बिना लाए कोई भाषा समर्थ कैसे होती है। भाषा का
समर्थन रूप प्रयोग में आने पर ही होता है। हमने क्या किया है कि घोड़े को गाड़ी के
पीछे बांध दिया है और कहते हैं गाड़ी चलेगी। वह कभी नहीं चलेगी। न सौ वर्ष,
न दो सौ वर्ष। कभी नहीं चलेगी। अब सब कहते हैं, अरे आपके पास तो साहित्य नहीं है। विज्ञान का ज्ञान जब हो जाएगा तब देखा
जाएगा। मैं आपको इतना बताती हूं कि हर विभाग के लिए इतनी पुस्तकें, इतनी सहायिकाएं छप चुकी है कि कोई भी अगर थोड़ा कष्ट उठाकर उनका प्रयोग
करना चाहे तो कर सकता है। लेकिन हमारी पुस्तकों को कोई देखता नहीं है।
देखिए, बैंकिंग का सारा काम, पारिभाषिक शब्दावली हमारे पास
है। न्याय कहता है सब कुछ हमारे पास है। डाकखाने का समय और कार्य सब है, लेकिन कौन देखे, उसको कोई देखता नहीं है। जाएं तो
देखिए कि वहां सब साहित्य है, विधि का सारा साहित्य है,
लेकिन टंकण नहीं है। टाइपराइटर नहीं है। अच्छा और देखेंगे। अंग्रेजी में निर्णय लिया
जाता है। हिन्दी में लिख सकता है, लेकिन नहीं लिखता है।
बेचारा जो न्यायालय में जाता है, वह वकील से हाथ जोड़ता हुआ
घूमता है, क्या हुआ, वकील साहब हारे या
जीते। कौन क्या बोला- वह नहीं जानता और किसी कार्यालय में दो-चार जो हिन्दी में काम करते हैं, वह पूरी
वर्णव्यवस्था में मानों शूद्र हैं। सब उनको हीन मानते हैं, छोटा
मानते हैं। जितनी प्रतियोगिताओं की परीक्षाएं होती हैं, प्रश्नपत्र
अंग्रेजी में आते हैं। आप हिन्दी में काम कीजिए, परीक्षा
अंग्रेजी में दीजिए।
तो वास्तव में अंग्रेजी के
प्रेत से हमें मुक्ति कैसे मिले। आपके संकल्प से हो सकती है। जो आपको मैं इतना ही
कहती हूं कि आप यह न सोचिए कि भाषा समर्थ नहीं है। समर्थ है वह। उसके ज्ञान, विज्ञान और जितनी विधियां है, आप देखा कीजिए-
हरेक तहखाने में भरे हुए हैं, तल भरे हुए हैं।
कोई देखता नहीं क्या होता है उनका। और आप सोचिए कि एक विधि पर वह पुस्तक लिखता है।
बेचारा मर-मरके लिखता है, भूखा मरके
लिखता है और वह आपके कटघरे में बंद है, बाहर आती नहीं है। तो
एक बात यह भी मान लीजिए। हमको लेखा-जोखा बताइए कितनी
पुस्तकें कितने पारिभाषिक शब्द छप चुके हैं। एक बार आप लेखा-जोखा
ले लीजिए। मेरे पास तो बहुत हैं। क्योंकि जो लिखता है, रोता-धोता मेरे पास भेज देता है। मैं कुछ नहीं कर सकती हूं। लेकिन आपस में कहती
हूं कि इसको समारोह मत मानिए। मेले में आदमी खो जाता है। एक दिन बहुत अच्छा समारोह
करते हैं। आप इतने लोग बैठे हैं, अगर आप संकल्प लें तो कल
क्या नहीं हो सकता। लेकिन हम नहीं करते हैं।
तो वास्तव में आज आपके
संकल्प का दिन है। मैं यह नहीं मानती कि जब सब विदा हो जाएंगे तो आप कुछ काम
करेंगे। करेंगे नहीं कल से खो जाएंगे। और हो सकता है, सात वर्षों में फिर मिलें। यह सात वर्ष का जो अंतर है, वह बहुत भयंकर है। जब हिन्दी को पंद्रह वर्ष के लिए रोका था कि पंद्रह
वर्षों के बाद यह भाषा राजभाषा हो जाएगी, तो मैंने टंडनजी से
कहा था कि पंद्रह वर्ष तक इसको आप फांसी पर लटकाएंगे और जब उतारेंगे तो कहेंगे आधी
मर गई। तो आज ही कीजिए। छोटे-छोटे देशों में देखिए, उन्होंने अपनी भाषा को दूसरे दिन राष्ट्रभाषा बना दिया है।
हम हिन्दी प्रदेशों में भी
राजभाषा नहीं बना पाए हैं। और तमाशा है कि उन्होंने हमें उर्दू से उलझा दिया है
जिसका कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि हिन्दी- उर्दू दोनों एक भाषा है,
वाक्य-विन्यास एक है। व्याकरण एक है, सर्वनाम एक हैं, ग्रंथ एक हैं, एक ही भाषा है। हम संस्कृत लाते हैं, वे फारसी के
शब्द लाते हैं। इतना ही अंतर है। अंतर लिपि में है। तो हमारी लिपि नागरी लिपि अधिक
व्याकरण सम्मत हैं। विज्ञान के साथ है और विदेशी नहीं है। आपकी उसी ब्राह्मी के
क्रम से आई है। वास्तव में हमने लिपि को लेकर के उलझन फिर उत्पन्न कर दी है। देहात
में जाकर देखिए तो जो हिन्दू बोलता है, वही भाषा मुस्लिम
बोलता है। अब उन्होंने कहा कि नहीं दो भाषाएं हैं। अब इसी को लेकर लड़ाई है।
वास्तव में अगर युद्ध ही चलेगा, रात-दिन
विवाद चलेगा, विद्रोह चलेगा तो यह देश गूंगा रहेगा और आप
जानते हैं न जो गूंगे हैं, वे बहरे भी होते हैं। न वह सुनेगा,
न वह बोलेगा। तो जो सुनेगा, बोलेगा नहीं तो
आपका इतने बड़े देश का क्या होगा। इसको कौन बांधेगा, कैसे
बांधेगा। तो आज जब आप सब इकट्ठे हुए हैं, देख के मन बड़ा
प्रसन्न हो जाता है। लेकिन जब शक्ति उसकी देखते हैं, तो लगता
है कि अब क्या होगा। यह तो आज सब जगह से बादल घिरा और चला गया बरस के।
तो वास्तव में आपको एक
व्रत लेना ही होगा कि हमको अपने राष्ट्र को वाणी देना है, यानी अपने को ही देना है। कोई विचार कोई जनतंत्र बिना भाषा के नहीं आता।
तो मुझे जब बहुत आपने अभिनंदन, वंदन दिया तो मैंने कहा कि भई
देवता को आपने बाहर कर दिया है और पुजारी को आप अभिनंदन दे रहे हैं। तो हम जो
हिन्दी के नाम से बैठे हैं, अगर हिन्दी को लाते नहीं हैं और
हिन्दी ऐसे ही रखते हैं, तो हिन्दी के नाम से एक एकत्र होकर
क्या करेंगे और जो विदेश के बंधु आए हैं, वे बेचारे मन ही मन
क्या सोचेंगे।
हम अक्सर ऐसी बात करते हैं, राष्ट्रसंघ की बात करते हैं उधर की बातें करते हैं। बिना अंतरराष्ट्रीय
हुए हम जी नहीं सकते और राष्ट्रीय होने की हमें चिंता नहीं है। तो यह तो ऐसे ही
हुआ कि पेड़ को आप काट दीजिए और फिर संगमरमर के चबूतरे पर रोप दीजिए।
अंतरराष्ट्रीय वही हो सकती है जिसकी राष्ट्र में जड़ें हों। जिसके राष्ट्र में जड़
ही नहीं है, वह क्या अंतरराष्ट्रीय होगा।
आप ही सोचिए कि आप तो
राष्ट्रसंघ में उधार लेकर अंग्रेजी में बोलेंगे। आप कहेंगे राष्ट्रसंघ में कि भारत
की भाषा अंग्रेजी है। बताइए लोग नहीं हतोत्साहित होंगे? कहते होंगे इतना विशाल देश और इतना हिन्दी का सौहार्द्र और इसके पास बोलने
के लिए कुछ है ही नहीं। यह समुद्र पार से उधार लाकर बोलता है। अब तो ऐसी अच्छी
अंग्रेजी नहीं जानता। बल्कि गलत-सलत बोलता है। तो मैं कहती
हूं यही हीनता की भावना है। इसको दूर करना चाहिए। पहले इसको आप कर सकते हैं।
जिस दिन आप संकल्प करेंगे, उसी दिन कर देंगे। आपमें असीम शक्ति है। लेकिन आपके पास कोई स्वप्न न हो,
कोई आदर्श न हो, आपके पास राष्ट्र की चेतना न
हो, तो राष्ट्र कैसे बनेगा। कुछ नहीं बनेगा। बाहर के लोग आ
जाते हैं, और आ करके बड़े उदास हो जाते हैं। स्नेह के मारे आ
जाते हैं, हमारे सौहार्द्र के नाते आ जाते हैं और आके यहां
बड़े उदास हो जाते हैं। जब मुझे बोलते हैं, तो यहीं बातें
कहते हैं कि हम क्या करें। हमसे तो कोई हिन्दी में बोलता ही नहीं। जहां बात करते
हैं, वहां अंग्रेजी ही आ जाती है। हम लोग आज तक अपनी उस हीनता
की भावना को नहीं भूले हैं।
इतने साल हो गए हैं, अभी हमारी हीनता नहीं गई और जब तक नहीं जाती तब तक राष्ट्र अपने वर्चस्व
को नहीं पाता। अस्मिता को नहीं पाता।
विश्व में उसकी वाणी को
कैसे कौन सुनेगा, जब उसके पास कोई भाषा नहीं है। यह कहना कि जब
इसमें विज्ञान लिखा जाएगा, जब इसमें ज्ञान लिखा जाएगा,
तब वह हो जाएगा। आप देखिए तो क्या इसमें लिखा गया है। किसी ने देखा
है, कोई पढ़ता है, हिन्दी की पुस्तक।
कभी नहीं पढ़ता। आप देखिए जरा, तो आप जब जानते ही नहीं हैं,
तो वही मेरी बात आ जाती है कि गाड़ी के पीछे आप घोड़े को बांध
दीजिए। गाड़ी चलेगी? कभी चलेगी नहीं। मैं यही कहती हूं कि यह
समय का संकेत है। अधिक बात करना भी कठिन है। आप इतने थक गए हैं, मैं स्वयं भी थक गई हूं। लेकिन आपसे कहती हूं कि एक व्रत आपको लेना है।
संकल्प आपको लेना है। मंदिर की मूर्ति अगर खंडित हो जाती है तो उसे हम फेंक देते
हैं, पूजा नहीं करते। परन्तु हम अपने टूट संकल्पों को लेकर
पूजा कर रहे हें। हमें दूसरा संकल्प लेना चाहिए और सोचना चाहिए कि अगर हमारे
राष्ट्र को वाणी नहीं मिलती हैं, तो हमारा वर्चस्व नहीं है,
हमारी अस्मिता नहीं है। फिर हमारा ज्ञान-विज्ञान
के लेखन में भी मन नहीं लगेगा। हम लोग आए हैं, विश्वविद्यालयों
से पढ़कर लेकिन अगर हम अंग्रेजी में कविता करते तो? वास्तव
में वाणी मनुष्य का परिचय है। वाणी राष्ट्र का परिचय है। उसमें उसका व्यक्तित्व
है। आप अपने व्यक्तित्व को खंडित मत कीजिए। आपके संकल्प ऐसे हों, आपके स्वप्न ऐसे हों, आपके आदर्श ऐसे हों कि आप
राष्ट्र को जोड़ सकें। देखिए, सूर्य के ताप से धरती में बड़ी
दरारें पड़ जाती हैं, लेकिन एक बादल जब बरस जाता है तो सब
दरारें मिट जाती हैं। ऐसा ही हमारा स्नेह हों, हमारा
सौहार्द्र हो, हमारी ऐसी ही बंधुता हो कि हम सब लोगों को
मिला सकें और अन्य देशों में भी हमारी बात सुनी जा सके। अब आपको मैं अधिक थकाऊंगी
नहीं। आपसे केवल इतना कहती हूं कि यह विदा की बेला है। परन्तु इसको मत मानिए।
स्नेह में कोई विदा होती है? लेकिन हमारा सौहार्द्र, हमारा स्नेह, आप ले जाएंगे। हम एक-दूसरे के निकट रहेंगे। मैं समझती हूं अगर आप निश्चय करें तो एक साल में
हमको वाणी मिल जाएगी। अगर हम कुछ भी नहीं करेंगे तो हमें अनंत काल तक वह नहीं
मिलेगी। इन शब्दों के साथ मैं आपको अपना प्रणाम देती हूं। धन्यवाद। (तीसरे विश्व हिंदी
सम्मेलन के समापन समारोह में महादेवीजी मुख्य अतिथि थीं।)
परदेशों में हिन्दी का
बढता प्रभाव
आज दुनिया का कौन-सा कोना है, जहाँ भारतीय न हों । अनिवासी भारतीय
सपूर्ण विश्व में फैले हुए हैं । दुनिया के डेढ सौ से अधिक देशों में दो करोड़ से
अधिक भारतीयों का बोलबाला है। अधिकांश प्रवासी भारतीय आर्थिक रूप से समृध्द हैं । 1999
में मशीन ट्रांसलेशन शिखर बैठक में में टोकियो विश्वद्यालय के प्रो.
होजुमि तनाका ने जो भाषाई आंकड़े प्रस्तुत किए थे, उनके अनुसार विश्व में चीनी भाषा बोलने वालों का स्थान प्रथम और हिन्दी का
द्वितीय तथा अंग्रेजी का तृतीय है। हिन्दी
विश्व के सर्वाधिक आबादी वाले दूसरे देश भारत की प्रमुख भाषा है तथा फारसी लिपि
में लिखी जाने वाली भाषा उर्दू हिन्दी की ही एक अन्य शैली है । लिखने की बात छोड़
दें तो हिन्दी और उर्दू में कोई विशेष अंतर नहीं रह जाता सिवाय इसके कि उर्दू में
अरबी, फारसी, तुर्की आदि शब्दों का
बहुलता से इस्तेमाल होता है । एक ही भाषा
के दो रूपों को हिन्दी और उर्दू, अलग-अलग
नाम देना अंग्रेजों की कूटनीति का एक हिस्सा था । विदेशों में चालीस से अधिक देशों के 600
से अधिक विश्वविद्यालयों और स्कूलों में हिन्दी पढार्ऌ जा रही हैं ।
भारत से बाहर जिन देशों में हिन्दी का बोलने, लिखने-पढने तथा अध्ययन और अध्यापक की दृष्टि से प्रयोग होता है, उन्हें हम इन वर्गों में बांट सकते हैं - 1. जहां
भारतीय मूल के लोग अधिक संख्या में रहते हैं, जैसे - पाकिस्तान, नेपाल, भूटान,
बंगलादेश, म्यांमार, श्रीलंका
और मालदीव आदि । 2. भारतीय संस्कृति से प्रभावित दक्षिण
पूर्वी एशियाई देश, जैसे- इंडोनेशिया,
मलेशया, थाईलैंड, चीन,
मंगोलिया, कोरिया तथा जापान आदि । 3. जहां हिन्दी को विश्व की आधुनिक
भाषा के रूप में पढाया जाता है अमेरिका, आस्ट्रेलिया,
कनाडा और यूरोप क देश। 4. अरब और अन्य इस्लामी
देश, जैसे- संयुक्त अरब अमरीरात (दुबई) अफगानिस्तान, कतर,
मिस्र, उजबेकिस्तान, कज़ाकिस्तान,
तुर्कमेनिस्तान आदि ।
मॉरिशस
यहां भारतीय मूल के लोगों
की जनसंख्या कुल आबादी की आधे से अधिक है । मॉरिशस की राजभाषा अंग्रेजी है और
फ्रेंच की लोकाप्रेम है । फ्रेंच के बाद हिन्दी ही एक ऐसी महत्वपूर्ण एवं सशक्त
भाषा है जिसमें पत्र-पत्रिकाओं तथा साहित्य का प्रकाशन होता है ।
मॉरिशस में भारतीय प्रवासियों का विधिवत आगमन चीनी उद्योग के बचाव तथा उसके विकास
हेतु 1834 में शुरू हुआ था । यूरोप में चीनी की बढती मांग को
ध्यान में रखकर तत्कालीन प्रशासकों ने भारतीयों को सशर्त यहां लाकर स्थायी रूप से
बसने का प्रावधान किया । मॉरिशस में भारतीय प्रवासी वर्ष 1834 से बंधुआ मजूदरों के रूप में आने लगे थे । ये लोग अधिकांशत: भारत के बिहार प्रदेश के छपरा, आरा और उत्तर प्रदेश के
गाजीपुर, बलिया, गोंडा आदि जिलों के थे
। भारतीय श्रमिकों ने विकट परिस्थितियों से गुजरते हुए भी अपनी संस्कृति एवं भाषा
का परित्याग नहीं किया । अपने प्रवासकाल में महात्मा गांधी जब 1901 में मॉरिशस आए तो उन्होंने भारतीयों को शिक्षा तथा राजनीतिक क्षेत्रों में
सक्रिय भाग लेने के लिए प्रेरित किया । हिन्दी प्रचार कार्य में हिंदुस्तानी पत्र
का योगदान महत्वपूर्ण है । धार्मिक तथा
सामाजिक संस्थाओं के उदय होने से यहां हिन्दी को व्यापक बल मिला । वर्ष 1935
में भारतीय आगमन शताब्दी समारोह मनाया गया । उस समय यहां से हिन्दी
के कई समाचारपत्र प्रकाशित होते थे, जिनमें आर्यवीर, जागृति आदि उल्लेखनीय है । वर्ष 1941 में हिन्दी
प्रचारिणी सभा ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन तथा हिन्दी पुस्तक प्रदर्शनी का आयोजन
किया । 1943 में हिन्दू महायज्ञ का सफल आयोजन किया गया। 1948
में जनता के प्रकाशन के माध्यम से दर्जनों नवोदित हिन्दी लेखक
साहित्य सृजन क्षेत्र में आए । वर्ष 1950 में यहां
हिन्दी अध्यापकों का प्रशिक्षण प्रारंभ हुआ और
1954 से भारतीय भाषाओं की विधिवत पढार्ऌ शुरू
हुई। मॉरिशस सरकार ने स्कूलों में छठी
कक्षा तक हिन्दी पढाने की व्यवस्था की । वर्ष 1961 में
मॉरिशस हिन्दी लेखक संघ की स्थापना हुई । यह संघ प्रतिवर्ष साहित्यिक
प्रतियोगिताओं, कवि सम्मेलनों, साहित्यकारों
की जयंतियां आदि का आयोजन करता है । मॉरिशस में हिन्दी भाषा का स्तर ऊंचा उठाने
में हिन्दी प्रचारिणी सभा का योगदान अतुलनीय है । यह संस्था हिन्दी साहित्य
सम्मेलन (प्रयाग) की परीक्षाओं का
प्रमुख केन्द्र है । औपनिवेशिक शोषण और संकट के समय 1914 में
हिन्दुस्तानी, 1920 में टाइम्स और 1924 में मॉरिशस मित्र दैनिक पत्र थे । आज मॉरिशस में वसंत, रिमझिम, पंकज, आक्रोश, इन्द्रधनुष, जनवाणी एवं आर्योदय हिन्दी में प्रकाशित
होते हैं । वर्ष 2001 में विश्व हिन्दी सचिवालय की स्थापना
भी मॉरिशस में हो चुकी है ।
फिजी
फिजी दक्षिण प्रशांत
महासागर में स्थित 322 द्वीपों का समूह है । यहा के मूल निवासी
काईबीती है । देश की आबादी लगभग 8 लाख है । इसमें 50 प्रतिशत काईबीती, 44 प्रतिशत भारतीय तथा 6 प्रतिशत अन्य समुदाय के हैं। 5
मई 1871 में प्रथम जहाज लिओनीदास ने 471
भारतीयों को लेकर फिजी में प्रवेश किया था। गिरमिट प्रथा के अंतर्गत
आए प्रवासी भारतीयों ने फिजी देश को जहां अपना खून-पसीना
बहाकर आबाद किया वहीं हिन्दी भाषा की ज्योति भी प्रज्जवलित की जो आज भी फिजी में
अपना प्रकाश फैला रही है। फिजी की
संस्कृति एक सामासिक संस्कृति है, जिसमें काईबीती, भारतीय, आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड के निवासी है ।
इनकी भाषा काईबीती (फीजियन) हिन्दी तथा
अंग्रेजी है । फिजी का भारतीय समुदाय हिन्दी में कहानी, कविताएं
लिखता है । हिन्दी प्रेमी लेखकों ने हिन्दी समिति तथा हिन्दी केन्द्र बनाए हैं जो
वहां के प्रतिष्ठित लेखकों के निर्देशन में
गोष्ठियां, सभा तथा प्रतियोगिताएं आयोजित करते हैं ।
इनमें हिन्दी कार्यक्रम होते हैं कवि और लेखक अपनी रचनाएं सुनाते हैं । फिजी में औपचारिक एवं मानक हिन्दी का प्रयोग
पाठशाला के अलावा शादी, पूजन, सभा आदि
के अवसरों पर होता है । शिक्षा विभाग द्वारा संचालित सभी बाह्य परीक्षाओं में
हिन्दी एक विषय के रूप में पढार्ऌ जाती है । फिजी के संविधान में हिन्दी भाषा को
मान्यता प्राप्त है । कोई भी व्यक्ति सरकारी कामकाज,अदालत
तथा संसद में भी हिन्दी भाषा का प्रयोग कर सकता है। हिन्दी के प्रचार-प्रसार में पत्र-पत्रिकाओं तथा रेडियो कारगर माध्यम
हैं । हिन्दी के प्रचार-प्रसार में फिजी हिन्दी साहित्य
समिति वर्ष 1957 से बहुमूल्य योगदान दे रही है । इस संस्था
का मुख्य उद्देश्य है हिन्दी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति को
बढावा देना । फिजी में हिन्दी प्रगति के पथ पर है तथा इसका भविष्य उज्ज्वल है
।
नेपाल
भौगोलिक और राजनीतिक
दृष्टि से भारत और नेपाल संप्रभु राष्ट्र है, दोनों देशों के बीच
पौराणिक काल से संबंध चला आ रहा है, खुली सीमाएं, तीज-ज्यौहार, धार्मिक पर्व-समारोह तथा इन्हें मानाने की शैली और पध्दति की समानता के अतिरिक्त नेपाल
में हिन्दी-प्रेम हिन्दी के प्रचार-प्रसार
के लिए काफी है । नेपाली भाषा हिन्दी भाषी पाठकों लिए सुबोध है । यदि इसमें कोई
अंतर है तो लिप्यांतरण का है । प्रचीन
काल में नेपाली में संस्कृत की प्रधानता थी ।
हिन्दी और नेपाली दोनों भाषाओं में संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों की
प्रचुरता और इनके उदार प्रयोग के अतिरिक्त नेपाली भाषा में अरबी, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी एवं कई
अन्य विदेशी शब्दों का हिन्दी के समान ही प्रयोग हिन्दी और नेपाली भाषी जनता को एक
दूसरे की भाषा समझने में सहायक रहा है ।
प्रारंभिक दिनों में नेपाल के तराई क्षेत्रों में स्कूलों में तो शिक्षा का
माध्यम हिन्दी बना । काठमांडू से हिन्दी में पत्र-पत्रिका का
प्रकाशन हाता है । प्रख्यात नेपाली लेखक, कहानीकार एवं
उपन्यासकार डा. भवानी भिक्षु ने तो अपने लेखन कार्य का
श्रीगणेश हिन्दी से ही किया । गिरीश वल्लभ जोशी, रूद्रराज
पांडे, मोहन बहादुर मल्ल, हृदयचंद्र
सिंह प्रधान आदि की एक न एक कृति हिन्दी में ही है ।
श्रीलंका
श्रीलंका में भारतीय रस्म-रिवाज, धार्मिक कहानियां जैसे जातक कथा का भंडार आज
भी सुरक्षित है । श्रीलंका की संस्कृति वही है जो भारत की है । वहां हिन्दी का
प्रचार अत्यंत सुचारू एवं सुव्यवस्थित ढंग से होता रहता है । फिल्म प्रदर्शन,
भाषण विचार गोष्ठी आदि का आयोजन होता रहता है । भारत से आई पत्र-पत्रिकाओं जैसे बाल भारती, चंदा मामा, सरिता आदि श्रीलंका में बड़े चाव से पढी ज़ाती हैं । श्रीलंका रेडियो पर
भारतीय शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम प्रसारित होते हैं । वहां विश्वविद्यालय में
हिन्दी पढाई जा रही है ।
यू.ए.ई.
संयुक्त अरब अमीरात देश की
पहचान सिटी ऑफ गोल्ड दुबई से है । यूएई
में एफ. एम. रेडियो के कम से कम
तीन ऐसे चैनल हैं, जहां आप चौबीसों घंटे नए अथवा पुराने
हिन्दी फिल्मों के गीत सुन सकते हैं । दुबई में पिछले अनेक वर्षों से इंडो-पाक मुशायरे का आयोजन होता रहा है, जिसमें हिन्दुस्तान
और पाकिस्तान के चुनिंदा कवि और शायर भाग लेते रहे हैं । हिन्दी के क्षेत्र में
खाड़ी देशों की एक बड़ी उपलब्धि है, दो हिन्दी (नेट) पत्रिकाएं जो विश्व में प्रतिमाह 6,000 से अधिक लोगों द्वारा 120 देशों में पढी ज़ाती हैं ।
अभिव्यक्ति व अनुभूति (इंटरनेट) पर भी
उपलब्ध हैं । इन पत्रिकाओं की संरचना सही अर्थों में अंतर्राष्ट्रीय है क्योंकि
इनका प्रकाशन और संपादन संयुक्त अरब अमीरात से, टंकण कुवैत
से, साहित्य संयोजन इलाहाबाद से और योजना व प्रबंधन कनाडा से
होता है ।
ब्रिटेनवासियों ने हिन्दी
के प्रति बहुत पहले से रुचि लेनी आरंभ कर दी थी । गिलक्राइस्ट, फोवर्स-प्लेट्स, मोनियर
विलियम्स, केलाग होर्ली, शोलबर्ग
ग्राहमवेली तथा ग्रियर्सन जैसे विद्वानों ने हिन्दीकोष व्याकरण और भाषिक विवेचन के
ग्रंथ लिखे हैं । लंदन, कैंब्रिज तथा यार्क विश्वविद्यालयों
में हिन्दी पठन-पाठन की व्यवस्था है। यहां से प्रवासिनी,
अमरदीप तथा भारत भवन जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन होता है । बीबीसी से
हिन्दी कार्यक्रम प्रसारित होते हैं ।
संयुक्त राज्य अमेरिका में
येन विश्वविद्यालय में 1815 से ही हिन्दी की
व्यवस्था है । वहां आज 30 से अधिक विश्वविद्यालयों तथा अनेक
स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा हिन्दी में पाठ्यक्रम आयोजित किए जाते हैं । 1875
में कैलाग ने हिन्दी भाषा का व्याकरण तैयार किया था । अमरीका से
हिन्दी जगत प्रकाशित होती है ।
रूस में हिन्दी पुस्तकों
का जितना अनुवाद हुआ है, उतना शायद ही विश्व में
किसी भाषा का हुआ हो। वारान्निकोव ने तुलसी के रामचरितमानस का अनुवाद किया था ।
त्रिनीडाड एवं टोबेगो में भारतीय मूल की आबादी 45 प्रतिशत से
अधिक है । युनिवर्सिटी ऑफ वेस्टइंडीज में हिन्दी पीठ स्थापित की गई है । यहां से
हिन्दी निधि स्वर पत्रिका का प्रकाशन होता है । गुयाना में 51 प्रतिशत से अधिक लोग भारतीय मूल के हैं। यहां विश्वविद्यालयों में बी.ए. स्तर पर हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन
की व्यवस्था की गई है । पाकिस्तान की राजभाषा उर्दू है, जो
हिन्दी का ही एक रूप है । मात्र लिपि में ही अंतर दिखाई देता है । मालदीव की भाषा
दीवेही भारोपीय परिवार की भाषा है । यह हिन्दी से मिलती-जुलती
भाषा है । फ्रांस, इटली, स्वीडन,
आस्ट्रिया, नार्वे, डेनमार्क
तथा स्विटजरलैंड, जर्मन, रोमानिया,
बल्गारिया और हंगरी के विश्वविद्यालयों में हिन्दी के पठन-पाठन की व्यवस्था है ।
इस प्रकार हिन्दी आज भारत
में ही नहीं बल्कि विश्व के विराट फलक पर अपने अस्तित्व को आकार दे रही है । आज
हिन्दी विश्व भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त करने की ओर अग्रसर है । अब तक भारत
और भारत के बाहर सात विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित हो चुके हैं । पिछले सात सम्मेलन
क्रमश: नागपुर(1975),
मॉरीशस (1976), नई दिल्ली (1983), मॉरीशस (1993), त्रिनिडाड एंड टोबेगो (1996),
लंदन (1999), सूरीनाम (2003) में हुए थे । अगला विश्व हिन्दी सम्मेलन 2007 में
न्यूयार्क में होगा । इसके अतिरिक्त विदेश मंत्रालय क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन का
भी आयोजन करता रहा है। अभी तक ये सम्मेलन ऑस्ट्रेलिया और अबूधाबी में फरवरी,
2006 तथा तोक्यो में जुलाई 2006 में किए गए थे
। अभी हाल ही में शुक्रवार, 18 अगस्त, 2006 को विदेश मंत्रालय ने हिन्दी वेबसाइट का शुभारंभ किया है। यह वेबसाइट
माइक्रोसॉपऊट विंडोज प्रोग्राम और यूनीकोड पर आधारित है । इसे देखने के लिए कोई
फॉन्ट डाउनलोड करने की आवश्यकता नहीं है।
वर्तमान में आर्थिक
उदारीकरण के युग में बहुराष्ट्रीय देशों की कंपनियों ने अपने देशों (अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस,
जर्मनी, चीन आदि) के
शासकों पर दबाव बढाना शुरू कर दिया है ताकि वहां हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार तेजी से बढे और हिन्दी जानने वाले एशियाई देशों में वे अपना
व्यापार उनकी भाषा में सुगमता से कर सकें । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी की
प्रगति यदि इसी प्रकार होती रही तो वह दिन दूर नहीं जब हिन्दी संयुक्त राष्ट्र संघ
में एक अधिकारिक रूप हासिल कर लेगी ।
Suggestion:
Why not create a Federation For Simple
National Language Script,India?
In the past India has spent so much time
in creating new language scripts under different rulers.Now in the internet age
some languages may disappear if they are not simplified or made translatable.
As you know that Gujarati Script is a
simplified version of Devnagari script without horizontal lines. In fact it’s a
developed Devnagari script where you write comparatively lesser times lifting
the pen.
Sure,Hindi is spoken by more peoples in
India but it’s not technical and very cluttered language with horizontal
lines.It’s writings in newspapers look like an old Sanskrit language.If you
look all Indian languages in Google Transliteration IME you will find Gujarati
script very simple computer-usable language Script.Gujarati alphabet is very
very easy for foreigners to learn and practice.
We all know that Devnagari is not the
script of Hindi to begin with.Basically it is the script of
Sanskrit,unquestionably the language of India,not any region.
Sanskrit language used horizontal lines
for grammatical lengthy meaningful words.
Besides languages in a Devnagari script
which Indian old or current languages or world languages use horizontal lines
to make words more cluttered in appearance?Why draw lines if not needed?
As you know China has simplify it’s
language to make it computer usable.Also most of European countries and other
world countries use Roman Script for their national languages.
Think,Why most Hindi song lyrics are
written in English but not in Hindi?
People don’t mind learning Hindi but
India needs one easy Script for all languages and that’s Gujarati Script. But
let the people of India decide what they want.
Please do express your opinion about
this.
लेखक परिचय:
संजय भारद्वाज महान हिन्दीसेवी, समाजसेवी, हिन्दी-साहित्यकार
एवं संस्कृतिकर्मी हैं।
नाटक, कविता, आलेख, कहानी, समीक्षा की विधा में लेखन करने वाले संजय भारद्वाज की अकादमिक शिक्षा
विज्ञान एवं फार्मेसी के क्षेत्र में हुई पर आरंभ से ही हिंदी भाषा और साहित्य के प्रति
लगाव रहा।
१९९५ में उन्होंने हिंदी
आंदोलन की स्थापना की जो पुणे में भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों का सबसे बड़ा मंच
है। पुणे से प्रकाशित प्रथम हिन्दी पाक्षिक 'विश्वभाषा' का संपादन व प्रकाशन तथा अनेक अन्य पत्रिकाओं के विशेषांकों के अतिथि
संपादन के अतिरिक्त उन्होंने पुणे में हिंदी के स्तरीय रंगकर्म के लिए 'भूमिका कलामंच` की स्थापना की। वे अनेक कविसंमेलनों
का आयोजन, व्यवस्थापन व संचालन भी कर चुके हैं।
विभिन्न साहित्यिक, सांस्कृतिक पुरस्कारों से सम्मानित संजय विभिन्न स्तरों पर लेखन, दिग्दर्शन, अभिनय, वक्तृत्व,
शैक्षिक प्राविण्य, संयोजन फ़ीचर/ विज्ञापन/ धारावाहिक/ फिल्म,
के लेखन-दिग्दर्शन, अभिनय
व डबिंग के लिए भी जाने जाते हैं।
उनकी समाजसेवा में भी गहरी
रुचि है। फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों के रात्रि निवास के लिए 'रैन बसेरा' एवं निर्धनतम लोगों को रु. ५/- में अन्न उपलब्ध कराने के लिए 'अन्नपूर्णा' नामक योजनाओं पर भी वे काम कर रहे है।
संप्रति वे दो डॉक्युमेंट्री फिल्मों के लेखन-निर्देशन में
व्यस्त हैं।
राष्ट्रभाषा : मनन, मंथन, मंतव्य - हिंदी कल्याण न्यास भाग 4
विश्व
भाषा बनेगी हिंदी
राष्ट्रभाषा के रूप में
खुद को साबित करने के लिए आज वस्तुतः हिंदी को किसी सरकारी मुहर की जरूरत नहीं है।
उसके सहज और स्वाभाविक प्रसार ने उसे देश की राष्ट्रभाषा बना दिया है। वह अब सिर्फ
संपर्क भाषा नहीं है, इन सबसे बढ़कर वह आज बाजार की भाषा है, लेकिन हर 14 सितंबर को हिंदी दिवस के अवसर पर होने
वाले आयोजनों की भाषा पर गौर करें तो यूँ लगेगा जैसे हिंदी रसातल को जा रही है। यह
शोक और विलाप का वातावरण दरअसल उन लोगों ने पैदा किया है, जो
हिंदी की खाते तो हैं, पर उसकी शक्ति को नहीं पहचानते।
इसीलिए राष्ट्रभाषा के उत्थान और विकास के लिए संकल्प लेने का दिन ‘सामूहिक विलाप’
का पर्व बन गया है। कर्म और जीवन में मीलों की दूरी रखने वाला यह विलापवादी वर्ग
हिंदी की दयनीयता के ढोल तो खूब पीटता है, लेकिन अल्प समय
में हुई हिंदी की प्रगति के शिखर उसे नहीं दिखते।
अंग्रेजी के वर्चस्ववाद को
लेकर हिंदी भक्तों की चिंताएं कभी-कभी अतिरंजित रूप लेती
दिखती हैं। वे एक ऐसी भाषा से हिंदी की तुलना कर अपना दुख बढ़ा लेते हैं, जो वस्तुतः विश्व की संपर्क भाषा बन चुकी है और ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर उसमें लंबा और गंभीर कार्य हो चुका है।
अँगरेज़ी दरअसल एक प्रौढ़ हो चुकी भाषा है, जिसके पास आरंभ
से ही राजसत्ताओं का संरक्षण ही नहीं रहा वरन ज्ञान-चिंतन,
आविष्कारों तथा नई खोजों का मूल काम भी उसी भाषा में होता रहा।
हिंदी एक किशोर भाषा है, जिसके पास उसका कोई ऐसा अतीत नहीं
है, जो सत्ताओं के संरक्षण में फला-फूला
हो । आज भी ज्ञान-अनुसंधान के काम प्रायः हिंदी में नहीं हो
रहे हैं। उच्च शिक्षा का लगभग अध्ययन और
अध्यापन अँगरेज़ी में हो रहा है। दरअसल हिंदी की शक्ति यहाँ नहीं है, अँगरेज़ी से उसकी तुलना इसलिए भी नहीं की जानी चाहिए क्योकि हिंदी एक ऐसे
क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है, जो विश्व मानचित्र पर
अपने विस्तारवादी, उपनिवेशवादी चरित्र के लिए नहीं बल्कि
सहिष्णुता के लिए जाना जाने वाला क्षेत्र है। फिर भी आज हिंदी, दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आवादी द्वारा बोली जाने वाली भाषा है, क्या आप इस तथ्य पर गर्व नहीं कर सकते ? दरअसल
अँगरेज़ी के खिलाफ वातावरण बनाकर हमने अपने बहुत बड़े हिंदी क्षेत्र को ‘अज्ञानी’
बना दिया तो दक्षिण के कुछ क्षेत्र में हिन्दी विरोधी रूझानों को भी बल दिया । सच
कहें तो नकारात्मक अभियान या भाषा को शक्ति नहीं दे सकते । एक भाषा के रूप में
अँगरेज़ी को सीखने तथा राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को समादर देने, मातृभाषा के नाते मराठी, बंगला या पंजाबी का
इस्तेमाल करने में कोई बुराई नहीं है। किंतु किसी भाषा को समाज में यदि प्रतिष्ठा
प्राप्त करनी है तो वह नकारात्मक प्रयासों से नहीं पाई जा सकती ।
अँगरेज़ी के विस्तारवाद को
हमने साम्राज्यवादी ताकतों का षडयंत्र माना और प्रचारित किया। फलतः भावनात्मक रूप
से सोचने-समझने वाला वर्ग अँगरेज़ी से कटा और आज यह बात
समूचे भारतीय उपमहाद्वीप के लिए गलत प्रमाण बन गई। यद्यपि अँगरेज़ी मुठ्ठीभर
सत्ताधीशों, नौकरशाहों और प्रभुवर्ग की भाषा है। वह उनकी
शक्ति बन गई है। तो शक्ति को छीनने का एकमेव हथियार है उस भाषा पर अधिकार । यदि
देश के तमाम गांवों, कस्बों, शहरों के
लोग निज भाषा के आग्रहों आज मुठ्ठी भर लोगों के ‘अकड़ और शासन’ की भाषा न होती। इस
सिलसिले में भावनात्मक नारेबाजियों से परे हटकर ‘विश्व परिदृश्य’ में हो रही
घटनाओं-बदलावों का संदर्भ देखकर ही कार्यक्रम बनाने चाहिए ।
यह बुनियादी बात हिंदी क्षेत्र के लोग नहीं समझ सके। आज यह सवाल महत्वपूर्ण है कि
अँगरेज़ी सीखकर हम साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी कुछ कोणों से
जुझ सकेंगे या उससे अनभिज्ञ रहकर। अपनी भाषा का अभिमान इसमें कहीं आड़े नहीं आता।
भारतेंदु की यह बात- ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल’
आज के संदर्भ में भी अपनी प्रासंगिकता रखती है। आप इसी भाषा प्रेम के रुझानों को
समझने के लिए दक्षिण भारत के राज्यों पर नजर डालें तो चित्र ज्यादा समझ में आएगा ।
मैं नहीं समझता कि किसी मलयाली भाषी, तमिल भाषी का अपनी
मातृभाषा के प्रति प्रेम किसी बिहार, उ. प्र. या म.
प्र. के
हिंदी भाषी से कम है लेकिन दक्षिण के राज्यों ने अपनी भाषा के प्रति अनुराग को
बनाए रखते हुए अँगरेज़ी का भा ज्ञानार्जन किया, हिंदी भी
सीखी। यदि वे निज भाषाका आग्रह लेकर बैठ जाते तो शायद वे आज सफलताओं के शिखर न छू
रहे होते। आग्रहों से परे स्वस्थ चिंतन ही किसी समाज और उसकी भाषा को दुनिया में
प्रतिष्ठा दिला सकता है। भाषा को अपनी शक्ति बनाने के बजाए उसे हमने अपनी कमजोरी
बना डाला। बदलती दुनिया के मद्देनजर ‘विश्व ग्राम’ की परिकल्पना अब साकार हो उठी
है। सो अँगरेज़ी विश्व की संपर्क भाषा के रूप में और हिंदी भारत में संपर्क भाषा
के स्थान पर प्रतिष्ठित हो चुकी है, यह चित्र बदला नहीं जा
सकता ।
हिंदी की ताकत दरअसल किसी
भाषा से प्रतिद्वंद्विता से नहीं वरन उसकी उपयोगिता से ही तय होगी। आज हिंदी सिर्फ
‘वोट माँगने की भाषा’ है, फिल्मों की भाषा है। बहुत
से ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ में अभी आधारभूत कार्य होना शेष है। उसने खुद को एक
लोकभाषा और जनभाषा के रूप में सिद्ध कर दिया है। किंतु ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर उसमें काम होना बाकी है, इसके बावजूद हिंदी का अतीत खासा चमकदार रहा है।
नवजागरण और स्वतंत्रता
आंदोलन में स्वामी दयानंद से लेकर विवेकानंद तक लोगों को जगाने के अभियान की भाषा
हिंदी ही बनी। गांधी ने भाषा की इस शक्ति
को पहचाना और करोड़ों लोगों में राष्ट्रभक्ति का ज्वार पैदा किया तो उसका माध्यम
हिंदी ही बनी थी। दयानंद ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ जैसा क्रांतिकारी ग्रंथ हिंदी में
रचकर हिंदी को एक प्रतिष्ठा दी। जानकारी
के लिए ये दोनों महानायक हिंदी भाषा नहीं थे । तिलक, गोखले,
पटेल सबके मुख से निकलने वाली हिंदी ही देश में उठे जन-ज्वार का कारण बनी । यह वही दौर है जब आजादी की अलख जगाने के लिए ढेरों
अखबार निकले। उनमें ज्यादातर की भाषा हिंदी थी। यह हिंदी के खड़े होने और संभलने
का दौर था । यह वही दौर जब भारतेन्दु हरिचन्द्र ने ‘भारत दुर्दशा’ लिखकर हिंदी
मानस को झकझोरा था।
उधर पत्रकारिता के क्षेत्र
में ‘आज’ के संपादक बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, माधवराव
सप्रे, मदनमोहन मालवीय, गणेश शंकर
विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी एक इतिहास रच रहे थे। मिशनरी
पत्रकारिता का यह समय ही हमारी हिंदी पत्रकारिता की प्रेरणा और प्रस्थान बिंदु है।
आजादी के बाद भी वह परंपरा
रुकी या ठहरी नहीं है। हिंदी को विद्यालयों, विश्वविद्यालयों, कार्यालयों, संसद तथा अकादमियों में प्रतिष्ठा मिली
है। तमाम पुरस्कार योजनाएं, संवर्धन के, प्रेरणा के सरकारी प्रयास शुरू हुए हैं। लेकिन इन सबके चलते हिंदी को बहुत
लाभ हुआ है, सोचना बेमानी है। हिंदी की प्रगति के कुछ वाहक
और मानक तलाशे जाएं तो इसे सबसे बड़ा विस्तार जहाँ आजादी के आंदोलन ने, साहित्य ने, पत्रकारिता ने दिलाया, वहीं हिंदी सिनेमा ने इसकी पहुँच बहुत बढ़ा दी। सिनेमा के चलते यह दूर-दराज तक जा पहुंची। दिलीप कुमार, राजकुमार, राजकपूर, देवानंद के ‘स्टारडम’ के बाद अभिताभ की
दीवनगी इसका कारण बनी। हिंदी न जानने वाले लोग हिंदी सिनेमा के पर्दे से हिंदी के
अभ्यासी बने। यह एक अलग प्रकार की हिंदी थी। फिर ट्रेनें, उन
पर जाने वाली सवारियां, नौकरी की तलाश में हिंदी प्रदेशों
क्षेत्रों में जाते लोग, गए तो अपनी भाषा, संस्कृति, परिवेश सब ले गए । तो कलकत्ता में
‘कलकतिया हिंदी’ विकसित हुई, मुंबई में ‘बम्बईया हिंदी’
विकसित हुई। हिंदी ने अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से तादात्म्य बैठाया, क्योंकि हिंदी के वाहक प्रायः वे लोग थे जो गरीब थे, वे अँगरेज़ी बोल नहीं सकते थे। मालिक दूसरी भाषा का था, उन्हें इनसे काम लेना था। इसमें हिंदी के नए-नए रूप
बने। हिंदी के लोकव्यापीकरण की यह यात्रा वैश्विक परिप्रक्ष्य में भी घट रही थी।
पूर्वीं उ. प्र. के आजमगढ़, गोरखपुर से लेकर वाराणसी आदि तमाम जिलों से ‘गिरमिटिया मजदूरों’ के रूप
में विदेश के मारीशस, त्रिनिदाद, वियतनाम,
गुयाना, फिजी आदि द्वीपों में गई आबादी आज भी
अपनी जडो़ से जुड़ी है और हिंदी बोलती है। सर शिवसागर रामगुलाम से लेकर नवीन
रामगुलाम, वासुदेव पांडेय आदि तमाम लोग अपने देशों के
राष्ट्राध्यक्ष भी बने। बाद में शिवसागर रामगुलाम गोरखपुर भी आए। यह हिंदी यानी
भाषा की ही ताकत थी जो एक देश में हिंदी बोलने वाले हमारे भारतीय बंधु हैं। इन
अर्थों में हिंदी आज तक ‘विश्वभाषा’ बन चुकी है। दुनिया के तमाम देशों में हिंदी
के अध्ययन-आध्यापन का काम हो रहा है।
देश में साहित्य-सृजन की दृष्टि से, प्रकाश-उद्योग
की दृष्टि से हिन्दी एक समर्थ भाषा बनी है । भाषा और ज्ञान के तमाम अनुशासनों पर
हिन्दी में काम शुरु हुआ है । रक्षा, अनुवांशिकी, चिकित्सा, जीवविज्ञान,
भौतिकी क्षेत्रों पर हिन्दी में भारी संख्या में किताबें आ रही हैं
। उनकी गुणवक्ता पर विचार हो सकता है
किंतु हर प्रकार के ज्ञान और सूचना को अभिव्यक्ति देने में अपनी सामर्थ्य का अहसास
हिन्दी करा चुकी है । इलेक्ट्रानिक मीडिया के बड़े-बड़े
‘अँगरेज़ी दां चैनल’ भी हिन्दी में कार्यक्रम बनाने पर मजबूर हैं । ताजा
उपभोक्तावाद की हवा के बावजूद हिन्दी की ताकत ज्यादा बढ़ी है । हिन्दी में
विज्ञापन, विपणन उपभोक्ता वर्ग से हिन्दी की यह स्थिति
‘विलाप’ की नहीं ‘तैयारी’ की प्रेरणा बननी
चाहिए । हिन्दी को 21वीं सदी की भाषा बनना है । आने वाले समय
की चुनौतियों के मद्देनजर उसे ज्ञान, सूचनाओं और अनुसंधान की
भाषा के रुप में स्वयं को साबित करना है ।
हिन्दी सत्ता-प्रतिष्ठानों के सहारे कभी नहीं फैली, उसकी विस्तार
शक्ति स्वयं इस भाषा में ही निहित है ।
अँगरेज़ी से उसकी तुलना करके कुढ़ना और दुखी होना बेमानी है । अँगरेज़ी सालों से
शासकवर्गों तथा ‘प्रभुवर्गों’ की भाषा रही
है । उसे एक दिन में उसके सिंहासन से नहीं हटाया जा सकता । हिन्दी का इस क्षेत्र
में हस्तक्षेप सर्वथा नया है, इसलिए उसे एक लंबी और सुदीर्घ
तैयारी के साथ विश्वभाषा के सिंहासन पर प्रतिष्ठित होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए, यही संकल्प सही अर्थों में हिंदी
को उसकी जगह दिलाएगा ।
विश्व
हिन्दी सम्मेलन-ट्रिनिडाड को याद करते हुए
दुनिया के कोने-कोने में आज लगभग पौने दो करोड़ अनिवासी भारतीय और भारतवंशी विराजमान हैं
और इनमें से बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की है जो 100-150 साल
पहले मॉरिशस, फिजी, सुरीनाम, ट्रिनिडाड, गुयाना, बारबाडोस,
जमैका, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में जाकर बस
गये और इन सबके साथ भारतीय मिट्टी की सुगन्ध वहाँ पहुँची । इनके साथ हमारा दर्शन,
हमारी जीवन शैली, गीता, रामायण
आदि सब ग्रन्थ वहाँ पहुँचे और इस प्रकार उन दूर-दूर के देशों
में आज भी हमारी संस्कृति, हमारी भाषा की गूंज-अनुगूंज निरन्तर सुनाई पड़ती है और जो लोग भी इन देशों की यात्रा कर चुके
हैं वे सब इस बात से प्रभावित हुए हैं कि समय के लम्बे अन्तराल के बाद भी किसी
प्रकार उन्होंने उन तमाम मूल्यों को जीवित रखा है । वे भारतीय सभ्यता और संस्कृति
की विरासत के सच्चे हकदार माने जा सकते हैं ।
भारत के बाहर भारतवंशी तो
हैं ही, इनके अतिरिक्त जो लोग भारत को भली प्रकार जानता
चाहते हैं वे भी हिंदी और भारतीय भाषाओं का पूरी रुचि के साथ अध्ययन-अध्यापन और शोध वर्षों से करते आ रहे हैं और इन क्षेत्रों में उनकी
उपलब्धि सर्वथा सराहनीय रही है । यूरोप के देश या अफ्रीका के, आस्ट्रेलिया या अमरीका के और फिर एशिया के अनेकानेक देशों में हिंदी और
भारतीय भाषाओं के पठन-पाठन की व्यवस्था वर्षों से चली आ रही
है और इन सभी लोगों की एक आकांक्षा रहती है कि वे भारत की भूमि के साथ भारतीय
आत्मा के साथ जुड़ सकें, उनका एक सम्पर्क इस देश के साथ कायम
हो जिससे कि वे अपने-अपने विषय को भली प्रकार समझ सकें,
विचारों का आदान-प्रदान कर सकें और अपने
कार्यों में निरन्तर प्रगति करते जाएं । जिन देशों में भारतवंशी बड़ी संख्या में
निवास करते हैं वहाँ तो हिंदी का होना स्वाभाविक है किन्तु उनके अतिरिक्त रुस,
अमरीका, जर्मनी, पोलैंड,
चेकोस्लोवाकिकया, फ्रांस, ब्रिटेन (यू.के) के विभिन्न हिस्सों में लगभग डेढ़ सौ ऐसे विश्वविद्यालय हैं जिनमें हिंदी
के पठन-पाठन की व्यवस्था है और इन सबके साथ हमारे देश के
विद्वान भी जुड़े हुए हैं और एक ऐसा तारत्मय पिछले दो दशकों से बन गया है कि
निरन्तर सम्मेलन, सभा और संगोष्ठी के माध्यम से इन विद्वानों
के बीच विचारों का आदान-प्रदान होता रहता है । यह एक शुभ
संकेत है क्योंकि हिंदी सभी को जोड़ने वाली भाषा है, प्रेम
की भाषा है । इन्हीं विदेशस्थ हिंदी
प्रेमियों की आशा के अनुरुप सबसे पहला विश्व हिंदी सम्मेलन 1975 में नागपुर में हुआ । इस सम्मेलन का उद्घाटन हमारी प्रधानमंत्री श्रीमती
इंदिरा गाँधी ने किया और इसकी अध्यक्षता मॉरीशस के प्रधानमंत्री सर शिवसागर
रामगुलाम ने की । उसके कुछ ही दिन बाद अगस्त, 1976 में दूसरा
विश्व हिंदी सम्मेलन मॉरीशस में आयोजित हुआ जिसको याद कर लोग कहा करते हैं,
“न भूतो न भविष्यति” । इस सम्मेलन में भारत से लगभग 250 विद्वानों राजनेताओं ने भाग लिया और सभी इस बात से अत्यंत प्रफुल्लित थे
कि मॉरीशस की सुन्दर भूमि पर हिंदी का बिरवा किस प्रकार फलता-फूलता और पुष्ट होता जा रहा है । इसके बाद 1983 में
तीसरा विश्व हिंदी सम्मेलन नई दिल्ली में आयोजित हुआ जिसका उद्धाटन प्रधानमंत्री
श्रीमती इंदिरा गाँधी ने किया और अध्यक्षता कैम्ब्रिज के हिंदी विभागाध्यक्ष
प्रोफेसर मैग्रेगर ने की । फिर एक लम्बा अन्तराल आया और चौथा विश्व हिंदी सम्मेलन
उसी मॉरीशस की भूमि पर सम्पन्न हुआ जिसका उद्घाटन मॉरीशस के प्रधानमंत्री श्री
अनिरुद्ध जगन्नाथ ने किया और इस सम्मेलन में अनेकानेक देशों के विद्वान पधारे और
आपस में विचार-विनिमय करके कई महत्वपूर्ण निर्णय लिये और इन
सबकी यह माँग रही कि अब तक के चार विश्व हिंदी सम्मेलनों में जो भी प्रस्ताव पारित
किए गए है उनके क्रियान्वयन के लिए तत्काल कार्रवाई की जाए । भारत और मॉरीशस की
सरकार को यह जिम्मेदारी दी गयी कि इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए आवश्यक कदम
शीघ्रातिशीघ्र उठाए जाएँ । इसी सम्मेलन में ट्रिनिडाड के प्रतिनिधि ने यह प्रस्ताव
रखा कि पाँच वाँ विश्व हिंदी सम्मेलन ट्रिनिडाड में 1996 में
आयोजित किया जाए क्योंकि इसी वर्ष भारतीयों के उस देश में पहुँचने के डेढ़ सौ वर्ष
पूरे हो रहे हैं । इस कार्यक्रम का शुभारम्भ हो
चुका है और हमारे देश के राष्ट्रपति महामहिम डॉ. शंकर
दयाल शर्मा ने इस वर्ष के प्रारम्भ में ही ट्रिनिडाड जाकर भारतीयों के ट्रिनिडाड
में आँगन की 150 वीं जयन्ती का शुभारम्भ कर दिया है और उस
देश ने यह निश्चय किया है कि 1996 के मार्च मास में विश्व
हिंदी सम्मेलन का आयोजन कर इस जयन्ती का समापन किया जाए। सभी विश्व हिंदी
सम्मेलनों में भारत सरकार, स्वैच्छिक हिंदी संस्थाओं,
हिंदी सेवी विद्वानों, पत्रकारों, लेखकों और विचारकों, कवियों और कलाकारों ने सभी
प्रकार से योगदान किया है और आशा है कि ट्रिनिडाड में अगले वर्ष आयोजित होने वाला
पाँच वाँ विश्व हिंदी सम्मेलन भी इस श्रृंखला की प्रमुख कडी के रूप में उभरकर
सामने आयेगा।
ट्रिनिडाड में पाँचवाँ
विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित होने जा रहा है, यह सभी हिंदी प्रेमियों के
लिए स्वागत योग्य बात है और इस सन्दर्भ में यह विशेष उल्लेखनीय है कि सूरीनाम ओर
ट्रिनिडाड में कई वार अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन का आयोजन इससे पहले भी हो
चुका है। अंन्तर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में स्वाभाविक है कि बाहर के विद्वान कम
और स्थानीय लोगों की भागीदारी अधिक रहती है। सूरीनाम में अब तक तीन
अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन सम्पन्न हो चुके हैं और अभी-अभी
लगभग 2 साल पहले यानी 1993 में
ट्रिनिडाड में एक अंन्तर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें भारत
सहित अनेक देशों के लोगों ने हिस्सा लिया। आज आवश्यकता इस बात की है कि भारत के
बाहर जो लोग भी हिंदी की सेवा कर रहे हैं, जो लोग भी इस तरह
का कार्यक्रम आयोजित करते हैं हम उनको समुचित प्रश्रय, प्रोत्साहन
दें ताकि भारत के साथ दुनिया के तमाम देशों के साथ हमारी सांस्कृतिक भाषायी
सम्पर्क सूत्र अधिकाधिक सुदृढ़ बनें और भारतीय जीवन-मूल्यों
को यानी विश्व-शांति, सहिष्णुता,
मैत्री और सद्भाव इन सबको बल मिले। हिंदी की इस क्षेत्र में अग्रणी
भूमिका रही है और हमारी भारतीय भाषाएँ एक हैं, उनकी आत्मा एक
है और हिंदी के माध्यम से हम भारत में और भारत के बाहर उसी को प्रतिबिंबित करते
है।
ट्रिनिडाड विश्व हिंदी
सम्मेलन निकट भविष्य में आयोजित होने जा रहा है इसलिए इस देश में आयोजित
अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन की विशेष चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं होगा।
इस देश की यात्रा पहले भी
मैं कई बार कर चुका हूँ और 1975 में पहली बार वहाँ
पहुँचा था। हवाई अड्डे से शहर की ओर जाते हुए खुले मैदान में रामलीला का आयोजन देख
चमत्कृत हुआ किन्तु अचरज हुआ यह देखकर कि मानस के दोहा चौपाई का धारा प्रवाह
अंग्रेज़ी में रुपान्तर कर दर्शकों को सुनाया जा रहा था और जनसमूह इसका पूरा
रसास्वादन भी कर रहा था । मूल चौपाई का हिंदी में सस्वर पाठ और फिर अंग्रेज़ी
रुपान्तर के साथ खुले मंच पर पात्रों का अभिनय देखकर मुझे यह लगा कि नई पीढ़ी से
हिंदी की डोर शायद टूट गई है और उसे फिर जोड़ना कठिन होगा । इसी यात्रा के दौरान
नगर से दूर गाँधी आश्रम में आयोजित एक सभा में अपने विचार मैं हिंदी में व्यक्त कर
रहा था कि कुछ नौजवानों ने उठकर नम्र भाव से कहा कि वे मेरी बात समझ नहीं पा रहे
हैं और उन्होंने रोष भरे शब्दों में कहा कि हमारी पीढ़ी की इस असमर्थता के दोषी
हैं वे बुजुर्ग जो आपके साथ मंच पर विराजमान हैं । वे स्वयं तो हिंदी भोजपुरी बोलते हैं किन्तु इन्होंने हमें इसे
सीखने का अवसर ही नहीं दिया बल्कि स्वयं हम लोगों के साथ अंग्रेज़ी में बात कर
हमें साहब बनाने की चेष्टा करते रहे और परिणाम अब यह हुआ कि हम साहब तो बन नहीं
पाये पूरे हिन्दुस्तानी भी नहीं रहे । सभा के बाद मैंने तमाम लोगों से इस पर चर्चा
की और नई पीढ़ी के दर्द को पहचानने के प्रयास किए मुझे लगा कि उपनिवेशवाद के अनेक
अवसादपूर्ण अवशेषों में यह सबसे दुखद है एक व्यक्ति ही नहीं किसी पूरे समाज को
अपनी अस्मिता से दिग्भ्रमित कर एक ऐसे मायाजाल में उलझा देने जहाँ उसकी आत्मा
कराहती रहे, अपनत्व के सुखद संस्पर्श के लिए उसे अपनी
अंतरात्मा को अभिव्यक्त करने की असमर्थता का बोध हो तथा अपनी बात को पराई भाषा में
कहने की बाध्यता का अनचाहा भार ढोना पड़े ।
कुछ परिस्थिति ही ऐसी बनी
कि इस देश की नई पीढ़ी को अपने इतिहास की उस त्रासदी को भोगना पड़ रहा है । लगभग
दो हजार वर्ग मील के ट्रिनिडाड ट्वैगो में बारह तेरह लाख लोग निवास करते हैं । कुछ
इतर जातियाँ भी हैं जैसे यूरोपीय और चीनी आदि किन्तु बाहुल्य तो भारतीय और अफ्रीकी
का है और यदि इनमें सद्भाव और समरसता बनी रहे तो देश का कल्याण है अन्यथा
पारस्परिक संघर्ष तो विनाश का मार्ग ही प्रशस्त करेगा ।
इस सत्य ही ओर सबसे अधिक
ध्यान दिया है भारतीय समाज ने और इनका यह प्रयास लगातार जारी है ताकि इनकी किसी भी
गतिविधियों का कोई गलत अर्थ नहीं लगाये । सबसे पहले 1845
में फाटेल रजाक नामक समुद्री जहाज से सवा दो सौ भारतीय ट्रिनिडाड की
राजधानी पोर्ट ऑफ स्पेन पहुँचे और 1917 तक ऐसे प्रवासी
भारतीयों की संख्या इस देश में लगभग डेढ़ लाख हो गई और पीढ़ी दर पीढ़ी इन भारतीयों
ने तमाम कष्ट झेलकर भी इस देश को समृद्ध , सुखद और सुन्दर
बनाया है । इनके संघर्ष की कथा भी उतनी ही दर्दनाक है जैसा कि अनेक देशों में इन
आप्रवासी भारतीयों पर बीता और उनकी व्यथा का बड़ा ही जीवंत चित्रण इसी देश के
बहुचर्चित, सुविख्यात लेखक वी.एस.
नेपाल ने अपने उपन्यास (मिमिकमेन) के नायक राल्फ सिंह की मनोभावनाओं के माध्यम से किया है । अपनी धरती से
उखड़कर नये देश में बसेरा और नये परिवेश में नई ज़िंदगी की शुरूआत करना कितना
दुष्कर है, इसका विवरण सुनकर भी रोमांच हो जाता है किन्तु
धन्य हैं हमारे देश भारत के लोग जो घोर विषम परिस्थितियों में भी अपना सही मार्ग
चुन लेते हैं और अपनी साधना और प्रतिभा के बल पर शीर्ष पर पहुँच जाते हैं । वे
इसका सारा श्रेय भारतीय दर्शन, अध्यात्म, हमारे जीवन मूल्य और तुलसी, सूर, मीरा तथा कबीर जैसे श्रेष्ठ कवि मनीषी को देते हैं जिन्होंने उनकी जीवन
नौका को विकट झंझावत से निकालकर सुरक्षित गंतव्य तक पहुँचा दिया ।आज ट्रिनिडाड में
सर्वत्र हरियाली, खुशहाली और सम्पन्नता दिखाई देती है । आज
अठानवे प्रतिशत लोग शिक्षित हैं इस देश में और लगभग चार अरब डालर का इनका सफल
घरेलू उत्पाद है । पेट्रोल, प्राकृतिक गैस और असफाल्ट की
बहुतायत के साथ-साथ चीनी, कहवा,
काफी, फल और सब्जी की भी इस देश को सुखी बनाने
में प्रभावी भूमिका रही है । जीवन स्तर इनका किसी भी विकसित देश के समकक्ष माना
जायेगा और आधुनिकता की हवा का पश्चिम में लहराना तो स्वाभाविक है ही फिर भी भारत
वंशी अपने मूल्यों की महत्ता को जानते हैं और वे अपने पुरखों की विरासत को भुलाकर
एक बहुमूल्य निधि से वंचित होना नहीं चाहते और इसी उद्देश्य को लेकर इस देश की
संस्था हिंदी निधि ने यह अन्तरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन आयोजित किया और इसमें भाग
लेने भारत से पाँच तथा यूरोप, अमरीका, दक्षिण
पूर्व एशिया एवं प्रतिवेशी देशों से अनेक विद्वान आए ।
यह सम्मेलन पूरे पाँच
दिनों तक चला और इसकी अनेक विशेषताएं उल्लेख योग्य हैं किन्तु सबसे अच्छी बात थी
समय की पाबन्दी और विषयों का निश्चित दायरे में बाँधकर चर्चा को प्रभावी बनाना ।
शुभारंभ तो सम्मेलन का देश के राष्टपति श्री नूर हसन अली ने रात्रिभोज के साथ किया
और विधिवत् उद्घाटन हुआ प्रधानमंत्री पैट्रिक मैनिंग के भाषण से। श्री मैनिंग ने
अपने भाषण में यह आश्वासन दिया कि हम अपने दल के घोषणा पत्र के वायदे के अनुसार
ट्रिनिडाड में हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की व्वस्था को
सुदृढ़ बनाने को कृतसंकल्प हैं। चूकि हिंदी भोजपुरी तो इस देश की मिट्टी में रची
बसी हैं और हम उसे अपनाये बिना महाभारत, भगवद् गीता जैसे
महाकाव्य और तुलसीदास की रामायण और कालिदास जैसे महाकवि को कैसे जान पायेंगे।
हमारे देश में अनेक जातियाँ हैं और उनकी सांस्कृतिक बारीकियों को अपनाकर हम अपने
को, अपने बहुजातीय समाज को अपने राष्ट्र की विरासत को समृद्ध
और संपन्न बनायें। हमारा यह सौभाग्य है कि हमारे पास इतनी समृद्ध सांस्कृतिक
सम्पदा है और हमें चाहिए कि उन्हें आत्मसात कर अपने देश और समाज को सम्पन्न बनायें
। यह सम्मेलन निश्चय ही समाज को एकता के सूत्र में बांधकर मानव के सामने आज जो
अनेक चुनौतियाँ हैं उनका सामना करने की शक्ति हमें देगा। प्रधानमंत्री ने यह भी
कहा कि भाषा को सिखाने का काम प्रेम और सद्भाव द्वारा ही संभव है और हिंदी की तो
सांस्कृतिक गरिमा एवं वैज्ञानिक महत्ता सर्वविदित हैं। आज सांस्कृतिक नवजागरण की
लहर हमारे देश में परिव्याप्त है और ऐसी स्थिति में हिंदी निश्चय ही समाज को सभी
समुदाय और जातियों को एक दूसरे के समीप लायेगी। आज इस देश में कितने ही अफ्रीका
मूल के लोग रामायण और महाभारत का रसास्वादन कर रहे हैं ओर भारतीय मूल के लोग हमारे
जातीय और धार्मिक समारोहों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं
और यही है हमारे संबंधों का नया आयाम जिसे सम्पुष्ट करना हम सभी का कर्तव्य है।
हिंदी निधि अपने आप में एक ऐसी संस्था है जो जाति और धर्म के संकुचित दायरे से दूर
राष्ट्र की प्रतिनिधि संस्था बन गई है और यह सम्मेलन निश्चित ही हमारे देश की
जातीय समरसता को सुदृढ़ बनायेगा, चूंकि भाषा सभी को जोड़ने
का समर्थ साधन रही है।
इस औपचारिक उद्घाटन के
अवसर पर भारत के उप राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा और हमारे
प्रधान मंत्री श्री पी.वी. नरसिंह राव
का उत्साहवर्द्धक शुभकामना संदेश पढ़कर सुनाया गया और उसके तत्काल बाद सत्र
प्रारम्भ हुए जिसमें एक अध्यक्ष और तीन चार विद्वान वक्ता अपना लिखित निबन्ध पढ़कर
सुनाते तथा उन पर सक्षिप्त चर्चा सत्र के अंत में होती जिसें श्रोता की जागरूकता
और इस तरह हमारी चर्चा जीवंत हो उठती तथा श्रोता की जागरूकता और अभिरुचि का प्रमाण
भी हमें मिल जाता। इस सम्मेलन की एक विशेषता यह भी थी कि इसमें सभी वक्ताओं को
अपना विचार हिंदी में नहीं अंग्रेज़ी में ही अभिव्यक्त करना था। इस पर विशद् चर्चा
एक दिन पहले हुई थी और कुछ लोगों का अटपटा भी लगा कि अन्तरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन
में माध्यम अंग्रेज़ी हो किन्तु परिस्थिति ऐसी थी कि उसके बिना कोई उपाय नहीं था
और आयोजकों ने यह साफ कहा कि ट्रिनिडाड में आज पाँच प्रतिशत से अधिक लोग हिंदी
समझते नहीं अतः अंग्रेज़ी का सहारा लेना अनिवार्य है। यूरोप और अमरीका के लोगों
यानी विद्वानों का तो यह रोचमर्रा का काम था और भारत सें गये प्रतिनिधियों ने भी
इसे स्वीकार किया चूंकि भाषा कोई भी हो काम तो हिंदी का ही संपन्न हो रहा था। छह
सत्रों में विभाजित इस सम्मेलन में हिंदी के विभिन्न पक्षों पर विचार-विमर्श हुआ और यूरोप तथा अमरीका से आये विद्वानों ने हिन्ही के विकास,
इसकी राष्ट्रीय-अन्तराराष्ट्रीय भूमिका,
इसके महान रचनाकारों द्वारा जनचेतना, राष्ट्र
में नवोन्मेष तथा संसार में इस भाषा की महत्ता को अपने शोधपूर्ण आलेखों में
रेखाकित किया।
भारत के प्रतिनिधि मंडल
में पाच व्यक्ति थे जिनमें से सांसद शंकर दयाल सिंह, इन
पंक्तियों के लेखक और श्री राजेन्द्र अवस्थी ने पहले दिन ही तीनों सत्रों की
अध्यक्षता की तथा श्री यशपाल जैन, प्रो. माजदा असद ने अपने खोजपूर्ण लेख सम्मेलन में प्रस्तुत किये । इस सम्मेलन
के विचार विमर्श का दायरा बड़ा ही व्यापक था और हिंदी के अनेक प्रश्रों पर
विद्वतापूर्ण, गवेषणात्मक और समीक्षात्मक भाषण हिंदी की
व्यापक, लालित्य और उपादेयता के प्रबल प्रमाण थे । भारतीय
सांस्कृतिक सम्बन्ध, खड़ी बोली तथा भारत की क्षेत्रीय भाषाओं
की परम्परा और अनेक साहित्यिक महत्व पर प्रकाश डाला । भारत के ही प्रो. हरीश नवल ने अपने लेख में हिंदी भाषा को एकता का उपादान बताया और प्रो.
माजदा असद ने हिंदी भाषा और साहित्य को हमारी एकता और सामासिक
संस्कृति का प्रतीक कहा । कनाडा से आये प्रो. क्रिस्टोफर
किंग ने भारतेन्दु हरिशचन्द्र और देवकी नन्दन खत्री का उल्लेख करते हुए दोनों की
लेखन शैली का विवेचन प्रस्तुत किया तथा हंगरी की प्राध्यापिका ईवा अरादी ने भारतीय
साहित्य में हिंदी की वर्तमान भूमिका के संदर्भ में प्रेमचन्द का उल्लेख किया और
कहा कि प्रेमचन्द जी यह भली प्रकार जानते थे भारत में हिंदी और उर्दू का कोई विवाद
नहीं वरन् सारा मसला अंग्रज़ी और राष्ट्र भाषा को लेकर है । इस बिन्दु की ओर प्रो.
किंग ने भी संकेत किया । एक वक्ता ने तो यह भी कहा कि ग्रियर्सन
जैसे व्यक्ति ने हिन्द, उर्दू और हिन्दुस्तानी को सामाजिक
सांस्कृतिक आधार पर तीन भाषाओं के रुप में प्रस्तुत किया और दरअसल यह भारतीय जन
समूह को बाँटने की एक चाल थी । इटली की प्रो. मरियोला अफरीदी
ने पत्रकारिता के माध्यम से राष्ट्रियता के प्रचार-प्रसार
में बाल कृष्ण भट्ट के अद्भुत योगदान की विस्तृत व्याख्या की और यह बताया कि उनकी
कलम लगातार महिलाओं के उत्थान, समाज सुधार तथा अंग्रज़ी शासन
के भेदभाव पूर्ण उपनिवेशवादी नीति पर कटाक्ष करती रही औ रइस विचार का समर्थन
पोलैंड के प्रो. ब्रिस्की ने भी अपने भाषण में किया और कहा
कि भाषा को हम अपनी चिंतन प्रक्रिया से अलग नहीं रख सकते किन्तु आजाद़ी के बाद
भारत ने ब्रिटिश पद्धति को प्रशासन के क्षेत्र में बनाये रखा ताकि उद्योग के
क्षेत्र में उन्नत देशों के समूह में वह शामिल हो सके । यद्यपि गाँधीजी पूरी
पद्धति में बदलाव के पक्षधर थे।
जर्मनी के तेजस्वी विद्वान
डॉ. लोथार लुत्से ने बड़े प्रभावी ढंग से यह प्रतिपादित किया कि हिंदी अपने जनजीवन
की उनमुक्तता, उदारता, सुन्दरता एवं
बौद्धिक सम्पदा के कारण इतनी समृद्ध है कि उसे अपने संसार की महत्वपूर्ण भाषाओं
में एक मानते हैं । भाषा एक और राजनीति की ओर देखती है और दूसरी ओर साहित्य की ओर
। इसका दूसरा पक्ष निश्चय ही नितांत सत्यनिष्ठ होता है । उन्होंने रघुवीर सहाय की
कविता का उद्धरण देकर अपने कथन की पुष्टि की और प्रो. लुत्से
के वक्त्व्य ने श्रोताओं को चमत्कृत और आह्लादित किया । बाहर से आये प्रतिनिधियों
में प्रो. इकबाल ने कोरिया में हिंदी की स्थिति पर प्रकाश
डाला, सूरीनाम के डॉ. ज्ञान अदीन और
महातम सिंह ने अपने विचार प्रस्तुत करते
हुए कहा कि एक से अधिक भाषा का ज्ञान हमारे व्यक्तित्व को नई निखार देता है और
हमें अपने भीतर एक पूर्णता का आभास होने लगता है। हालैण्ड के प्रो. मोहन कुमार गौतम ने तो भारत से सूरीनाम तक की हिंदी की यात्रा का जीवंत
वर्णन प्रस्तुत कर यह सिद्ध किया कि हिंदी का ज्ञान इस देशों ने सांस्कृतिक विरासत
का अभिन्न अंग है। लंदन से आये प्रो.
सत्येन्द्र श्रीवास्तव ने अपने भाषण में यह बताया कि एशिया के देशों
से आये ब्रिटेन निवासी समूहों के बीच भाषा-ज्ञान, उसके पठन-पाठन की व्यवस्था, नई
और पुरानी पीढ़ी के अन्तराल, विभिन्न सांस्कृतिक परिवेश और
भिन्न जाति समूहों के मध्य पारस्परिक आदान-प्रदान के
परिप्रेक्ष्य में वहाँ हिंदी की स्थिति संसार के अन्य देशों से बिल्कुल भिन्न है
और इस कार्य में लगे लोग नित्य नई उलझनों से मनोयोग पूर्वक निबट रहे हैं। फिनलैण्ड
से आये प्रो. मोहन लाल सर ने “हिंदी में विनम्र एवं शिष्ट
अभिव्यंजना” की चर्चा करते हुए उपनवेशवादी शासकों से अपनी परम्परा के टकराव का
इतिहास बताया और इसी बिन्दु पर प्रो. बूदेव शर्मा और मोहन
शाम लाल ने भी अपने विचार व्यक्त किये। ट्रिनिडाड में हिंदी प्रयोग के सूत्रधार
कमालुद्दीन मोहम्मद ने अपने जीवन वृत्तान्त के माध्यम से ट्रिनिडाड में हिंदी के
उतार-चढ़ाव की कहानी सुना दी- यानी इस
देश का पूरा सामाजिक सांस्कृतिक इतिवृत्त।
सम्मेलन में चर्चा अवधि
गति से चलती रही और उनमें कुछ ऐसे उत्साहवर्द्धक आलेख भी आये जो ट्रिनिडाड में
हिंदी की पुनः प्रतिष्ठा के लिए अत्यन्त उपादेय सिद्ध होंगे। अमरीका में हिंदी के
प्राध्यापक प्रो. सुरेन्द्र गम्भीर का आलेख इस दृष्टि से बड़ा ही
समीचीन था। उन्होंने कहा कि संस्कृति का एक प्रमुख अंग है भाषा और ट्रिनिडाड में
भारतवशियों ने अपनी सामाजिक परम्पराओं और संस्कृति को जीवित रखा है। किन्तु अनेक
ऐतिहासिक सामाजिक कारणों के भाषा की रक्षा यहाँ नहीं हो सकी यानी क्रियोल ओर
अंग्रेज़ी के निरन्तर प्रयोग ने हिंदी को यहाँ पीछे छोड़ दिया लेकिन अब यह चेतना
लौट आई है कि अपने पुरखों की भाषा हिंदी भोजपुरी को हम यहाँ पुनर्जीवित करें।
उन्होंने अपने खोजपूर्ण आलेख में बताया कि इस देश में अधिकांश लोग पूर्वी उत्तर
प्रदेश और बिहार से आये और इस सदी के तीसरे चौथे दशक तक भोजपुरी हिंदी का प्रयोग
पूरे धड़ल्ले के साथ पूरे समाज में हाता था किन्तु आज स्थिति ऐसी है कि पुरानी पीढ़ी
के जो लोग हैं, वे तो हिंदी का प्रयोग सीमित दायरे में अभी
भी करते हैं किन्तु शहरी समाज तो इससे पूर्णतया बंचित है और विशेषकर नई पीढ़ी तो
पूरी अनभिज्ञ यानी मध्यम आयु वर्ग के लोग तो इसे समझ लेते हैं किन्तु नौजवान तो
सिर्फ क्रियोल और अंग्रेज़ी पर ही निर्भर हैं चूंकि उन्हें तो इसे सुनने, लिखने, पढ़ने और सीखने का कोई अवसर ही नहीं मिला।
प्रो. गम्भीर ने कहा फिर भी इसमें कोई निराशा की बात नहीं
चूंकि यदि हिबू जैसी भाषा को पुनर्जीवित किया जा सकता है तो हिंदी का पुनरुत्थान
ट्रिनिडाड जैसे देश में सहज ही संभव और सुगम है। उन्होंने अपने अध्यययन, अनुभव और प्रयोग के आधार पर बताया कि ट्रिनिडाड में भोजपुरी-हिंदी को नवजीवन प्रदान करने के लिए राज्य ओर समाज को मिलकर प्रयास करना
होगा तथा किसी भी प्रकार के टकराव से बचते हुए सबसे पहले हिंदी को अपने दैनिक जीवन
में उतारना होगा यानी भाषा जब तक बोली न जाये तो उसके जीवंत होने का और प्रमाण
क्या हो सकता है।
इसी संदर्भ में मुझे
ट्रिनिडाड के विदेश मंत्री श्री राल्फ महाराज के भाषण का वह अंश याद आ रहा है जब
उन्होंने कहा कि मैं अपने बचपन में हिंदी जानता और बोलता था और मुझमें शायद तब कुछ
कवि-प्रतिभा भी थी। एक दिन मैंने अपनी नानी से कहा था-
“नानी, तोर बकरी अब हम ना पकड़ी”। इस एक कथन
के माध्यम से उन्होंने ट्रिनिडाड में हिंदी के समाप्त प्राय होने की कहानी भी
सुनादी। गाँव से शहर पहुँच कर हिंदी कैसे पीढ़ी दर पीढ़ी छूटती गई यही उनका आशय था
किन्तु उन्होंने कहा कि हिंदी को हिन्दू के साथ जोड़ना मुनासिब नहीं होगा, दरअसल इस भाषा के माध्यम से प्राप्त ज्ञान हमारे समस्त राष्ट्र का पथ
आलोकित करेगा और उन्होंने कहा कि हमारी सरकार ने राजधानी के प्रमुख क्षेत्र में
पाँच एकड़ भूमि आबंटित कर, भारत सरकार के सहयोग से गाँधी सांस्कृतिक संस्थान बनाने का निश्चय किया है
और आवश्यकता आज इस बात की है कि हिंदी के अध्येता और विद्वान इस भाषा के प्रचार-प्रसार में सर्वधर्म समभाव का दृष्टिकोण निरन्तर बनाये रखें और जिस हिंदी
भाषा के बल पर इस देश में कभी हिन्दू धर्म की रक्षा हुई उसके माध्यम से भविष्य में
समग्र राष्ट्र का भी कल्याण निश्चय ही होगा। इस सम्मेलन के आयोजन मात्र से पूरे
देश में यह आशा जगी है कि अब तक जो कठिनाइयाँ हिंदी के मार्ग में थीं वे धीरे-धीरे दूर होंगी और हम सभी इस देश में हिंदी को पुनर्जीवित पायेंगे ।
इन विशिष्ट विद्वानों, शोधकर्ताओं, प्राध्यापकों, राजनेता
और पत्रकारों के अतिरिक्त एक ऐसे वक्ता भी इस सम्मेलन में आए, ट्रिनिडाड के सर्वाधिक तेजस्वी व्यक्ति, भारतवंशियों
के सबल-सक्षम पक्षधर, संसद में विपक्ष
के नेता श्री बासुदेव पाण्डे। उन्होंने उस देश में हिंदी के विलुप्त होने के अनेक
राजनीतिक सामाजिक कारण बताये और उनकी दृष्टि में हिंदी को मिटा देने का पूरा एक
सुनियोजित षड़यंत्र वहाँ चल रहा है। हिंदी
के विरोधी इस देश में यह कहते है कि जब
भारत में ही हिंदी की विशेष उपयोगिता सिद्ध नहीं हो पाई फिर इसके सीखने से हमें
ट्रिनिडाड में क्या लाभ होगा । उनका दूसरा तर्क है कि हिंदी की पढ़ाई स्कूलों में
प्रारंभ करने पर चीनी और अफ्रीकी मूल के लोग अपनी भाषा की माँग करने लगेंगे और
इसके परिणामस्वरूप समाज की एकता भंग होगी। इस प्रकार के तर्क देने वाले लोग हिंदी
के प्रचार प्रसार को समानता और न्यायसंगत
अधिकार के हमारे संघर्ष का हिस्सा मानते हैं ओर उनका हित साधन तो उपनिवेशवादी
व्यवस्था के अवशेषों को कायम रखने से ही संभव है । हमारा इतिहास हमें बताता है कि
आजादी के पहले इस देश में मुट्ठी भर ऐसे लोग थे जिनका हमारी अर्थवस्था पर पूरा
अधिकार था, वे ही समाज के अगुआ भी थे । पहले तो हम उनका वर्ण
(गौर) देखकर पहचान लेते थे लेकिन अब
उनके पदचिन्हों पर चलने वाले सभी वर्ण के चन्द लोगों में यह भावना काम कर रही है
कि हम समाज को “बांटो और राज करो” की नीति का अनुसरण कर अर्थतंत्र पर अपना आधिपत्य
बनाए रखें ।
इस वर्ग का यही प्रमुख
उद्देश्य है कि अफ्रीका मूल के लोगों के साथ भारतवंशियों का मेल मिलाप होने नहीं
दें ताकि वे अलग-अलग रहकर कमजोर बने रहें और हम स्थिति का लाभ
यथावत् उठाते रहें । श्री पाण्डे ने कहा कि पैसा ओर प्रचार तंत्र दोनों पर उनका
कब्जा है अतः किसी भी कार्य में हमारी कठिनाई बड़ जाती है । यह उसी समुदाय का
प्रचार है कि इस देश की सारी भूमि पर भारतीयों का कब्जा है और यदि राजनैतिक सत्ता
भी उनके हाथ आ गई तो दूसरी जातियाँ कष्ट में पड़ जायेंगी । उद्घाटन के अवसर पर
पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार मैंने भारत के उप राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा का शुभकामना संदेश पढ़कर सुनाया और उसके बाद आये
ट्रिनिडाड के लोकप्रिय नौजवान नेता श्री रवि जी( रवीन्द्र
नाथ महाराज) इन्हें भारत के प्रथान मंत्री श्री पी.वी. रनसिंह राव का संदेश सुनाना था । दो चार शब्द
बोलने के बात रवि जी भाव विह्वल हो गये और आँखों
में अश्रु की धारा लिये बैठ गये, फिर हमारे प्रधान
मंत्री जी का संदेश सुनाया अपने राजदूत प्रो. लक्ष्मणा ने और
खोजबीन करने पर मुझे हिंदी निधि के अध्यक्ष श्री सीताराम ने बताया कि रवि जी हमारी
निधि के प्राण हैं और पूरी निष्ठा से इस सम्मेलन को सफल बनाने में लगे रहे हैं-
आज जब यह असंभव सा दीखता समारोह मूर्तरुप में उनके सामने आया तो
उन्हें आश्चर्य हुआ । हर्षातिरेक इसलिए कि कभी हमने यह सोचा भी नहीं था कि भारत
जैसे विराट देश की इतनी बड़ी हस्ती यानी प्रधान मंत्री का संदेश कभी हमारे हाथ
आयेगा । इसी अपूर्व उपलब्धि ने रवि जी को
चरम आनन्द की स्थिति में पहुँचाया और वे
मंच पर बोल नहीं पाये । इस सम्मेलन के आयोजकों की निष्ठा, तत्परता
और आत्मीयता के साथ-साथ कर्तव्य परायणता को देखकर ऐसा लगता
था जैसे भारतीय मूल की यह नई पीढ़ी उन सभी अधिकारों को प्राप्र करने में सक्षम है
और सफल होगी जिनसे उपनिवेशवादी ताकतों ने इनसे पहले की पीढियों को वंचित रखा। भला
ऐसा देश जहाँ हिंदी का पठन पाठन वर्षों से बाधित रहा हो वहाँ अन्तरराष्ट्रीय हिंदी
सम्मेलन करना क्या साधारण उपलब्धि हो सकती है । सम्मेलन भी ऐसा जहाँ राष्ट्रपति,
प्रधान मंत्री विदेश मंत्री, संसद के अध्यक्ष,
विरोधी दल के नेता, संसद सदस्य, पत्रकार, प्राध्यापक, लेखक,
विचारक और पन्द्रह देशों के प्रतिनिधि उपस्थित हों और सभी ओर प्रेम
तथा भाई-चारे का भाव बराबर बना रहे । आयोजकों ने यह भी
व्यवस्था की थी की सभी विदेशी प्रतिनिधि अलग-अलग परिवारों के
अतिथि हों ताकि कहीं किसी को कष्ट न रहे ।
मुझे और साहित्यकार सांसद
शंकर दयाल सिंह को हिंदी निधि के अध्यक्ष श्री च. सीताराम
ने अपने घर ठरहाया और श्री यशपाल जैन और श्री राजेन्द्र अवस्थी श्री इदु अमीर के
घर ठहरे । प्रो. माजदा असद को तो संसद की अध्यक्षा श्रीमती
उषा शिवपाल अपने घर ले गईं और इसी प्रकार भाषा के बहाने भाई-चारे
की भाव-भूमि भी सुदृढ़ हुई। भारत के मेहमान जैसे अपने ही घर
टिक कर एक नई उभरती पीढ़ को दूर देश मे नई चुनौतियों का सामना करते देख पाये और
इसने दो देशों कि अपनेपन को भी सुदृढ़ बनाया । मैंने अपने आतिथेय का नाम बराबर
सुना “चांका सीताराम”। मुझे अचरज हुआ और उनसे पूछने पर पता चला कि दरअसल उनका नाम
चन्द्रिका सीताराम है लेकिन पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव में भ्रान्त धारणा भी खूब
प्रचारित होती है कि यदि इस देश में कोई भारतीय कभी प्रधान मंत्री बना तो पुलिस और
सेना बगावत कर देगी। विदेशी शासन ने ही अफ्रीकी मूल के लोगों को उनकी अपनी
संस्कृति से काटकर अपने धर्म और अपनी पश्चिमी संस्कृति में सराबोर कर दिये किन्तु
बचे रह गये- ये हिन्दुस्तानी जो उनके जाल में न तब फंसे और न
अब फंसते दिखाई पड़ते। इसी पृष्ठभूमि में हिंदी को देखना होगा जो राजनीति के
अखाड़े में गेंद की तरह उछाली जाती है और बार-बार किये गये
वायदों के बावजूद जाति, धर्म, वर्ण और
राजनीति के दलदल में फंस-फंस जाती है। लेकिन जब हमारा यह
संकल्प है कि हम हिंदी सीखेंगे, पढ़ेंगे, लिखेंगे तो हमें कोई रोक नहीं सकता। मैंने स्वयं अपने गाँव के एक बुजुर्ग
से हिंदी सीखी, हिंदी की प्रारम्भिक पुस्तकें मंगाई, फिर पत्राचार पाठ्यक्रम और लिंग्वाफोन का सहारा लिया। आज भी हिन्दू महासभा
के अनेक स्कूल हैं उनसे भी अधिक मन्दिर और मस्जिद हैं और अपने को ही हमारे हितों
के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। उत्तर स्पष्ट है कि हम हिंदी के
प्रचार प्रसार के अपने प्रयास को समानता और वाजिब हकों के अपने संघर्ष के साथ
जोड़कर चलायें आखिर हिंदी को भी फ्रेंच,स्पैनिश, लैटिन और ग्रीक की तरह पढ़ाये जाने का हक तो हासिल होना ही चाहिए।
श्री वासुदेव पाण्डे के इन
विचारों का समर्थन अनेक लोगों ने किया चूंकि वे उस देश कि सर्वश्रेष्ठ जुझारू नेता
हैं और उनका मानना है कि उस देश की राजनीतिक शब्दावली में “नमक हराम” शब्द का
अवदान नितांत उनका अपना योगदान है। उन्होंने सम्मेलन के आयोजन को एक शुभ संकेत
बताया और कहा कि इस प्रकार के विचार विमर्श द्वारा ही हिंदी के प्रचार प्रसार का
मार्ग प्रशस्त करेंगे और हिंदी निधि के पार्यकर्त्ता निश्चय ही धन्यवाद के पात्र
हैं। सम्मेलन में विभिन्न विषयों पर सांगोपांग चर्चा केबाद कई प्रस्ताव सर्वसम्मति
से पारित हुए जिनमें प्रमुख थे-हिंदी के पठन पाठन की
व्यवस्था को ट्रिनिडाड में सुदृढ़ करना, राष्ट्र संघ की
मान्यता प्राप्त भाषाओं में हिंदी को स्थान दिलाना तथा 1994 में
जब भारतीयों के ट्रिनिडाड आगमन के डेढ़ सौ साल पूरे हों तब हिंदी निधि एक
अन्तरर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन का आयोजन करे।
इस पूरे सम्मेलन का
शुभारंभ और समापन समारोह पूरे स्नेह और सद्भाव के वातावरण में सम्पन्न हुआ ।
पहलेदिन ही उद्घाटन के अवसर पर इस बात कासंकेत सभीकोमिल गयाथा कि ट्रिनिडाड के लोग
भले ही अब हिंदी बोलने में समर्थ सक्षम नहीं हैं किन्तु उनकाभारत प्रेम किसी इसे
“चांका” बनादिया और इसी प्रकार अनेक शब्द अपना मूल रूप छोड़कर कहां पहुँच गये हैं
कि उनकी खोज करना भी आसान नहीं रहा फिर भी हमारे सांस्कृतिक नवजागरण और अपनी जड़ों
की खोज से एक नई ऊर्जा नई पीढ़ी में उदित हो रही है जो हमें अपनी मंजिल तक पहुंचा
देगी। उनके घर में भी जो साज सज्जा थी उसमें अधिकांश भारत का प्रतिनिधित्व था और
वैसा ही साज संगीत, भोजन-व्यंजन, वेश भूषा और सबसे ऊपर “अतिथि देवो भव” की भावना । भावना के साथ-साथ अभी भाषा भी तो कुछ कुछ बची
ही है और आज भी उनकी बोलचाल में चूल्हा, तवा, कलछुल,भात, दाल, चटनी, तरकारीसधान,मचान,करिखा,सतुआ, झाखी, झटहा, हंसुली, आजा, झगड़ा, वासी, पूजा, प्रसाद, लकरपेज, गंदा, ज्ञान, पागल और नमकहराम जैसे शब्द तो आमफहम हैं फिर
कुछ लोग अभी भी हिंदी बोल ही लेते हैं। अतः मन्दिर, मस्जिद,
ईद, दीवाली, होली,
फगवा, शिवरात्रि, जन्माष्टमी,
रामनवमी, दुर्गापूजा आदि का सहारा लेकर हि्दी
अपनी पुरानी स्थिति को प्राप्त कर लेगी इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं। सम्मेलन
के आयोजनक इस बात से बड़े प्रसन्न थे कि भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद् ने अपने
पाँच प्रतिनिधि भेजे और उनका मार्ग व्यय
भी भारत सरकार ने दिया। यह बात उनको अधिर अच्छी इसलिए बी लगी चूकि विदेशी
प्रतिनिधियों में से अधिकांश के मार्ग व्यय का दायित्व हिंदी निधि को वहन करना
पड़ा और वे कृतज्ञ थे कि भारत के उप राष्ट्रपति डॉ. शंकर
दयाल शर्मा ने अनपा संदेश और प्रतिनिधि मंडल भेजकर ट्रिनिडाड का मान बढ़ाया।
इस अन्तरराष्ट्रीय हिंदी
सम्मेलन के समाप्त हो जाने के बाद मुझसे ट्रिनिडाड के ऐसे सुपठित और ज्ञानी सज्जन
मिलने आये जिन्होंने बताया कि इस देश में हिंदी सदियों से संघर्ष करती आई है और अब
भी हमारा रास्ता निष्कंटक हो, ऐसा नहीं है। उन्होंने
बताया कि आज से पचास साल पहले एक मताधिकार आयोग का गठन हुआ था जिसने यह सिफारिश की थी कि इस मुल्क में जिन्हें
अंग्रज़ी का ज्ञान नहीं है उन्हें वोट देने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। यदि यह
बात मान ली जाती तो हमारे हिन्दुस्तानी भाई जो अधिकांशतः गांवों में रहते हैं-वे तो वैसे ही अपने अधिकार से वंचित हो जाते किन्तु हमने हिंदी का दामन
थामें रखा चाहे इसे लिए हमें अंग्रेज शासकों या उनके अंध भक्तों की लाख प्रताड़ना
सहनी पड़ी। कदम कदम पर हमें यह उपेदश दिया
गया कि हम अपना धर्म, अपनी संस्कृति और अपनी भाषा को भुलाकर
उस महासमुद्र में विलीन हो जायें जहां हमारी अपनी पहचान मिट जाये और हम वैसे हीबन
जायें जैसा हमारे मालिक हमारे स्वामी हमें बनाना चाहते हैं लेकिन हमारे परखे तो उस
माटी की उपज थे जहाँ राम, कृष्ण, अशोक,
अकबर, गाँधी और नेहरू पैदा हुए थे और हमारे
साथ थे सूर, तुलसी,कबीर, और मीराष हम उन संत महापुरुषों की वाणी को अपना गलहार बनाकर बड़ी से बड़ी
विपदा को झेल जाने की शक्ति रखते हैं और यही कारण है कि इस मुल्क की आजादी के
पूर्व और बाद में भी जो चुनाव हुए उसमें हमने यह दिखा दिया कि हम तमाम जातियों के
साथ प्रेम और सौहार्द्रपूर्वक भाई-भाई की तरह रहा जानते हैं
यह हमारा कर्तव्य है, किन्तु हम अपनी अस्मिता को मिटने नहीं
देंगे और हमारी पहचान की प्रतीक है हमारी भोजपुरी हिंदी। यदि यहीमिट गई, तो हमारा बचना क्या और मिटना क्या। उन्होंने ही बताया कि आजादि के बाद
धीरे-धीरे यह बात सभी मानने लगे हैं कि हिंदी को मात्र एक
जाति की भाषा के रूम में या राष्ट्रीय, जातीय समरसता के बाधक
तत्व के रूप में देखते परखते रहे तो यह एक ऐतिहासिक भूल होगी और यदि हमने राष्ट्र
की शक्ति, एकता के सूत्र में इसे स्वीकार किया तो हमारा देश
निश्चय ही अधिक सम्पन्न और शक्तिशाली बनेगा। सम्मेलन कराने वाली संस्था हिंदी निधि
ने तो यह घोषणा पहले ही कर दी है कि इस देश में रहने वाले तमाम लोग अपने पुरखों के
देश की भाषा का ज्ञान अर्जितकरें, हम एक दूसरे की भाषा क भी
जाने और सीखें ताकि हमारी आपसी समझदारी बढ़े और कटुता की सभी गांठे कट जायें।
सरकार भी इस सच्चाई को स्वीकार करती है और इसीका प्रमाण है कि “दिवाली नगर” के लिए
हमें पन्द्रह एकड़ जमीन दी गई है और उसे
हम ऐसा केन्द्र बना रहे हैं जहां भारतीय संस्कृति की विशिष्टता, उसकी गरिमा और सुवास का आनन्द लेने एक दिन अमरीका और यूरोप के अनेक लोग
आयेंगे। हिंदी और हिन्दुस्तानी की महत्ता को दर किनार कर इस देश में कोई बहुत कुछ
नहीं कर पाया और इसके प्रमाणस्वरूप उन्होंने हमेंबताया कि इस देएश में जब
धर्मान्तरण की लहर चल रही थी तो सभी मिशनरी विफल रहे और कुछ सफलता मिली भी तो
कनाडा के मिशन को जिसने धर्मप्रचार के लिए न्दी कासहारा लिया। हमारे हृदयच का
द्वार तो हिंदी की दस्तक ही खोल सकती है और हमें पूरी आशा है कि हमारे पुरखों का
देश, जहां भारतीय संस्कृति की प्रतिमूर्ति महामान्य डॉ.
शंकर दयाल शर्मा और यशस्वी विद्वान महामान्य नरसिंह राव जैसे भारत
के कर्णधार विद्यमान हैं वहाँ से हमें
अपनी भाषायी सासंकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में कभी बाधा नहीं आयेगी । चूँकि यह
मात्र हमारी अपेक्षा ही नहीं बल्कि हमारा अधिकार भी है। हिंदी की अभिवृद्धि,
उसका अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्र में विकास हमारे भारत देश के प्रेम और
भाई चारे का संदेश है और हम सभी चाहते है कि “वसुधैव कुटुम्बकम्” का उदार उदात्त
भाव, भारतीय भाषा और संस्कृति संसार के कोने में पहुँचे तथा
कलह, कोलाहल से परिव्याप्त आज का मानव संसार सच्चा त्राण
पाये और उसके समग्र कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो।
मैं और
मेरा हिंदी प्रेम
लोग मुझसे पूछते है कि आपको
हिन्दी से इतना प्रेम क्यों है? अपने देश मे ही जब लोग
हिन्दी को लात मारकर अंग्रेजी मे बोलना अपना शान समझते है, हिन्दी
मे बोलने वाले को पिछड़ा समझा जाता है । अंग्रेज़ी में बोलने वाले को ज्यादा
सम्मान दिया जाता है, फिर आप क्यो हिन्दी के झन्डे गाड़ने के
चक्कर मे रहते हैं ।
दरअसल मै भी दूसरे लोगों
की तरह से ही था, हिन्दी मे पढाई तो जरूर की थी, लेकिन अगर कोई हिन्दी मे लिखने को बोलता था तो नानी याद आ जाती थी। हिन्दी
लिखते लिखते अंग्रेजी पर आ जाता था । लेकिन मेरे को हिन्दी से सच्चा प्रेम तब हुआ
जब मैने यूरोपीय देशों के लोगों और चीनी भाषियों का भाषा प्रेम देखा। जर्मनी और
फ्रान्स में अंग्रे़ज़ी जानने वाले तो बहुत मिलेंगे लेकिन शायद ही आप उनको
अंग्रेज़ी में बात करने पर राजी करा पायें. यही हाल लगभर
यूरोप के बाकी देशों का है, मै मानता हूँ कि स्थितियाँ बदल
रही है लेकिन अभी भी उनको अपनी भाषा दूसरी सभी भाषाओ से ज्यादा प्यारी है। एक
फ्रांसीसी से मैने पूछा कि तुम्हे अंग्रेज़ी तो आती है फिर क्यों फ्रेंच मे बात
करते हो, तो बोला कि मुझे गर्व है कि मै फ्रांसीसी हूँ,मुझे अपने देश और संस्कृति से प्यार है, इसलिये मै
फ्रेन्च मे बात करता हूँ, और अंग्रेज़ी का इस्तेमाल सिर्फ
तभी करता हूँ जब अत्यंत जरूरी हो । यकायक मुझे लगा क्या हम हिन्दुस्तानी अपने देश
या संस्कृति से प्यार नही करते।
मै आपको अपना एक अनुभव
बताता हूँ, मै लन्दन के एक म्यूजियम मे अपने मित्र के साथ
टहल रहा था, किसी एक कलाकृति पर नजर डालते ही मैने अपने
मित्र से कलाकृति के मुत्तालिक अंग्रेज़ी में कुछ पूछा, मित्र
ने तो जवाब नही दिया लेकिन बगल मे एक बुजुर्ग फिरंगी खड़ा था, उसने ठेठ हिन्दी मे जवाब दिया, मै तो हैरान, हमने एक दूसरे को अपना परिचय दिया, इन फिरंगी महाशय
की पैदाइश हिन्दुस्तान की थी,ये पता चलते ही कि मै उत्तर
प्रदेश से हूँ, उस फिरंगी ने बाकायदा भोजपुरी मे बोलना शुरु
कर दिया,हद तो तब हो गयी जब उसने मेरे से ठेठ भोजपुरी मे कुछ
पूछा और मैने जवाब देने के लिये बगलें झाँकते हुए अंग्रे़ज़ी का प्रयोग किया.उस दिन बहुत शर्म आयी कि हम अपनी भाषा होते हुए भी अंग्रेज़ी को अपना
सबकुछ मानते है । आखिर क्यों?
कुछ दक्षिण भारतीय भाइयो
का यह मानना है कि हिन्दी एक क्षेत्रीय भाषा है, हालांकि
मै उनकी बात से सहमत नही हूँ, फिर भी मै उनकी मजबूरी समझता
हूँ कि वे हिन्दी मे लिख पढ नही सकते, इसलिये अंग्रेज़ी मे
बोलते है, लेकिन कम से कम अपने उत्तर भारत मे तो हिन्दी को
उसका पूरा सम्मान मिलना चाहिये । अब सुनिये मेरा हिन्दुस्तान के दौरे का वाक्या.
मै दिल्ली से रूड़की जा रहा था, ट्रेन मे एक
जनाब से मुलाकात हो गयी, किसी कालेज मे प्रोफेसर थे, मै नाम नही बताऊंगा, रास्ते भर मेरे से बतियाते रहे,
मेरा परिचय जानकर कि मै अप्रवासी हूँ अंग्रेज़ी मे शुरु हो गये,
मैने उनके सारे जवाब हिन्दी मे ही दिये, लेकिन
वो थे कि अंग्रेजी से नीचे ही नही उतर रहे थे। लगातार उनकी बकझक सुनकर मैने आखिर
पूछ ही लिया, क्या आपको हिन्दी मे बोलने मे शर्म आती है,
वे खींसे निपोरने लगे, और बातों ही बातो मे
मान लिया कि हिन्दी मे बोलने मे शर्म आती है,अंग्रेजी मे
बोलना ही भद्रता की निशानी है। मैने जब उनको बताया कि दुनिया जहान के लोग अपनी
अपनी भाषा से प्यार करते है,हम भारतीय क्यों नही करते। जब आप
प्रोफेसर होकर ऐसी बात सोचते है तो आपके छात्रों का क्या होगा…..जनाब के पास कोई जवाब नही था। हम क्यों ऐसा करते हैं कि अच्छी अंग्रे़ज़ी
बोलने वाले के पीछे लग लेते है, और हिन्दी बोलने वाले को
किनारे बिठाते है।सरकार भी हिन्दी दिवस मनाकर अपनी खानापूर्ति करती है और समझती है
कि हिन्दी का सम्मान हो गया.हम लोग बोलते है कि यह सरकार की
जिम्मेदारी है कि हिन्दी को उचित स्थान नही मिला, यह हमारी
गलती है, कि हम क्यो नही हिन्दी को अपनाते। क्यों नही अपने
बच्चों को हिन्दी मे बोलने के लिये प्रोत्साहित करते । कंही हम सभी तो हिन्दी के
इस बदहाली के लिये जिम्मेदार नही है? आपका इस बारे मे क्या
कहना है ।
मैं
हिंदी में क्यों लिखता हूँ
अमां यार क्यों ना लिखे, पढे हिन्दी मे है, सारी ज़िन्दगी हिन्दी सुनकर
गुजारी है। हँसे, गाए, रोये हिन्दी मे
है, गुस्से मे लोगो को गालियां हिन्दी मे दी है, बास पर बड़्बड़ाये हिन्दी मे है। हिन्दी गीत, हिन्दी
फ़िल्मे देख देखकर समय काटा है, क्यों ना लिखे हिन्दी?
मेरा हिन्दी प्रेम तो वैसे ही बहुत पुराना है, इसलिये उस बारे मे बताकर समय व्यर्थ नही करूंगा। हिन्दी मे लिखने के लिये
सबके अपने अपने कारण होंगे, क्योंकि हम सभी अंग्रेजी मे भी
लिखने की क्षमता रखते है, फ़िर भी हमने हिन्दी ही चुनी। मेरे
तो निम्नलिखित कारण है:
हिन्दुस्तान को छोड़ते समय
लगा था, शायद हिन्दी पीछे छूट गयी और अब तो बस अंग्रेजी
से ही गुजारा चलाना होगा, लेकिन कुवैत मे आकर देखा कि पूरा
का पूरा हिन्दुस्तान, या ये कहो को पूरा का पूरा साउथ एशिया(अविभाजित हिन्दुस्तान) एकजुट होकर, साथ साथ रह रहा है। सबके सुख दु:ख, खुशी गम, तीज त्योहार, सभी तो
एक सा है।सभी लोगो हिन्दी/उर्दु बोलते है, जो लोगो को एक दूसरे से जोड़ती है। क्या इन्डियन,क्या
पाकिस्तानी और क्या बांग्लादेशी, सब एक है। मज़हब अलग अलग है
तो क्या बोली तो एक है।
इन्टरनैट पर हिन्दी पिछड़ी
हुई है, इसमे कोई शक नही, हम
हिन्दी ब्लागर, वैब पर हिन्दी मे लिखकर, उसे मरने से बचा रहे है।हम किसी पर कोई उपकार नही कर रहे है, बल्कि हम एक विशिष्ट पाठक वर्ग ढूंढ रहे है, जो सिर्फ़
हिन्दी मे ही सोचता है, हिन्दी बोलना,सुनना,देखना चाहता है और हिन्दी मे ही पढना चाहता है, लेकिन
इन्टरनैट पर उसे हिन्दी दिखती ही नहीं ।
मै शुरु-शुरु मे सिर्फ़ अंग्रेज़ी के ब्लाग पढता था, लेकिन
बाद मे पढना कम करदिये, क्योंकि अब मुझे हिन्दी मे ही अच्छा
पढने को मिल जाता है। सीधी-सीधी बात है, यदि मेरे सामने हिन्दी और अंग्रेजी की इन्डिया टूडे सामने पड़ी हो तो मै
हिन्दी वाली पहले उठाऊँगा।
हिन्दी बोलकर और हिन्दी मे
लिखकर मुझे संतुष्टि होती है, एक दिन ब्लाग नही लिखता
हूँ तो लगता है, कंही कुछ छूट रहा है। लेखन का ऐसा बुखार चढा
है कि दोस्तो यारों को ब्लाग पढाकर ही दम लेता हूँ। और तो और, बहुत सारे कुवैती और मेरे कुछ पाकिस्तानी दोस्त जो हिन्दी नही पढ पाते,
लेकिन समझ लेते है, वे भी रोजाना किसी ना किसी
को पकड़कर हिन्दी ब्लाग पढवाते है। उनके द्वारा दिनोदिन की जाने वाली तारीफ़ बताती
है कि हिन्दी चिट्ठाकारी दिन पर दिन जवां होती जा रही है।
दरअसल हिन्दी पढने वाले
पढना तो चाहते है, लेकिन फ़ोन्ट वगैरहा के झमेले से डरते है। फ़िर
क्या है कि अभी इन्डिया मे इन्टरनैट सिर्फ़ मनोरंजन, इमेल,
चैट या जरुरी जानकारी के लिये प्रयोग होता है। अभी इन्टरनैट लोगो की
जीवन शैली मे रचा बसा नही है, जैसा पश्चिम मे है, जिस दिन वो सब होगा, भारतवासी हिन्दी मे साइट ढूंढना
शुरु करेंगे। सीधी सी बात है, यदि दाल रोटी सामने मिलगी तो
बर्गर पिज्जा ज्यादा दिन नही तक पसन्द नही आयेगी।
मेरा अपना एक अनुभव है कि
लोग बाग सेक्स, यौन और दूसरे कई अपशब्द ढूँढते हुए, ना जाने कितनी साइटो को कूदते फ़ांदते मेरी साइट पर आते है। लेकिन एक बार
मेरी साइट या दूसरे ब्लागर की साइट पर लिखे लेख पढने के बाद, हिन्दी चिट्ठाकारों की साइट को बुकमार्क करने के लिये मजबूर हो जाते है।
अब ये तो नही कहूँगा कि ये शब्द ढूंढने वाले ठरकी है। लेकिन एक बात तो है, बुरी बात का प्रचार प्रसार जल्दी होता है। इसलिये मेरे ब्लाग को शायद कम
ही लोग जानते होंगे, ठरकी और देसी बाबा को जानने वाले हजारों
मिल जायेंगे।
अब बात करते हैं दूसरी
भाषाओं की, इन्टरनैट पर किसी भी भाषा का विकास तभी सम्भव है,
जब उसका ज्यादा से ज्यादा कन्टेन्ट उपलब्ध हो, अच्छा बुरा, कुछ भी। हर तरह का कन्टेन्ट होना
चाहिये। आप फ़ारसी भाषा देखिये, चीनी और जापानी भाषाएँ
देखिये, यूरोपियन भाषायें देखिये, हर
भाषा मे आपको इतनी साइट मिल जायेगी कि कन्टेन्ट की कमी नही है। और हिन्दी, अभी तो शुरुवात है, हम तो अभी अभी फ़ोन्ट शोन्ट के
पंगे से बाहर निकले है, थोड़ा समय लगेगा।
आज हम जो हिन्दी लिख रहे
है, निश्चय ही, आने वाले समय मे इस हिन्दी पर शोध होगा।
लोग प्रोजेक्ट बनायेंगे और कार्यशालाए आयोजित करेंगे। हम ना रहेंगे, तुम ना रहोगे, हमारा लिखा जरुर रहेगा। आज भले ही हमे
कुछ गिनती के लोग पढ रहे हो, लेकिन एक दिन आयेगा, जब लोग हमे याद करेंगे और हमारे हिन्दी के योगदान को सराहेंगे। बस यही
कहना चाहता हूँ। सुदुर देश में हिन्दी का मह्त्व
हिन्दी हम भारतीयों कि
राष्ट्रभाषा है और अनेक भारतीयों ने इसे मातृभाषा के रूप में भी स्वीकार किया हैं।
विश्व में हिन्दी चंद भाषाओं में से एक है ,जिसमे उच्चारण के अनुसार
शब्द लिखे और पढ़े जा सकते है , इसी कारण हिन्दी जानने वालों
को अन्य भाषा के शब्दों के उच्चारण करने मे असुविधा नही होती। जहाँ हिन्दी में मात्राओं और अक्षरों का अत्यंत
मह्त्व है उदारणार्थ -
"वह पिता है" - " वह पीता है" -" वह पीटा है"-
"वह चिता है"-" वह चीता है"-" वह चिंटा है"
वहीं हिन्दी भाषा का
मह्त्व विश्व की अनेक प्रचलित भाषा की तुलना मे कोई कम नही है | संपन्न शब्कोश से परिपूर्ण
हिन्दी भाषा का प्रसार अब तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नही हो पाया यह एक विडंबना ही
तो है !
आमतौर पर अनिवासीय भारतीय
जब मातृभूमि से बाहर सुदुर देश मे व्यवसाय, अध्ययन, धर्नाजन इत्यादि हेतु प्रस्थापित होने लगते हैं तब समय परस्थिति अनुसार
उनका रीति-रिवाज़, घर-परिवार, साहित्य-भाषा और
संस्कृति से संबंध क्षीण होने लगता हैं, मानो ग्रीष्म ऋतु
में नदी का जल सूख कर उसे दो तटों में अलग करने का असफ़ल प्रयास कर रहा हो ।
हालाँकि वर्षा ऋतु के आगमन से नदी जलमग्न हो जाती है और सर्वत्र हरीयाली खुशहाली
बिखराती है दोनों तट भी जुड कर एक हो जाते हैं इसी तरह यदि हिन्दी भाषी जनसमुदाय व
परिवार जो दूर देशों मे बस रहें हैं हिन्दी का प्रयोग आपस की बोलचाल, वार्तालाप एवं ई-मेल आदि के लिये करने लगे तो संभव
है की ये प्रयास सेतु-बंध का रूप ले जिससे नदी भी ना सूखे और
उस पर निर्मित सेतु निरंतर आवागमन के लिये उपयोगी सिद्ध हो सके।
बहुत से भारतीयों का भ्रम
है की अगर बच्चों से घ्रर में हिन्दी में बात की जाय तो वे अमेरिकी स्कूलों में
पिछड़ जायेंगे या बुद्धू कहलायएगें । वैज्ञानिक ढंग से किये गये सर्वेक्षणों मे यह
पाया गया है की एक से अधिक भाषा जानने वाले विघार्थी सशक्त विचारक होते है और
अध्यन में उनकी मातृभाषा का ज्ञान बाधक नहीं बल्की सार्थक सिद्ध होता है। विदेशों
में बच्चों को हिन्दी की शिक्षा दिलवाना कठिन कार्य है, इसकी सफ़लता मे परिवारजनों का योगदान अत्यंत आवश्यक एवं अनिवार्य है।
प्रायः ये देखा गया है की विदेशों मे नयी पीढ़ी को इस भाषा का ज्ञान हिन्दी सिनेमा
या हिन्दी- अंगरेज़ी मिश्रित टीवी मनोरंजन द्वारा ही मिलता
है जो अस्थायी और अपर्याप्त है, मानो वर्षा का पानी भूमि पर
बरस कर समुद्र के खारे पानी में बह कर मिल रहा हो। हिन्दी का उपयुक्त संचार करने
के लिये यथा संभव बोलचाल में प्रयोग करें, हिन्दी पढ़ना और
लिखना सीखें और सीखायें जिससे एक ओर हमारा युवा वर्ग अपनी राष्ट्रभाषा मे निपुण हो
सके और दूसरी ओर हम स्वंय विरासत में प्राप्त इस संपदा का उपभोग कर सकें।
इस युग में समय का सदउपयोग
अत्यंत अनिवार्य है साथ ही साथ मन पसंद कार्यों के लिये समय निकालना भी आवश्यक है, आजकल हिन्दी सीखने और सिखाने के प्रचुर साधन इन्टरनेट मे सामान्य क़ीमतों
पर अथवा मुफ़्त मे उपल्ब्ध है।
विभिन्न हिन्दी पत्र - पत्रिकायें, चिठ्ठे ( ब्लॉग ),
कविताओं के फ़ोरम जैसे माध्यम, बीते हुये युग
की याद दिलाते है और पराग, चंपक, अमर
चित्र कथा, धर्मयुग, सरिता-मुक्ता जैसी पत्रिकाऐं आँखों के सामने मंड़राने लगती है ! ऐसा लगता है, आते हुये समय मे हिन्दी साहित्य का
अपार भंडार अन्तरजाल पर उपल्ब्ध हो जायेगा और हम लोग फ़िर जुड़ पायेंगे बीते हुये
और बिछड़े हुये दौर से जिनकी यादें जीवन की आपाधापी में गायब होती जा रही है।
अमेरीकी सरकार ने हिन्दी
शिक्षा हेतु अमेरिकी संस्थाओं एवं विश्वविध्यालयों मे अनेक कार्यक्रम आयोजित
करवाये हैं जिससे भारतीय मूल के लोगों के अलावा अनेक देशों के विद्यार्थियों मे
हिन्दी के प्रति जागरुकता बड़ी है। ऐसी अनेक स्वंयसेवी संस्थायें अमेरीका के अनेक
राज्यों मे सक्रिय है जहाँ सप्ताह अंत में बच्चों को हिन्दी की शिक्षा दी जाती है।
आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि अनिवासीय भारतीयों के अथक प्रयासों सें अमेरिकन
स्कूलों के पाठ्यक्रम मे हिन्दी ने अपना स्थान बनाना प्रारंभ कर दिया है ।
राष्ट्रभाषा की सेवा करना
हमारा उत्तरदायित्व है। हम अनुष्ठान करें कि जिस भाषा ने हमारी प्राचीन संस्कृति
और सुदीर्घ साहित्य से हमें जोड़ रखा है उसका प्रचार-प्रसार करने के प्रयास हम जारी रखें, साथ ही साथ
संकल्प लें कि विरासत में मिली इस धरोहर को नवयुवकों और आने वाली पीढ़ी को सौंपकर
उन्हे हिन्दी समझने एवं ग्रहण करने मे सहायता करेंगे अन्यथा हमारी प्यारी हिन्दी
भाषा अपनी योग्यता के अनुरूप यथास्थान पाने से वंचित न रह जाये ?
डर इस बात का भी है कि जिस
तरह पिछ्ली शताब्दियों मे इसे रौदंने के प्रयास तथाकथित शासकों ने कायरता पूवर्क
किया था वैसे ही आज कि परिस्तिथियों में जाने-अनजाने
स्वत: हम इसे कुचल ना डाले !!
समकालीन प्रौद्योगिकी और
विज्ञान से संबधित शब्दों का समावेश हिन्दी भाषा के शब्दकोश मे करना और व्यापक रूप
से हिन्दी का प्रचार देश-विदेशों में जारी रखना समय
की आवश्यकता है । विश्व्वविद्यालय, सरकारी-गैर सरकारी, व्यवसायिक, सामाजिक
संस्थायें और व्यगक्तिगत रुप से हम सब मिलकर हिन्दी का उपयोग करते रहें। उपल्ब्ध
सभी साधनों का यथा उचित प्रयोग करें तो वो दिन दूर नही जब न केवल हम भारतीय मूल के
लोग अपितु विदेशी लोग भी इस समृद्धशाली भाषा के उपासक बन जायेंगे । 8 वाँ "विश्व हिन्दी सम्मेलन" जो 13-14-15 जुलाई 2007 को
न्युयार्क शहर में आयोजित किया गया है उसमे इन विषयों पर न केवल चर्चा होगी बल्कि
क्रियान्वन के ठोस कदम उठाये जायेंगे ऐसी आशा है ।
" बिन गुरु विध्या समझ ना पायें, बिना व्याकरण भाषा"
" काला अक्षर भैंस बराबर दुनिया लगे तमाशा"
" पढ़ो व्याकरण हिन्दी सिखो..हिन्दी अपनी भाषा"
" भारत माँ कि यह है बिन्दी.. यही देश की आशा "
गयाना
में भारतीय संस्कृति और हिन्दी
विश्व-विख्यात नाविक कोसम्बस ने 1498 में दक्षिण अमरीका के
इस उत्तर-पूर्वी तट को देखा था जिसे बाद में संसार स्वर्ण
द्वीप (एल-टोराटो) के रूप में जानने लगा । चूंकि इस क्षेत्र में काफी नदियाँ थीं और अपार जल-भंडार था इसलिए इसे “गाइना” कहा जाने लगा जो एक अमरीइंडियान शब्द हैं,
जिसका अर्थ होता है- अनेक जलराशियों का देश।
यह वाइना से निकला हुआ शब्द है जो आज भी अमरीइडियन लोगों के बीच पानी का पर्याय
है। इस स्वर्ण द्वीप की तलाश में कोलम्बस के बाद भी अनेक नाविक आए लेकिन उन्हें
लेकिन उन्हें हमेशा प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। अब तक उपलब्ध
प्रमाणों के अनुसार 1593 में सर वाल्टर रैले एलिजाबेय
साम्राज्य के विस्तार के लिए इस क्षेत्र में आए थे और उन्होंने अपने अनुभवों को
“डिस्कवरी ऑफ लार्ज, रिच एंड ब्यूटीफल एंपायर ऑफ गयाना” नाम
से प्रकाशित कराया। बाद में अंग्रेजी के अनेक साहित्यकारों ने गयाना की समृद्धि और
सौंदर्य का वर्णन अपनी रचनाओं में किया। इन रचनाकारों में शेक्सपियर, मिल्टन, हडसन तथा कॉनन डॉयल के नाम उल्लेखनीय हैं। 83,000
वर्गमील के इस भूभाग में 16 वीं शताब्दी के
पूर्वार्द्ध से 19 वीं शताब्दी के प्रारंभ तक स्पेन, डच, फेंच तथा ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के आपसी संघर्ष
चलते रहे। अंततः 1803 में ब्रिटेन ने इस क्षेत्र के एक बड़े
भाग पर स्थायी तौर से अपना अधिकार जमा लिया तथा 1814 में
ब्रिटिश गयाना उपनिवेश की स्थापना हुई । उस समय तक ब्रिटिश गयाना के गन्ने के
खेतों में अफ्रीकी नीग्रो काम करते थे, जो दास प्रथा के
अंतर्गत गयाना आए थे। उनके नारकीय जीवन की कहानी मानवता के इतिहास में एक शर्मनाक
घटना बन चुकी थी। दास-प्रथा की निर्ममता एवं क्रूरता के प्रति
ब्रिटेन में विरोध उभरा तथा 1834 में ब्रिटिश सरकार ने दास-प्रथा को समाप्त करने की घोषणा कर दी।
दास प्रथा की समाप्ति की
घोषणा के बाद गयाना के बागान-मलिकों के समक्ष मजदूरों की
समस्या पैदा हो गई क्योंकि नीग्रों लोग अपने को स्वतंत्र समझने लगे। उसी समय एप्रेंटिसशिप
प्रावधान लागू किया गया जिसके तहत 1838 तक नीग्रो मजदूरों को
दास बनकर काम करना पड़ा । इस बीच बागान मालिकों ने वेस्टइंडीज तथा मडेइरा से
संविदा के आधार पर मजदूर मंगवाना शुरू किया जो गयाना के खेतों में सफल नहीं रहे।
अंततः इस उपनिवेश के बीडेन-हूप तथा ब्रीडस्टेन नामक बागानों
के मालिक जॉन ग्लैंडर्स एंड कंपनी को भारत से गयाना के मजदूरों को भेजने की
संभावनाओं के बारे में पूछा। उस फर्म ने गलैडस्टोन को लिखा कि हम नहीं सोचते कि
वेस्टइंडीज में यहाँ से मजदूरों को भेजने में कोई कठिनाई पैदा होगी क्योंकि यहाँ
के लोगों को तो यह मालूम ही नहीं होगा कि वे कहाँ जा रहे हैं तथा उन्हें कितनी
लंबी यात्रा कैम हॉनहाउस को 23 फरवरी 1837 को तथा ब्रिटेन के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर द कॉलोनिज लार्ड ग्लेनेलज को
मार्च 1837 में पत्र भेजकर भारत से मजूदरों के आयात की
अनुमति ले ली।
कलकत्ता की फर्म ने
ग्लैडस्टोन को जो उत्तर भेजा उससे जाहिर होता है कि मजदूरों को यह साफ-साफ नहीं बताया जाता कि वे कहाँ और कितनी दूर जा रहे हैं। लेकिन इतना सच
है जो लोग भारत से बाहर जा रहे थे वे अपने मन में बेहतर भविष्य का सपना संजोए हुए
थे और इस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए हर प्रकार की चुनौतियों का सामना करने को तैयार
थे। इन अज्ञात महापुरुषों की अंतहीन यातना की यात्रा 1838 की
मकरसंक्रांति या पोंगल के दिन 13 जनवरी को शुरू हुई जबकि
व्हिटबी नामक जहाज कलकत्ता से 149 श्रमिकों को लेकर चला। ठीक
उसके 16 दिन बाद 29 जनवरी को 165
श्रमिकों को लेकर हेसपरस नामक जहाज बिदा हुआ । 414 यात्रियों में से 18 की मृत्यु यात्रा के दौरान हो
गई थी। अतः शेष 396 मजदूरों को लेकर दोनों जहाज 5 मई, 1838 को गयाना पहुँचे । इन मजदूरों में 150
की भर्ती छोटा नागपुर के आदिवासी इलाके से की गई थी जिन्हें अंग्रेज
“हिल कुली” कहते थे तथा बाकी मजदूर बर्दवान और बांकुरा जिलों से आए थे। इस प्रकार
यह सुविदित है कि भारत और गयाना के बीच संबंधों की शुरूआत आज से 150 साल पहले हुई थी जबकि “व्हिटबी” और ‘हेसपरस’ नामक दो जहाजों से लगभग 400
शर्तबंद मजदूर दक्षिण अमरीका के इस डेमरारा टापू में आए थे। उस समय
यह द्वीप ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के अधीन था तथा दास प्रथा की समाप्ति के बाद अपने
गन्ने के बागानोंके लिए सस्ती दर पर श्रमिकों की तलाश करते-करते
उन्होंने भारत से मजदूरों का निर्यात किया था । ये शर्तबंद मजदूर पाँच वर्ष के
करार पर गयाना आये थे तथा यहाँ के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे। बाद में शर्तबंद
मजदूर मंगवाने की प्रथा के खिलाफ़ भारत में जोरदार प्रतिक्रिया हुई । गांधी,
बालकृष्ण गोखले, मदनमोहन मालवीय आदि भारतीय
नेताओं ने इस अमानवीय प्रथा का घोर विरोध किया जिसके फवस्वरूप 1917 में ब्रिटिश सरकार को मजबूर होकर शर्तबंद मजदूरों के निर्यात की निर्मम
एवं शर्मनाक प्रथा को बंद करने की घोषणा करनी पड़ी।
1838 से 1917 के बीच आये मजदूर अपने साथ भारतीय रीति-रिवाज,
परंपरा, धर्म, भाषा और
संस्कृति लाए जो आज भी गयाना में जीवित है। यही कारण है कि भारतीय भोजन, भारतीय त्यौहार जन्मोत्सव, विवाह, श्राद्ध आदि की भारतीय प्रथा तथा विशेष अवसरों पर भारतीय पोशाक आज गयाना
के जीवन के अभिन्न अंग बन गये हैं। दापावली, होली, ईद जैसे भारतीय त्यौहारों को गयाना का राष्ट्रीय त्यौहार माना जाता है जो
देश भर में अत्यंत हर्ष एवं उल्लास के साथ मनाये जाते हैं। गयाना के प्राय सभी
राजकीय उत्सवों पर गीता, कुरान तथा बाइबिल के अंशों का पाठ
होता है तथा भारतीय नृत्य एवं संगीत का कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है।
इन संबंधों को सुदृढ़ आधार
प्रदान करने में अनेक धर्म-प्रचारकों तथा सामाजिक कार्यक्रर्ताओं
ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐसे लोगों में भारत के महान क्रांतिकारी तथा समाज-सुधारक भाई परमानंद तथा महात्मा गांधी के सहयोगी दीनबंधु सी.एफ. एंट्रयूज के नाम उल्लेखनीय हैं। भाई परमानंद ने
वर्तमान शताब्दी के दूसरे दशक के प्रारंभ में गयाना में आर्य समाज मंदिर की
स्थापना की तथा यहाँ के भारतीय समुदाय को हिंदी एवं संस्कृत की शिक्षा देने की
व्यवस्था करवाई। इसी प्रकार दीनबंधु सी.एफ. एंड्यूज ने गयाना आकर यहाँ के भारतीयों की समस्या का अध्ययन किया तथा उनके
सामाजिक जीवन में सुधार लाने की सिफारिश की। इसके बाद से भारत से धर्म-प्रचारकों, मिशनरियों तथा समाज-सेवियों के आवागमन का क्रम चलता रहा जिसके परिणाम स्वरूप गयाना में भारत
की छवि एक संघर्षशील राष्ट्र के रूप में उभरी तथा गयाना वासियों ने भारतीय
संवतंत्रता संग्राम को खुले शब्दों में अपना नैतिक समर्थन प्रदान किया। 15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ तो पराधीन गयाना के
गाँव-गाँव में भारतीय स्वतंत्रता समारोह हर्ष एवं उल्लास के
साथ मनाया गया, जिसमें न सिर्फ गयाना में रहने वाले भारत मूल
के लोगों ने बल्कि यहाँ की सभी जातियों और नस्लों के लोगों ने हिस्सा लिया जो
गयाना तथा भारत की जनता के बीच बढ़ते हुए आत्मीय संबंधों का एक अभूतपूर्व उदाहरण
था।
जैसा कि सर्वविदित है, भारत की आजादी का उद्देश्य भारत तक ही सीमित नहीं था। महात्मा गांधी,
पंडित नेहरू आदि नेताओं ने अपने संघर्ष को विस्तृत आयाम दिया था,
जिसमें संसार से उपनिवेशवाद को समाप्त करना, समानता
और विश्व शांति कायम करना और नस्लवाद को समाप्त करना आदि भी शामिल था। जाहिर है कि
भारत ने गयाना की आजादी को अपना पूर्ण समर्थन प्रदान किया। यही कारण है कि गयाना
के स्वतंत्रता संग्राम के नेता डॉ. छेदी जगन तथा उनके सहयोगी
श्री बर्नहम जब भारत गए तो वहाँ उनका भव्य स्वागत किया गया। भारत के तत्कालीन
प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने उनके सम्मान में आयोजित
एक समारोह में गयाना की आजादी की लड़ाई में तथा आजादी के बाद स्वतंत्र राष्ट्र के
रूप में इसके विकास में भारत के पूर्ण समर्थन एवं सहयोग का आश्वासन दिया।
गयाना की स्वतंत्रता से
पहले से ही भारत सरकार गयाना में हिंदी तथा संस्कृति की पढ़ाई के लिए अध्यापक
भेजती थी जो गयाना के गाँवों में जाकर हिंदी तथा भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार करते रहे और जिन्होंने भारत और गयाना के द्विपक्षीय संबंधों को
सौहार्दपूर्ण बनाया । आज भी गयाना के लोग भारतीय संस्ककृति के प्रचार-प्रसार में इन अध्यापकों का नाम आदर के साथ स्मरण करते हैं । इसी तरह मई 1966
में गयाना की आजादी से एक साल पहले ही भारत ने यहाँ अपना राजनयिक
आयोग खोला जिसने दोनों देशों के बीच के द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत बनाने में
सक्रिय भूमिका निभाई है। पिछले 22 वर्षों में भारत और गयाना
राष्ट्रमंडल, गुटनिरपेक्ष आंदोलन तथा संयुक्त राष्ट्र संघ
में मिल-जुल कर काम कर रहे हैं। रंगभेद, गुटनिरपेक्षता, आर्थिक तथा राजनीतिक समानता एवं
विश्व शांति के मामले में दोनों देशों के विचार एक जैसे हैं। गयाना में भारत के
महान नेता महात्मा गांधी की स्मृति में राजधानी के एक महत्वपूर्ण बगीचे में बापू
की प्रतिमा स्थापित की है, जहाँ हर रोज सैकड़ों लोग उनके
दर्शन को पहुँचते है। गुटनिरपेक्षता की नीति के प्रति गयाना के पूर्ण समर्थन के
प्रमाण में जार्जटाउन के ऐतिहासिक केथेडल के सामन मार्शल टीटो, नासिर, नक्रूमा और जवाहरलाल नेहरू की प्रतिमाएँ लगी
हैं, जो शहर का एक आर्कषक दर्शनीय स्थल बन गया है।
भारत और गयाना के बीच
सास्कृतिक अदान-प्रदान को जारी रखने के लिए 30 दिसंबर 1974 को दोनों देशों के बीच हस्ताक्षरित
सांस्कृतिक समझौते के अनुसार हर वर्ष गयाना के छात्रों को मेडिकल, इंजीनियरिंग या एग्रिकल्चरल कॉलेजों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए
छात्रवृत्ति तथा संगीत छात्रवृत्ति भी दी जाती है।
भारतीय आर्थिक एवं तकनीकी
सहयोग कार्यक्रम के अंतर्गत भारत सरकार हर वर्ष गयाना के 15 कार्मिको को लघु उद्योग, वस्त्र इंजीनियरिंग,
वित्तीय एवं कार्मिक प्रबंध, विदेश-व्यापार आदि के तकनीकी प्रशिक्षण के लिए छात्रवृत्ति तथा आने-जाने का विमान किराया देती है। इसी कार्यक्रम के अंतर्गत पिछले 20 वर्षों में चमड़ा-उद्योग, रेल,
सड़क-निर्माण, कृषि तथा
जन-संचार के विशेषज्ञों ने गयाना आकर इन क्षेत्रों के विकास
के बारे में सरकार को समुचित सुझाव दिये हैं। सरकारी दायरे के अलावा भी गयाना में
अनेक भारतीय डाक्टर, इंजीनियर तथा तकनीकी विशेषज्ञ काम कर
रहे हैं। इसी प्रकार भारत से प्रशिक्षित डॉक्टरों तथा अन्य तकनीकी विशेषज्ञों की
भी संख्या गयाना में कम नहीं है। हालांकि इनमें अनेक अब गयाना छोड़कर दूसरे देशों
में चले गये हैं।
भारत एवं संबंधों के इतिहास में गयाना की राजधानी जार्ज
टाउन में भारतीय सांस्कृतिक केंद्र की 1973 में स्थापना को एक
युगांतरकारी कदम माना जाता है। इस केंद्र
में पिछले 20 वर्षों से गयाना के लोग भारतीय नृत्य-संगीत तथा हिंदी भाषा की शिक्षा लेर हे हैं। वाद्य-यंत्रों
में तबलाके अतिरिक्त अब शहनाई और बाँसुरी की कक्षा भी शूरू हो गयी हैं। भारतीय
सांस्कृतिक केंद्र के छात्र-छात्राओं ने गयाना में प्रशिक्षण
प्राप्त करके अपनी कला का प्रसार पूरे लैटिन अमरीका में किया है। केंद्र
प्रतिभाशाली छात्रों में फिलिप मेकक्लिनटॉक का नाम अग्रगण्य है जिनकी मृत्यु 1986
में हो गयी । उन्होंने भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद् की
छात्रवृत्ति पर दिल्ली जाकर कत्थक केंद्र में बिरजू महाराज से कत्थक केंद्र में
बिरजू महाराज से कत्थक की शिक्षा प्राप्त की थी तथा भारत से लौटकर जार्जटाउन के
राष्ट्रीय नृत्य विद्यालय में गयानावासियों को कत्थक सिखाना शुरू किया। आज भी उनकी
छात्राएं दक्षतापूर्वक कत्थक नृत्य कर रही हैं। फिलिप के दूसरे सुयोग्य साथी
मुमताज अली भी इस समय गयाना में कत्थक-नृ्त्य के सबसे
प्रतिभाशाली कलाकार माने जाते हैं। नृत्य के क्षेत्र में भारतीय सांस्कृतिक केंद्र
जार्जटाउन से प्रशिक्षित मार्लिन बोस, नादिरा एवं इंद्राणी
आज गयाना से बाहर भी कत्थक नृत्य का शानदार प्रदर्शन कर भारत एवं की गरिमा को बढ़ा रही है।
गयाना में हिंदीगीत, भजन, ग़ज़ल आदि काफी लोकप्रिय है। हर गाँव तथा शहरों
की हर गलियों में आप टेप पर बजते हिंदी गीतों का आनंद ले सकते हैं। मंदिरों में
हिन्दी भजनों एवं संस्कृत श्लोकों का उच्चारण 5 वर्ष के शिशु
से 100 वर्ष के वृद्ध तक इतनी शुद्धता से करते हैं कि भारतीय
राष्ट्रिकों को उनके सामने सामान्यतः चुप्पी साधनी होती है। गयाना की नई पीढ़ी के
लोगों में हिंदी पढ़ने का उत्साह है लेकिन वे हिंदी बोल नहीं पाते । गीतों एवं
भजनो के कैसेट सुनकर या रोमन में लिखकर उन्हें याद करते हैं। देश भर में भारत की
अनुकूल तथा प्रतिकूल छवि प्रस्तुत करने में हिंदी फिल्मों का योगदान महत्वपूर्ण
रहा है। गयाना के गैरे भारतीय मूल के लोग भी बड़ी संख्या में हिंदी फिल्में देखते
हैं। यहाँ कई सिनेमा घर ऐसे हैं, जहाँ साल भर सिर्फ हिंदी
फिल्में दिखायी जाती है। गयाना में सूनने के स्तर तक हिंदी को जीवित रखने में
हिंदी फिल्मों की भूमिका काफी सराहनीय रही है।
गयाना में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए तथा हिंदी के अध्ययन-अध्यापन के लिए
पिछले अनेक वर्षों से जो सघन प्रयास चल रहे थे उसमें गयाना हिन्दी प्रचार सभा,
महात्मा गांधी संस्थान आर्य प्रतिनिधि सभा एवं अन्य स्वैच्छिक
संस्थाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज से 25-30 वर्ष
पहले तथा गयाना में हिंदी का एक छोटा सा मुद्रणालय भी था जिसमें इस संस्थाओं
द्वारा छोटी-मोटी पत्रिकाएं, निमंत्रण-पत्र आदि प्रकाशित एवं मुद्रित किए जाते थे। बाद में गयाना विश्वविद्यालय
तथा गयाना के कुछ हाई स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई प्रारम्भ हुई। इनके अतिरिक्त
गयाना स्थित भारतीय सांस्कृतिक केन्द्र में भी हिंदी के अध्यापन की व्यवस्था है।
भारतीय उच्चायोग एवं भारतीय सांस्कृतिक केन्द्र के पुस्त्कालयों में हिंदी की
पुस्तकें उपलब्ध हैं लेकिन रोजगार और व्यावसाय में हिंदी की भूमिका नगण्य रहने के
कारण वहां हिन्दी के अध्ययन और अध्यापन में निरन्तर कमी आ रही है। हिंदी को वे
मातृभाषा तो नहीं लेकिन अपनी मातृभूमि की भाषा मानते हैं तथा जब वेनीग्रो जाति के
साथ अपनी तुलना करते हैं तो वहाँ की नई पीढ़ी को अपनी अस्मिता के लिए यह आवश्यक
प्रतीक होता है कि वे अपने मूल देश की भाषा हिन्दी का ज्ञान अर्जित करें। इसी
उद्देश्य को ध्यान में रखकर गयाना की पंडित कौसिल, सनातन
धर्म सभा, आर्य प्रतिनिधि सभा आदि संस्थाओं ने अपने मन्दिरों
में हिन्दी कक्षाओं को चलाने की व्यवस्था की है। भारत सरकार एवं भारत की हिन्दी
प्रेमी संस्थाओं का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि इन संस्थाओं को हिन्दी पुस्त्कें
एवं अन्य शैक्षणिक सामग्री उपलब्ध कराकर उस देश में हिन्दी के प्रचार-प्रसार को आगे बढ़ाएँ । इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय हैं कि गयाना से
प्रति वर्ष कुछ छात्र हिन्दी सीखने के लिए भारत आते हैं। मानव संसाधन विकास
मंत्रालय द्वारा संचालित केन्द्रीय हिन्दी संस्थान में उन्हें हिन्दी की शिक्षा
प्रदान की जाती है। मेरे विचार में यह आवश्यक है कि गयाना, त्रिनिडाड,सूरीनाम आदि से आने वाले छात्रों के लिए एक विशेष पाठ्यक्रम तैयार किया
जाए जिससे वे अपने देश पहुँचकर हिन्दी अध्यापकों को भी प्रशिक्षित कर सकें। आज
मारीशस, फिजी, सूरीनाम, त्रिनिडाड,गयाना में हिन्दी प्रचार-प्रसार को आगे बढ़ाने के लिए वहाँ ऐसे लोगों को भारत से भेजने की आवश्यकता
है जो पूर्ण मनोभाव,समर्पण एवं प्रतिबद्धता के साथ हिन्दी
भाषा एवं भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार कर सकें। गयाना
में भारतीय संस्कृति की परम्परा पूर्ण तथा जीवन्त है। भारतीय भाषा और साहित्य की
इस फुलवारी को भारत से गए श्रमिकों ने अपने खून और पसीने से सींचा है तथा गंगाजल
से पवित्र किया है। अतः उनके मन में भारतीय संस्कृति और हिन्दी भाषा के प्रति अगाध
स्नेह एवं श्रद्धा विद्यमान है जो हमारे दोनों देशों के सम्बन्धों को आगे बढ़ाने
के लिए यह आवश्यक है कि गयाना में हिंदी के प्रचार-प्रसार
एवं अध्ययन-अध्यापन की गति को तेज किया जाए तथा दोनों देशों
के साहित्यकार, विचारक, संगीतकार,
नाटककार एवं अभिनेता आदि तक दूसरे देश की यात्रा करें और दोनों
देशों की जनता के बीच सौहार्द्र एवं सद्भावन बढ़ाएँ।
हिंदी की
मूरति
तुलसी ने प्रभु के लिए
लिखा है, 'जाकि रही भावना जैसी, प्रभु
मूरति देखी तिन तैसी'। आजकल हिन्दी भी प्रभु की मूरति हो गई
है और अनेक रूपों में अपने भक्तों का कल्याण कर रही है । किसी के लिए हिन्दी
विवशता है, किसी के लिए नौकरी, किसी के
लिए अपनी अस्मिता की पहचान का प्रतीक, किसी के लिए अपनी
अभिव्यक्ति को रचनात्मक एवं सौंदर्यपूर्ण आकार देने का माध्यम और किसी के लिए
राजनीति के अखाड़े में दंगल करने का यंत्रा और मंत्रा । अपनी-अपनी भावना के अनुरूप कुछ हिन्दी के चरणों में नतमस्तक हैं और कुछ के
चरणों में हिन्दी नतमस्तक है । जिनकी मातृभाषा हिन्दी है, वे
इस माता का ऐसे ही उपयोग और तिरस्कार समान भाव से करते हैं जैसे संयुक्त परिवार
में रहने वाला विवाहित पुत्रा अवसरानुसार एवं निर्देशानुसार करता है तथा जिनकी
मातृभाषा हिन्दी नहीं रही है वे अपनी विदेशी हो चुकी मां का सम्मान ऐसे ही करते
हैं जैसे हम विदेशी हिन्दी विद्वानों का करते हैं ।
हिन्दी का भी भूमंडलीकरण
हो गया है । हिन्दी मात्रा अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में एक भाषा ही नहीं है
अपितु वह बाजार को विवश कर रही है कि वह उसकी ताकत को स्वीकारे । कभी भाषा और पानी
कुछ कोस बाद बदल जाते थे परन्तु आज हालात यह हैं कि हर कदम पर बोतल में बंद एक ही
स्वाद से युक्त तथाकथित मिनरल जल मिलता है और दिल्ली जैसे नगर के किसी भी कोने में
एक साथ हिन्दी के अनेक रूप कानों में रस घोलने लगते हैं। दूरदर्शन पर ही लगता है
कि जैसे प्रत्येक चैनल की हिन्दी अपना ही इस्टाईल मार रही है । विज्ञापनों की भाषा, समाचारों की भाषा, धारावहिकों की भाषा और हिन्दी
फिल्मों से अपनी रोजी - रोटी ( ! ) चलाने
वाले बेचारे हीरो हिरोईन की कब्जीयुक्त हिन्दी-भाषा ने आपके
कानों में अनेक प्रकार के रस घोले ही होंगें । वैसे तो आपके पब्लिक स्कूली होनहार
की अध्यापिका या अध्यापक आपसे हिन्दी में बात करके अपना स्तर नहीं गिरायेगी गिरायेगा और अगर उसने गिरा भी लिया तो जो
हिन्दी उनके श्रीमुख से निकलेगी उसे सुन आप ईश्वर से प्रार्थना करेंगे कि हिन्दी
का जो होना है हो, भाषा के कारण इनका स्तर न गिरे । सरल आसान
आम आदमी की भाषा आदि के नाम पर हिन्दी से जो बलात्कार हो रहा है उसे एक अच्छे
नागरिक की तरह आप नज़र अंदाज कर ही रहे होंगें । 'चैनली
हिन्दी समाचारों' में भाषा की सरलता के नाम पर जो अंग्रेज़ी
का कुमिश्रण होता है उसे देखकर तो यही लगता है बेचारी हिन्दी बहुत गरीब है जिसके
पास शब्द नहीं हैं और समर्थ अंग्रेज़ी कितनी उदार है कि वह हिन्दी को शब्द दे रही
है । मैंनें अनेक हिन्दी समाचारों में 'आसान हिन्दी' के नामपर अंग्रेज़ी शब्दों का जो मिश्रण देखा है उससे तो अनेक बार भ्रम
होने लगता है कि यह समाचार हिन्दी के हैं या अंग्रेज़ी के । फिर मेरा देसी मन मुझे
डांटता है कि रे जड़ तूने कभी अंग्रेज़ी के समाचारों में हिन्दी के वाक्यों को
सुना है जो ऐसी शंका करता है । अंग्रेज़ों ने हमपर शासन किया था कि हमने उनपर !
आज जो वे अपने माल को बेचने के लिए तेरी तुच्छ हिन्दी का प्रयोग कर
रहे हैं, तेरी हिन्दी को अपनी अंग्रेज़ी से समृद्ध कर रहे
हैं तो तूं उनका अहसान मान और नतमस्तक हो जा । अंग्रेज़ी बोलने में जो गौरव है वो
हिन्दी बोलने में कहाँ । दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ते समय मैंनें अक्सर
अनुभव किया कि विद्यार्थी हिन्दी और उसके पढ़ाने वाले को बहुत फालतू-सी वस्तु समझते हैं ।
अत: आज से चार वर्ष पूर्व जब मुझसे कहा गया कि मैं सुदूर, सहस्त्रों मील लांघकर, वेस्ट इंडीज विश्वविद्यालय
में हिन्दी पढ़ाने जाउँ तो मेरा चौकना स्वाभाविक था । मैं वेस्ट इंडीज को क्रिकेट
की शब्दावली में जानता था और त्रिनिडाड का नाम मैंनें 1996 में
होने वाले विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर 'गगनांचल '
के विशेषांक की तैयारी के लिए सामग्री संकलित करते हुए कुछ जाना था
। कुछ - कुछ जाना कि वहाँ 46 प्रतिशत
जनसंख्या भारतीय मूल के लोगों की है, जाना कि वहाँ भारतीय
संस्कृति और हिन्दी भाषा के लिए भूख है । उस देश के बारे में उत्सुकता जागी और
धीरे-धीरे समय के आवरण ने उसे ढंक दिया । परन्तु तीन वर्ष
बाद ही जब वहाँ जाने का अवसर मिला तो अनेक उत्सुकताओं ने प्रच्छन्न प्रश्नों से
घेर लिया । शब्द किसी भी स्थल का खाका तो खींच सकते हैं और उन शब्दों से हम किसी
भी स्थल को शब्द-शिल्पी की दृष्टि से जान सकते हैं परन्तु
उसे अपने अनुभव का हिस्सा तो हम उसे अनुभूत करके ही बना सकते हैं ।
बीसवीं शताब्दी के अंतिम
वर्ष के प्रथम माह, 13 जनवरी, 1999, में जब
मैं त्रिनिडाड के लिए चला तो एक लम्बी हवाई-यात्रा के सुखद
अनुभव पाने की कल्पना से अधिक भरा हुआ था और अपनों से दूर एक अनजान देश जाने की
आशंका से कम । वहाँ जाकर हिन्दी ही तो पढ़ानी थी जिसे मैं पिछले 27 वर्षों से पढ़ाता रहा हूँ और एक ऐसे देश में ही तो रहना था जहाँ 46
प्रतिशत भारतीय मूल के लोग हैं । इसमें आशंका का क्या प्रश्न !
परन्तु अनेक बार जो चीजें सरल लगती हैं वही बहुत कठिन होती है ।
पहली बार अनुभव हुआ कि आप अपनों से जितना दूर जाते हैं उतना ही उनके करीब हो जाते
हैं । पहली बार जाना कि अपने देश की मिट्टी गंध क्या होती है । मैंनें अपने इस
अनुभव को अपने एक लेख में लिखा भी है कि संतों का कहना है कि पहला प्यार, पहला भ्रष्टाचार, पहली रचना, पहला
पति/पत्नी, अर्थात् जो भी पहला हो वह
सदा याद रहता है । सन् 1999 से के आरम्भ में मेरे जीवन में
बहुत कुछ पहला- पहला घट गया । यह पहला अवसर था कि मैंनें
हजारों किलोमीटर की हवाई यात्रा की और पहली बार त्रिनिडाड पहुंच गया । यह पहला
अवसर था कि मैं स्वदेश, स्वजन, स्वपत्नी,
स्वमित्रों आदि ‘स्वों’ से दूर एक लम्बे अंतराल के लिए भीड में भी
अकेला रहने को विवश हुआ । ऐसी 'पहली' उर्वर-भूमि उपस्थित हो तो त्रिनिडाड जैसे देश से पहली नजर में प्यार होना
स्वाभाविक ही है । प्रथम- प्रेम दृष्टि में ऐसी धुंध उत्पन्न
करता है कि दूर दृष्टि धुँधला जाती है और सावन के अंधे सा व्यक्ति सब कुछ हरा ही
देखता है । भारत से बाहर निकलते ही मन हिंदी और हिंदुस्तान के लिए भावुक हो जाता
है । विदेश में कोई भारतीय चेहरा दिखाई दे तो मन उसे लपककर पकडना चाहता है और यदि 'एतराज' न हो तो गले भी लगाना चाहता है । टूटी-फूटी ही सही, हिंदी सुनने को मिल जाए तो मन गदगद हो
जाता है । ऐसी ही भावुकता ने मेरे मन मे भी जन्म ले लिया । (ऐसे
जन्म देने के लिए अपनी धरती बहुत उपजाउ है ।) त्रिनिडाड हवाई
अड्डे पर मुझे भारतीय उच्चायोग के अधिकारियों के अतिरिक्त वेस्ट इंडीज
विश्वविद्यालय के डीन श्री विष्णुदत्त सिंह भी लेने आए थे । मैंने जब यह नाम सुना
तो लगा कोई अपना मिल गया । कार में बैठा तो 'बैजू बावरा'
फिल्म के गीत, 'तू गंगा की मौज मैं जमुना का
धारा' ने किया । मन झूम उठा । मैंनें सोचा कि यह एक भारतीय
के स्वागत का त्रिनिडाडीय तरीका हो सकता है - गाने का टेप
लगा दिया ।
त्रिनिडाड पहुँचने पर मुझे
लगा कि मेरे सामने अनेक चुनौतियाँ हैं । यहाँ हिन्दी पढ़ाना ऐसा नहीं है जैसे मैं
भारत में, एक बन बनाऐ ढर्रे पर, पढ़ाता
रहा हूँ । अनेक विसंगतियों से भरा है यहाँ का भारतीय समाज । यहाँ के निवासी चाहे
भारतीय मूल के हैं : रोटी, करेली,
बैंगन, निमकहराम, चोखा,
आदि दैनिक व्यवहार में हिन्दी के शब्द हैं, परन्तु
हिन्दी उनके दैनिक व्यवहार की भाषा नहीं है । हिन्दी के शब्द एफएम स्टेशनों के
द्वारा हिन्दी फिल्मों के गीतों के रूप में चौबीसों घंटे हवा में तैरते हैं परन्तु
उनके अर्थ समझने वाले एक प्रतिशत लोग भी नहीं हैं । हर त्यौहार पर मन्दिरों में
लोग बढ़ी श्रद्धा से भजन गाते हैं, भारतीय संगीत प्रत्येक
कार्यक्रम का अभिन्न अंग है और उसकी धुन उनके हृदयों का स्पर्श अवश्य करती है परन्तु
अर्थ उन तक पहुँच नहीं पाते हैं । पिछले लगभग पन्द्रह वर्षों से भारत से हिन्दी के
अध्यापक विश्वविद्यालय निहरेस्ट में हिन्दी पढ़ाने आ रहे हैं परन्तु हिन्दी के कदम
आगे नहीं बढ़ रहे हैं । हिन्दी के अनेक ऐसे छात्रा हैं जो हिन्दी के प्रति अपनी
असीम भूख के कारण एक ही पाठयक्रम को बार- बार पढ़ रहे हैं,
क्योंकि उनके लिए उच्च शिक्षा का पाठयक्रम ही नहीं है । निश्चित
पाठयक्रम पर आधारित हिन्दी की नियमित शिक्षा मात्र वेस्ट इडीज विश्वविद्यालय में
दी जाती है और यह शिक्षा भी प्राथमिक-स्तर की है । अतिथि
आचार्यों ने पाठयक्रमों में बदलाव के प्रयत्न किए पर वह सम्भव नहीं हुए । तुलसी और
कबीर के प्रशंसकों के इस देश में इनके साहित्य की शिक्षा का कोई प्रबंध नहीं ।
किसी भी भाषा के शिक्षण के लिए उस भाषा का माध्यम के रूप में प्रयोग होना चाहिये
परन्तु यहाँ अंग्रेज़ी की बैसाखी की आवश्यकता है । अनेक वर्षों तक हिन्दी का
अध्ययन करने के पश्चात् भी ट, ठ, ड आदि
का उच्चारण एवं ड़ के स्थान पर र का उच्चारण आदि अनेक समस्याएं थी जो अपना समाधान
चाहती थीं ।
कुछ महीनों में मुझे समझ आ
गया कि इनकी हिन्दी का विद्वान् बनने में कोई रुचि नहीं है, ये तो बस थोड़ी-सी हिन्दी और थोड़ा हिन्दू धर्म और
संस्कृति से संतुष्ट होने वाले जीव हैं । मुझे समझ आ गया कि परम्परागत रूप से
मात्रा हिन्दी पढ़ाना ही मेरा धर्म नहीं होगा अपितु भाषा और संस्कृति के दूत के
रूप में मुझे कार्य करना होगा । आधुनिक कम्प्यूटर तकनीक का प्रयोग करना होगा ।
इनके विकास के लिए साहित्य की अहम् भूमिका को पाठयक्रम का हिस्सा बनाना होगा ।
तुलसी-साहित्य के माध्यम से, भक्ति से
साहित्य की ओर उन्मुख कर भाषा के सार्थक रूप से इनका परिचय कराना होगा । भाषा के
व्यावहारिक पक्ष पर बल देना होगा ।
मैंनें पाया कि मन्दिरों, रेडियो, वैवाहिक अवसरों और त्योहारों पर हिन्दी के
शब्द चाहे सुनाई देते हैं परन्तु हिन्दी बोलने के अवसर न के बराबर हैं । हिन्दी
जानने वाला भी हिन्दी बोलने मे संकोच करता है । ज़ोर देने पर, टूटे-फूटे एक दो वाक्य हिन्दी के बोलने के बाद
भारतवंशी अंग्रेज़ी पर उतर आते हैं । हिन्दी सब जगह है पर कहीं नहीं है । हिन्दी
बोलने वालों के लिए कोई वातावरण नहीं है । आवश्यकता ने एक प्रयोग करवाया, बातचीत सभा का । मई 1999 को अपने अच्छे मित्रा और
शिष्य राजन महाराज के सहयोग से 'बातचीत सभा ' का प्रयोग कर डाला। थोड़ी बहुत हिन्दी से लेकर अच्छी हिन्दी जानने वाले
प्रत्येक शनिवार शाम का दो - तीन घंटे के लिए एकत्रित होंगे
और कैसी भी हिन्दी में कुछ भी बोलेंगे । शर्त यही थी की जो भी बोलेंगें केवल
हिन्दी में बोलेंगे । सभी के लिए यह नया और आकर्षक प्रयोग था और वे उत्साही भी थे।
30 के लगभग हिन्दी प्रेमी आए, 16 से 50
वर्ष तक की आयु के । साढ़े पांच बजे आरम्भ हुई सभा बातचीत के अभाव
में साढ़े छह बज तक बहुत कठिनाई से खिंचकर समाप्त हो गई । मुझे लगा प्रयोग असफल
रहा और कोई नहीं आएगा परन्तु अगले शनिवार 35 लोग आए । हमारी
सभा बहुत ही अनौपचारिक रहती, कहानियाँ चुटकले, फिल्मी गीतों के अर्थ, छोटी-छोटी
कविताओं तथा मेरी पत्नी के चाय पकौड़े और विभिन्न भारतीय व्यंजनों के कंधे चढ़ी ये
बातचीत सभा लगभग दो वर्ष तक चलती रही और सिल्विया मूदी ने अपने सेंटर फॉर लर्निंग
लैंग्वेज तथा राजन महाराज जैसे अनेक हिन्दी अध्यापकों ने इसका प्रयोग अपने-अपने क्षेत्रों में किया । इसी प्रकार एक मिनट में आप हिन्दी के कितने
शब्द बोल लेते हैं जैसी प्रतियोगिताओं ने हिन्दी को नये रूप में सिखाया । उच्चायोग
द्वारा त्रिनिडाड हिन्दी सेवियों को सम्मानित करने के शुभारम्भ ने हिन्दी
प्रेमियों में अतिरिक्त उत्साह भरा ।
हिन्दी दिवस को भारतीय
उच्चयोग के परिसर के अतिरिक्त रवि महाराज के हिन्दू प्रचार केन्द्र तथा प्रोफेसर
हरिशंकर आदेश के भारतीय विद्या संस्थान में आयोजित करना एक अच्छी शुरुआत रही ।
त्रिनिडाड में हिन्दी की एक मात्रा संस्था 'हिन्दी निधि' है जो चंका सीताराम की अध्यक्षता में सक्रिय है परन्तु प्रो0 हरिशंकर आदेश का भारतीय विद्या संस्थान और रविजी का हिन्दू प्रचार केंद्र
हिन्दी के प्रचार - प्रसार में बहुत सक्रिय हैं । प्रो0
आदेश त्रिनिडाड क्या पूरे कैरेबियाई देशों का एक मात्र ऐसा
साहित्यिक व्यक्तित्व जो संगीत में भी पारंगत है । उनके लिखे अनेक हिन्दी गीत और
भजन त्रिनिडाड और टुबैगो के आकाश मे गूँजते हैं । भारतीय विद्या भवन अनेक स्तरों
पर हिन्दी के अध्ययन अध्यापन के पाठयक्रम चलाता है । रवि महाराज ने मेरे साथ मिलकर
मई 2002 में त्रिनिडाड में अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के
सफलतापूर्वक सम्पन्न होने पर योजना बनाई थी कि उन्हीं दिनों आरम्भ हुए 'शक्ति' एफएम चैनल पर प्रति रविवार दस मिनट के हिन्दी
में समाचार प्रसारित किए जाएं परन्तु कुछ कारणों से वह योजना सफल नहीं हो पाई ।
भारतीय उच्चायुक्त विरेन्द्र गुप्ता ने त्रिनिडाड वासियों का हिन्दी फिल्मों गीतो
और भजनों के प्रति प्रेम और उन्हें समझ न पाने की विवशता को देखते हुए सौ लोकप्रिय
गीतों के अनुवाद उच्चायोग द्वारा प्रकाशित करने की योजना बनाई है ।
सूरीनाम, फिजी, गुयाना, जमैइका, मॉरिशस, त्रिनिडाड और टुबैगो आदि ऐसे देश हैं जहाँ
रहने वाले भारतवंशियों का चरित्र बहुत कुछ एक जैसा है । आर्थिक परिस्थितियों की
विवशता में अपनों से दूर गए इन भारतवंशियों ने इन देशों में एक ऐसे लघु भारत का
निर्माण किया है तथा भाषा और संस्कृति को जो जिंदा रखा है, इसके
कारण इन पर गर्व होता है । बाहर से देखने पर इनमें एक यह समानता दिखाई देती है ।
परन्तु जैसे वेस्ट इंडीज क्रिकेट शब्दावली में एक है परन्तु अर्थव्यवस्था की और
राजनैतिक व्यवस्था भिन्न है वेसे कैरेबियाई देशों में भारतीय संस्कृति, धर्म और हिन्दी के प्रति भूख तो एक जैसी है पर ग्रहण और प्रस्तुति के स्तर
पर भिन्नताएं भी है । हिन्दी की जो स्थिति गुयाना में है वो सूरीनाम में नहीं और
जो सूरीनाम में है वो त्रिनिडाड में नहीं । कैरेबियाई देशों में हिन्दी का स्वर
मुख्य रूप से सूरीनाम, गुयाना, जमैइका
और त्रिनिडाड टेबैगो में तो सुनाई देता है ही साथ ही गुऑडलूप, बारबोडॉस, कुरासॉव जैसे अनेक छोटे द्वीपों में भी
सुनाई देता है । पर एक बात इन सभी देशों में समान रूप से पाई जाती है, भाषा और संस्कृति के प्रति अनन्य भूख और सम्मान का भाव । यहाँ हिन्दी
बोलने वाला शर्मिंदा नहीं होता है अपितु गर्व से सर उठता है । हिन्दी के अतिथि
आचार्य के के रूप में सम्मान और प्रतिष्ठा मुझे अपेक्षा से अधिक मिली है ।
इस क्षेत्र में हिन्दी
व्यावसायिक दृष्टि से भी अपनी भूमिका निभा रही है, परन्तु
इसकी मात्रा बहुत कम है । हिन्दी के प्रति भूख के कारण हिन्दी अध्यापको की
पर्याप्त मांग है, परन्तु यह मांग हिन्दी-अध्यापन को दिशाहीन भी कर रही है । मात्र दो-तीन
वर्ष तक हिन्दी का अध्ययन करने वाला विद्यार्थी हिन्दी का अध्यापक बन जाता है और
बिना किसी उचित प्रशिक्षण के पढाना आरम्भ कर देता है । अधिकांक्ष हिन्दी अध्यापक
बिना किसी नियमित पाठयक्रम तथा पाठय पुस्तक के पढ़ा रहे हैं । अधिकांश उपलब्ध पाठय-पुस्तकें भारतीय परिवेश को ध्यान में रखकर लिखी गई हैं, स्थानीय चरित्र के अनुरूप पाठय-पुस्तकों को तैयार
करवाया जाना बहुत ही आवश्यक है । उच्चारण पर ध्यान नहीं दिया जाता है। अत: इस क्षेत्र के हिन्दी अध्यापकों के लिए समुचित प्रशिक्षण के साथ-साथ नियमित पाठयक्रम की अत्यधिक आवश्यकता है। आवश्यकता है इन क्षेत्रों में हिन्दी के
कार्यक्रमों को दिशा देने की । कैरेबियाई क्षेत्रों में होने वाले सम्मेलन इस
क्षेत्र में काम करने वालों का उत्साह बढ़ाते हैं परन्तु आवश्यकता इस बात की भी है
कि इन सम्मेलनों को मेलो का रूप देकर ही समापन न किया जाए अपितु उसे सार्थक दिशा
दी जाए । संसार को आजादी का संदेश दे सकती है हिंदी ।
इंदिरा गाँधी
मेरे सम्माननीय साथियो, तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन का
उद्घाटन करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है। मेरा जन्म ऐसी नगरी में हुआ है,
जो भारतीय संस्कृति की केन्द्र है और ऐसे समय जब राष्ट्रीयता की हवा
जोरों से उठी थी। तब काम अधिकतर उर्दू में होता था और पढ़े-लिखे
लोग अक्सर फारसी के आलिम होते थे। उसका असर मेरे दादा और परिवार पर भी था। लेकिन
साथ ही उन्होंने हिन्दी के महत्व को उस समय समझा और मोतीलालजी ने अहिन्दी भाषियों
के लिए हिन्दी पढ़ाने की पाठशाला का शिलान्यास नासिक में बहुत वर्षों पहले किया
था। मेरे पिता जवाहरलाल नेहरू ने आजादी के पहले भी हिन्दी के लिए बहुत काम किया और
देश के स्वतंत्र होने पर हिन्दी के विकास के लिए विद्वानों के परामर्श से अनेक
योजनाएं चलाई, जिससे हिन्दी में विश्वकोश, शब्दसागर तथा सैकड़ों ज्ञान-विज्ञान के ग्रन्थ लिखे
जा सके।
विश्व हिन्दी सम्मेलन का
अपना विशेष महत्व है। यह किसी सामाजिक या राजनीतिक प्रश्न अथवा संकट को लेकर नहीं, बल्कि हिन्दी भाषा तथा साहित्य की प्रगति और प्रसार से उत्पन्न प्रश्नों
पर विचार के लिए आयोजित किया गया है।
मुझे खेद है कि इतने वर्ष
बीच में बीत गए जब हम मिल नहीं सके। आप सब हिन्दी के प्रेमी और विद्वान् हैं। अपने
सामने मुझे बड़े-बड़े कवि, लेखक और दूसरे
ऐसे लोग दिखाई पड़ रहे हैं। आप में से बहुत से ऐसे भी होंगे जिनकी मातृभाषा हिन्दी
नहीं है। भारत से ही नहीं, संसार के सभी अंचलों से हिन्दी
प्रेमी यहां एकत्रित हुए हैं और आप देख रहे हैं कि यह हाल कैसे भरा हुआ है। मैं आप
सबका हार्दिक स्वागत करती हूं। हिन्दी हमारी राजभाषा और विश्व-भाषा है। सबके मन में लालसा है कि हिन्दी एक महान भाषा बने।
विदेशों में हिन्दी अधिकतर
हमारे मजदूर भाइयों-बहनों के साथ गई। उनकी यह सांस्कृतिक धरोहर रही
और अपने सत्व से वहां कायम रही। हिन्दी का जन्म संस्कृत और जनता की आम भाषा के
मिलने से हुआ। इस भाषा को अहिन्दी भाषा-भाषियों ने संवारा और
बढ़ाया। केशवचंद्र सेन, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी जैसे अहिन्दी भाषा-भाषी महान पुरुषों
ने इसका प्रचार किया और इसे बल दिया। विदेशी विद्वानों ने भी इसकी सेवा की और
ग्रियर्सन जैसे व्यक्तियों ने हिन्दी में ज्ञान का खजाना बढ़ाया। महात्मा गांधी ने
कहा है कि यदि भारत को एक राष्ट्र बनना है तो चाहे कोई माने या न माने, राष्ट्र भाषा तो हिन्दी ही बन सकती है। तमिल के महाकवि सुब्रह्मण्य भारती
ने भी राष्ट्र की एकता के लिए राष्ट्रभाषा हिन्दी पर जोर दिया।
हमारे स्वतंत्रता संग्राम
में हिन्दी, उर्दू तथा भारत की दूसरी भाषाओं की महत्वपूर्ण
भूमिका रही है। देश के निर्माण के लिए इस भूमिका को और बढ़ाना है। विदेशों के लिए
इसे प्रेम और सद्भाव की वाहिका बनाना है। हमारे कवियों और साहित्यकारों ने जेलों
में भारतीय भाषाओं और हिन्दी-उर्दू के गीत गा और सुनकर
प्रेरणा ली और दी तथा कभी न बुझनेवाले स्वतंत्रता के दीप में स्नेह-दान किया।
भारत में अनेक भाषाएं हैं।
हिन्दी के प्रेमी यह जानते हैं कि ये सब आपस में बहनें हैं। जितना ही इनमें स्नेह
और समझ बढ़ेगी उतना ही हिन्दी को बल मिलेगा और दूसरी भाषाओं को भी।
गांधीजी ने कहा था कि 'हिन्दी के जरिए प्रांतीय भाषाओं को दबाना नहीं चाहता ताकि एक प्रांत दूसरे
से सजीव संबंध जोड़ सके।' गांधीजी ने हिन्दी का उपयोग
स्वाधीनता संघर्ष की वाणी के रूप में किया। परिणाम यह हुआ कि हिन्दी भाषा में एक नई
जान पड़ी, एक नया तेवर और स्वर पैदा हुआ।
हिन्दी को सभी भारतीय
भाषाओं के बीच संपर्क का काम करना है। हिन्दी इसलिए मान्य नहीं हुई कि वह सबसे
संपन्न भाषा है बल्कि इसलिए कि अहिन्दी भाषाभाषियों ने इसे अपनाया। उस पर उनका भी
स्वत्व और अधिकार है। गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिखा कि भारतीय भाषाएं नदियां
हैं, हिन्दी महा नदी। हिन्दी में यदि और नदियों का
पानी आना बन्द हो जाए तो हिन्दी स्वयं सूख जाएगी और ये नदियां भी भरी-पूरी नहीं रह सकेंगी।
आधुनिक युग विज्ञान और
तकनीकी का है। इसकी मानव की प्रगति के लिए बहुत आवश्यकता है। ज्ञान दिन-प्रति-दिन तीव्र गति से बढ़ रहा है। हिन्दी में
विज्ञान और तकनीकी के साहित्य को बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ाना चाहिए। विश्व का अन्य
संपन्न भाषाओं से जितना ज्यादा ज्ञान आएगा उतनी ही जल्दी हिन्दीवाले उसकी जानकारी
से लाभ उठा उन्नति कर सकेंगे। इसी कारण आवश्यक है कि हमारे बड़े-बड़े वैज्ञानिक हिन्दी के माध्यम से सोचना और सीखना शुरू करें। मुझे खुशी
है कि अब बच्चों के जो कार्यक्रम हैं उनमें इसका अधिक उपयोग हो रहा है। हिन्दी तब
बढ़ेगी जब उसमें विज्ञान और ज्ञान का ऐसा साहित्य रचा जाए जिसे विश्व की अन्य
भाषाएं ग्रहण करने के लिए लालायित रहें। हिन्दी को गुणों से भरना है और ऐसे
विचारों से भरना है कि यह जनता के हित में अधिक से अधिक ज्ञान दे सके।
शब्द को भारत में ब्रह्म
कहते हैं। ऐसे ही हिन्दी को व्यापक होना चाहिए। शब्दों का तो बहुत बड़ा खजाना है, किन्तु यह खजाना उपयोगी तभी होगा जब शब्दकोशों में बंद न रहे और उसका
प्रयोग हो, हमारे प्रतिदिन के जीवन में। अब हिन्दी में लाखों
नए शब्द हैं। इससे हिन्दी का विस्तार स्पष्ट है। हिन्दी का प्रचार-प्रसार तभी संभव है जब इसे सभी लोगों का विश्वास प्राप्त हो और साथ ही
हिन्दीभाषी दूसरी भाषाओं को मान दें।
भाषा आदान-प्रदान का माध्यम है। राजनीतिक भेदभाव लाने से उसका महत्व घटता है। इसी
प्रकार धर्म के नाम को राजनीति में लाना धर्म को संकीर्ण करता है।
हिन्दी में नवीन विचार, ज्ञान एवं मनुष्य के दु:ख-दर्द
का साहित्य बढ़ाना चाहिए ताकि लोगों को उससे संतुष्टि हो और अपनापन दिखे। हमारे
देश में त्रिभाषा सूत्र है। मातृभाषा तो आवश्यक है ही, राष्ट्रभाषा
अन्य भाषाओं के बीच की कड़ी है और एक बाहरी भाषा अंतरराष्ट्रीय कड़ी के रूप में
चाहिए। इससे राष्ट्र की एकता को बल मिलेगा, अंतरराष्ट्रीय मैत्री बढ़ेगी और संसार
से ज्ञान लेने और देने के लिए दरवाजे खुले रहेंगे।
भारत सरकार ने हिन्दी के
प्रचार-प्रसार के लिए यथाशक्ति प्रयास किए और कर रही है।
हजारों पुस्तकें सरकारी सहायता से लिखी गई और छपीं। पांच-छह
लाख पृष्ठों का अनुवाद हुआ। भारत सरकार ने सभी राज्य सरकारों को एक-एक करोड़ रुपये अपनी-अपनी भाषाओं में ज्ञान और
विज्ञान के उच्च साहित्य प्रकाशन के लिए दिए जिनसे कई हजार अच्छी किताबें छपीं।
सरकार ने वैज्ञानिकों और तकनीशियनों के सहयोग से पांच लाख पारिभाषिक शब्दों का
निर्माण कराया, जिनका पुस्तकों में प्रयोग हो रहा है। अहिन्दी
भाषा-भाषियों को हिन्दी सीखने के लिए पूरे अवसर दिए जाते
हैं। संसार की बहुत-सी भाषाओं और हिन्दी के शब्दकोश
विद्वानों द्वारा बनाए जा रहे हैं। इन सब प्रयत्नों से हिन्दी ने प्रगति की है,
यद्यपि हमें अभी बहुत कुछ करना है।
भाषा को अपने विकास के लिए
केवल सरकार पर निर्भर नहीं रहना है। सभी समर्थ लोगों एवं संस्थाओं को भारत तथा
विदेश में प्रचार के लिए सद्भावनापूर्वक प्रयास करते रहना चाहिए। इस समय जैसे कि
हमारे शिक्षामंत्री ने कहा है कि संसार के अनेक देशों में और बहुत से
विश्वविद्यालयों और संस्थानों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है और हिन्दी पर शोध हो रहा
है। अब विश्व में हिन्दी और भारतीय भाषाओं के प्रति रुचि बढ़ी है। कल ही मैं एक
सभा में जा रही हूं जिन्हें 'रोमा लोग कहते हैं' वे लोग समझते हैं कि बहुत वर्ष पहले, सदियों पहले वे
भारत से ही निकले और दुनिया के हर भाग में फैले। आज भी उनकी भाषा में बहुत से शब्द
हिन्दी, पंजाबी और कुछ दूसरी भारतीय भाषाओं के हैं। लोग भारत
और उसके बारे में अधिक जानना चाहते हैं। हिन्दी के पठन-पाठन
की कुछ व्यवस्था विदेशों में पहले से ही थी। सैंकड़ों वर्षों से थोड़े से विदेशी
साहित्यकार हिन्दी के साहित्य को रच रहे हैं। उन्होंने हिन्दी की पुस्तकों का
अनुवाद भी अपने देशों में किया है।
अब चर्चा है कि संयुक्त
राष्ट्र संघ में हिन्दी भी मानी जाए। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी के लिए यह
वास्तव में बड़ी बात होगी, किन्तु उससे बड़ी बात यह
होगी कि भारत में मौलिक साहित्य इतना आगे बढ़े कि शोध तथा अन्वेषण का वह माध्यम
बने और हिन्दी का साहित्य इतनी उच्च-कोटि का हो कि संसार के
लोगों को हिन्दी न जानने से अभाव लगे।
भाषा की टेक्नालाजी तेजी
से बढ़ रही है। अनुवाद के लिए कप्यूटर आदि का प्रयोग हो रहा है। हिन्दी के
वैज्ञानिकों और तकनीशियनों को इस दिशा में समय के साथ ही नहीं, दूर का सोचना चाहिए जिससे हिन्दी और हमारी दूसरी भाषाएं पिछड़ न जाएं।
हिन्दी में पत्रिकाएं और
उनके पढ़ने वालों की संख्या बढ़ी है। सिनेमा और फिल्म-संगीत ने भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार में बड़ी
सहायता की है। जो पत्र-पत्रिकाएं और फिल्में जनता तक पहुंचती
हैं, उन्हें रचनात्मक और गुणात्मक होना चाहिए ताकि भारत जैसे
महान देश की सांस्कृतिक चेतना वे प्रकट कर सकें।
हमारी सरकार ने एक हिन्दी
विश्व-विद्यालय की स्थापना पर विचार करने के लिए कुछ
समय पहले ही कमेटी नियुक्त की थी और मेरी आशा है कि उसका काम तेजी से आगे बढ़ा है।
हिन्दी सारे विश्व में
मैत्री और सद्भाव की ध्वजा फहराए। हमारे अमूल्य संदेश-सह-अस्तित्व, शांति और अहिंसा-
को दुनिया के दूर से दूर स्थान में फैलाए। यह हम सबकी कामना होगी
चाहिए। यही इसकी सार्थकता होगी।
काका साहब कालेलकर कहा
करते थे कि 'अहिंसात्मक लड़ाई लड़नेवाली यह भाषा सारे संसार
को आजादी का संदेश दे सकती है और दमन के खिलाफ आवाज उठा सकती है।' मैं यह कहूंगी कि विश्व-शांति और दलित मानव के
उत्थान में इसकी भूमिका प्रेरणात्मक होनी चाहिए तभी सब मानव जाति की सेवा यह भाषा
कर सकेगी।
मैं आशा करती हूँ कि इस
सम्मेलन से हिन्दी का अधिक प्रचार होगा और सही मायने में विश्वभाषा हिन्दी बन
सकेगी। आप सबका मैं फिर से स्वागत करती हूँ और इस शुभ अवसर पर अपनी शुभकामनाएं
देती हूँ। धन्यवाद! (तीसरे
विश्व हिंदी सम्मेलन में दिया गया अभिभाषण)
विश्व-हिंदी' के साथ-साथ 'विश्व-नागरी' भी चले
(विनोबा भावे) : विश्व बहुत नजदीक आ गया है। छोटा हो गया है। संस्कृत में हमेशा हम कहते
हैं- वसुधैव कुटुम्बकम्। मैंने यह कई दफे समझाया है कि 'कुटुम्ब' और 'कुटुम्बकम्'
में अंतर है। 'कुटुम्बकम्' यानी छोटा सा कुटुम्ब। पूरे सौर-मंडल में वसुधा का
एक छोटा सा कुटुम्ब है। सृष्टि में कई लाख ग्रह हैं। परमात्मा की सृष्टि अनंत है।
उनमें एक पृथ्वी है। इसलिए वह हमारा छोटा सा कुटुम्ब है। हम तो विश्व व्यापक हैं।
हमारा कुटुम्ब दूर तक फैला है। चंद्र, मंगल, सब हमारे कुटुम्ब में आते हैं। पृथ्वी हमारा छोटा सा कुटुम्ब है- इतनी व्यापक दृष्टि हमारे पूर्वजों की थी। वेद में शब्द आया है- 'विश्वमानुष' अर्थात् 'मैं
विश्व मानव हूं।' आज
के इस विज्ञान (साइंस) के जमाने में
सारे विश्व को एक छोटा सा कुटुम्ब मानकर चलना पड़ेगा। इसलिए 'बाबा' एक ओर ग्रामदान बोलता है और दूसरी ओर 'जय जगत्'। 'जय भारत' और 'जय हिन्द' अब पुराने पड़
गए हैं। विज्ञान के कारण अब सारे विश्व को एक होना पड़ेगा। संपूर्ण विश्व के साथ
संबंध रखना पड़ेगा। विज्ञान और आत्मज्ञान
का संबंध घनिष्ठ होना चाहिए। जैसे मोटर में दो यंत्र होते हैं- एक गति बढ़ाने या कम करने वाला और दूसरा दिशा दिखानेवाला, मोटर के लिए दोनों की आवश्यकता है। तो हमारे लिए गति देने वाला यंत्र है-
विज्ञान, और दिशा दिखाने वाला है- आत्मज्ञान- अध्यात्म (spirituality)। आने वाले युग में दो शक्तियां काम करेंगी। इनमें मैंने एक शक्ति और जोड़
दी है। बाबा का श्लोक है-
वेदान्तो विज्ञानः विश्वासश्चेति शक्तयः तिस्त्रः
यासां स्थैर्ये शांति
समृद्धि भविष्यति जगति। विश्वास तीसरी
शक्ति है। विश्वास की शक्ति अहिंसा जैसी है। जो हिंसा करेगा उसे हम अहिंसा से
जीतेंगे। उसी प्रकार अविश्वास को विश्वास से जीतना है। सामनेवालाहम पर जितना
अविश्वास करेगा, हम उस पर उतना अधिक विश्वास करेंगे। वह हमें कतल
करने को तैयार हो जाए, तो उससे कहना चाहिए- मैं तुम्हारी गोद में सो जाऊंगा, ताकि तुम्हें कतल
करने के लिए दूर न जाना पड़े। मैं मर जाऊंगा तो भी मैं अपना विश्वास नहीं
छोड़ूंगा। तात्पर्य यह है कि तीनों शक्तियों का विकास होगा, तब
दुनिया में शांति होगी- एकता होगी।
हिंदी
विश्व हिंदी सम्मेलन हो
रहा है- यह बड़ी प्रसन्नता की बात है। यूनो (UN) में स्पेनिश को स्थान है, अगरचे स्पेनिश बोलने वाले 15-16
करोड़ ही हैं। हिन्दी का यूनो में स्थान नहीं है, यद्यपि उसके बोलनेवालों की संख्या लगभग 26 करोड़
है। (इसका कारण यह
है कि बिहारवालों ने अपनी भाषा सेंसस में मैथिली, भोजपुरी
लिखी है। राजस्थानवालों ने अपनी भाषा राजस्थानी बनाई है। इन कारणों से हिंदी बोलने
वालों की संख्या 15 करोड़ रह गई। अगर हम इन सबकी गिनती करते
तो हिन्दी बोलने वालों की संख्या कम से कम 22 करोड़ होती।
इसके अलावा उर्दू भी एक प्रकार से हिंदी ही है, जिसे बोलने-वालों की संख्या करीब चार करोड़ है)। इंग्लिश बोलनेवालों की संख्या 30 करोड़ है। चीनी भाषा 70 करोड़ लोग बोलते हैं-
ऐसा यूनो में लिखा गया है। सत्तर करोड़ की वह भाषा मानी जाती है। यह
उनकी (चीनी बोलनेवालों की) कुशलता है।
चीन में कम से कम 30-40 भाषाएं हैं। परंतु उन सबकी लिपि
चित्रलिपि है। उसके साढ़े तीन-चार हजार चित्र हैं। उन
चित्रों के अनुसार वे अपनी-अपनी भाषा पढ़ लेते हैं। कोई भी
समझ सकता है कि इतने लंबे-चौड़े प्रदेश में एक भाषा हो ही
नहीं सकती। इसका अर्थ यह हुआ कि दुनिया
में बोलनेवाले लोगों की संख्या की दृष्टि से नंबर एक हैं- इंग्लिश
बोलनेवाले और नंबर दो हैं- हिंदी बोलनेवाले।
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